भारत की संसदीय प्रणाली में एक चिंताजनक ट्रेंड दिख रहा है. वह है, लोकसभा में दलित समाज के तेज़-तर्रार नेताओं की अनुपस्थिति का. कहने को तो हर आम चुनाव में अनुसूचित जाति के 84 और अनुसूचित जनजाति के 47 सांसद लोकसभा में चुनकर आते हैं, लेकिन पिछले एक दशक में लोकसभा की संरचना और कार्य प्रणाली पर नज़र दौड़ाने पर ऐसे सांसदों की सक्रियता में कमी साफ़-साफ़ दिखती है. खासकर अपने समाज से जुड़े मुद्दों पर वे आमतौर पर खामोश ही रहते हैं या फिर उनमें उस कौशल का अभाव है, जिसके बिना संसद में आवश्यक हस्तक्षेप करना मुमकिन नहीं हो पाता.
इस आम चुनाव में विभिन्न राजनीतिक दलों ने दलित समाज से जिस तरह के उम्मीदवार उतारे हैं, उन पर नज़र दौड़ाने पर बालासाहेब प्रकाश अम्बेडकर के सिवाय ऐसा कोई उम्मीदवार नज़र नहीं आता है, जिसको सामाजिक न्याय से जुड़े जटिल मुद्दों की समझ हो या जो ऐसे सवालों पर मुखर रहा है. अगर प्रकाश अम्बेडकर इस आम चुनाव में जीत कर नहीं आते हैं, तो आने वाली लोकसभा में भी दलित समाज के सांसदों की ख़ामोशी ही दिखाई देगी.
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अब सवाल उठता है कि लोकसभा में दलित समाज के सांसदों की ख़ामोशी की वजह क्या है? दलित समाज के अच्छे और तेज़ तर्रार लोग चुनकर क्यों नहीं आ रहे हैं? इस सवाल का सीधा जवाब है कि विभिन्न राजनीतिक दलों का दलित समाज के वरिष्ठ और तेज़ तर्रार लोगों को टिकट न देना, और इस समाज के वरिष्ठ नेताओं का लोकसभा की बजाय राज्यसभा के माध्यम से संसद पहुंचना.
मिसाल के तौर पर राम विलास पासवान इस बार लोकसभा चुनाव नहीं लड़ रहे हैं और उनकी योजना बीजेपी के समर्थन से राज्यसभा में आने की है. मायावती लंबे समय से लोकसभा चुनाव नहीं लड़ रही हैं. इस बार भी वे मैदान में नहीं हैं. मुमकिन है कि वे भी राज्य सभा में आएं. सीपीआई के नेता डी राजा भी राज्यसभा में ही होते हैं. रामदास आठवले भी राज्यसभा के रास्ते से संसद पहुंचे हैं.
इसको हम अगर विभिन्न राजनीतिक दलों में सक्रिय दलित समाज से आने वाले वरिष्ठ नेताओं के नाम से समझें तो उसमें कांग्रेस से मल्लिकार्जुन खड़गे, मीरा कुमार, कुमारी शैलेजा, सुशील कुमार शिंदे, मुकुल वासनिक, पीएल पुनिया, प्रो भालचन्द्र मुंगेकर; बीजेपी से थावरचंद्र गहलौत, प्रो नरेंद्र जाधव, विजय सोनकर शास्त्री, डॉ संजय पासवान, विजय सांपला, रमा शंकर कठेरिया; बसपा से मायावती, अम्बेथ राजन, डॉ बलिराम, वीर सिंह, राजाराम; डीएमके से ए राजा; और सीपीआई से डी राजा का नाम प्रमुखता से शामिल किया जा सकता है.
इस लिस्ट को बनाने के समय मुझे सपा, आरजेडी, जेडीयू, सीपीएम, टीएमसी, जेडेएस, टीडीपी, टीआरएस, एनसीपी, अकाली दल, आप और एआइडीएमके में दलित समाज का ऐसा कोई भी नेता दिखाई नहीं देता, जो कि संसदीय राजनीति में थोड़ा बहुत सक्रिय रहा हो या जिनकी राष्ट्रीय स्तर पर कोई चर्चा होती हो. हो सकता है कि इनमें कोई अच्छा दलित नेता हो, लेकिन मीडिया की साइलेंसिंग का शिकार हो.
बहरहाल, इस लिस्ट में से भी अगर दलित समाज के मुद्दों पर संसद के अंदर सक्रियता के आधार पर बात की जाय तो पीएल पुनिया, प्रो भालचन्द्र मुंगेकर, मायावती, डॉ बलिराम, अम्बेथ राजन, और डी राजा का ही नाम लिखा जा सकता है. बाक़ी ज़्यादातर दलित नेता यदा-कदा ही दलितों के मुद्दे पर कुछ बोलते हैं. डॉ संजय पासवान दलित मुद्दों पर सक्रिय तो हैं, लेकिन 13वीं लोकसभा में सांसद और बाजपेयी सरकार में मंत्री रहने के बाद भी पिछले कई चुनावों में उनको टिकट ही नहीं दिया गया. इसके अलावा, निवर्तमान लोकसभा में बीजेपी सांसदों में डॉ उदित राज काफ़ी सक्रिय रहे, लेकिन अंत समय में उनका टिकट कट गया.
मायावती का ख़ुद लोकसभा चुनाव न लड़ना और अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेता डॉ बलिराम और वीर सिंह को भी न लड़वाना, लोकसभा में दलित सांसदों की ख़ामोशी को और बढ़ाएगा.
अब सवाल उठता है कि लोकसभा में दलित समाज के वरिष्ठ नेताओं का चुनकर जाना ज़रूरी क्यों है? इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें लोकसभा और राज्य सभा की शक्तियों में अंतर को समझना ज़रूरी है.
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लोकसभा और राज्यसभा की शक्तियों में अंतर
संसदीय लोकतंत्र में लोकसभा (निचला सदन) का महत्व राज्यसभा (उच्च सदन) से ज़्यादा होता है, क्योंकि लोकसभा के सदस्यों का चुनाव सीधे-सीधे जनता द्वारा होता है, जबकि राज्यसभा का चुनाव अप्रत्यक्ष तरीक़े से राज्यों की विधानसभाओं द्वारा और राष्ट्रपति के मनोनयन के आधार पर होता है. लोकसभा को राज्यसभा की तुलना में ज़्यादा शक्तियां प्राप्त हैं.
भारत में राज्यसभा को केवल किसी विषय को राज्य सूची से हटाने-जोड़ने के मामले में ही लोकसभा से ज़्यादा शक्ति प्राप्त है. लोकसभा में बहुमत हासिल करने वाला ही व्यक्ति प्रधानमंत्री बनता है. सीधे-सीधे कहें तो लोकसभा में सदस्यों की संख्या से ही सरकार बनती-बिगड़ती है, इसलिए सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव केवल लोकसभा में ही रखा जा सकता है. इसके अलावा भारत की संचित निधि यानी रुपया, पैसा, संसाधन पर नियंत्रण भी लोकसभा का ही होता है, जिसकी वजह से सरकार को पैसा ख़र्च करने के लिए हर साल लोकसभा में बजट प्रस्तुत करना होता है.
लोकसभा देश के वित्तीय संसाधनों पर अपना नियंत्रण वित्तीय समितियों के माध्यम से करती है, जो कि तीन प्रकार की होती हैं- प्राक्कलन समिति, लोक लेखा समिति और सार्वजनिक उपक्रम समिति. इनमें से प्राक्कलन समिति लोकसभा की सबसे बड़ी और सबसे महत्वपूर्ण समिति होती है. इसके कुल 30 सदस्य होते हैं, और ये सभी लोकसभा के सांसद होते हैं.
प्राक्कलन समिति यानी एस्टिमेट कमेटी देश की अर्थव्यवस्था को सही ढंग से चलाने वाली नीतियों समेत सरकार को ख़र्चों के पूर्वानुमान पर अपना सुझाव देती है. समिति के सभी सदस्यों का चुनाव विभिन्न राजनीतिक दलों को लोकसभा में मिली सदस्य संख्या के हिसाब से हर साल होता है. पिछले साल में इस समिति के अध्यक्ष बीजेपी नेता डॉ मुरली मनोहर जोशी थे, और जहां तक इस समिति के सदस्यों की बात है तो मध्य प्रदेश के भिंड से बीजेपी के सांसद डॉ भागीरथ प्रसाद इस कमेटी में अनुसूचित जाति के एकमात्र सांसद थे.
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है, देश की अर्थव्यवस्था से संबंधित निर्णयों में दलित समाज के सांसदों की सहभगिता बहुत ही कम है.
संसद क़ानून बनाती है, संसदीय समितियां उसे लागू कराती हैं
यह एक आम धारणा है कि संसद केवल क़ानून बनाती है, जबकि संसद क़ानूनों को लागू भी कराती है. क़ानून को लागू कराने के लिए सांसद के अंदर ही अलग-अलग प्रकार की समितियां होती हैं जो कि समय-समय पर जांच करती रहती हैं कि सम्बंधित विभागों ने किसी क़ानून को ठीक से लागू किया कि नहीं.
1993 से भारत के संसद की कार्यप्रणाली में बहुत कुछ बदलाव आ गया है, क्योंकि इसी साल डिपार्टमेंट रिलेटेड स्टैंडिंग कमेटी का गठन हुआ. आजकल कुल ऐसी 24 कमेटियां हैं जिसमें 16 लोकसभा अध्यक्ष के कार्यालय के अधीन और 8 राज्यसभा अध्यक्ष के कार्यालय के अधीन कार्य करती हैं. ये कमेटियां अपने विभाग से जुड़े क़ानून एवं बजट तक के निर्धारण में बड़ी भूमिका निभाती हैं, इसलिए इनको ‘मिनी संसद’ भी कहा जाने लगा है. पूर्व सांसद बीएल शंकर और प्रो वेलेरियन रोड्रिग्स ने अपनी किताब इंडियन पार्लियामेंट- डेमोक्रेसी ऐट वर्क में संसदीय कमेटियों की कार्यप्रणाली को बहुत विस्तार से लिखा है.
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संसद की समितियों के ज़्यादातर सदस्य लोकसभा से ही चुनकर आते हैं, क्योंकि लोकसभा के सदस्यों की संख्या ज़्यादा है, और ज़्यादातर समितियां भी लोकसभा अध्यक्ष के तहत आती हैं, इसलिए समितियों में लोकसभा के सदस्यों का बोलबाला रहता है. संसद की ऐसी समितियों में वरिष्ठ सांसदों या फिर विषय विशेषज्ञता रखने वाले सांसदों का भी बोल बाला रहता है, इसलिए आजकल ऐसा अक्सर सुनने में आ रहा है कि दलित समाज के सांसद इन समितियों की मीटिंगों में जाने से ही कतराते हैं, और अगर जाते भी हैं, तो बोलने से कतराते हैं.
उक्त परिपेक्ष्य को ध्यान में रखकर अब इस बात की समीक्षा शुरू होनी चाहिए क़ि दलित समाज के वरिष्ठ राजनेता क्यों नहीं सीधे लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं? सामाजिक न्याय की लड़ाई का दावा करने वाली राजनैतिक पार्टियां विभिन्न विषयों की समझ रखने वालों को क्यों नहीं लोकसभा चुनाव लड़वा रही हैं?
(लेखक लन्दन विश्वविद्यालय के रायल हालवे में पीएचडी कर रहे हैं)