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Saturday, 21 December, 2024
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पाकिस्तान को चलाने वाली ताकतें क्यों फैलाती हैं भारत में आतंकवाद?

पाकिस्तान को वहां की सरकार नहीं, आईएसआई और वहां की मिलिटरी चलाती है. लिहाजा शांति की बात दोनों देशों के बीच दूर की कौड़ी बनी हुई है.

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भारत में आतंकवाद फैला कर पाकिस्तान को क्या हासिल होता है? एक सामरिक फायदा तो हो सकता है पर किस चीज़ के लिए? इन सवालों के कुछ जवाब यहां प्रस्तुत है.

1. स्थाई दुश्मनी: आतंकवाद के इस्तेमाल से ये बात तय है कि दोनों देशों के बीच शांति दूर की कौड़ी बन गई है. जब भी दोनों देश द्विपक्षीय बातचीत की प्रक्रिया के नज़दीक भी पहुंचते हैं तो आतंकी हमलों का एक पैटर्न नज़र आने लगता है. 2016 में प्रधानमंत्री मोदी के अकस्मात पाकिस्तान यात्रा के ठीक एक हफ्ते बाद, जैश ए मोहम्मद ने पठानकोट के वायु सेना के अड्डे पर हमला बोल दिया.

जब 2008 में मुम्बई पर 26/11 का हमला हुआ तब पाकिस्तान के विदेश मंत्री भारत में थे. पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी ने एक बड़ी बात कही थी कि पाकिस्तान अपने परमाणु अस्त्रों के ‘नो फर्स्ट यूज़ ‘ नीति अपनाने के लिए तैयार है, जैसा कि भारत की नीति है. बहुत आशा से दोनों देशों ने लाहौर धोषणा पत्र साइन किया था पर उस पर 1999 के कारगिल युद्ध ने पानी फेर दिया.

इस पैटर्न से स्पष्ट है कि पाकिस्तान की डीप स्टेट दोनों देशों के बीच दोस्ती नहीं देखना चाहती. उसको पता है किसी आतंकी हमले के बाद भारतीय नेतृत्व द्विपक्षीय बातचीत कर ही नहीं सकता, क्योंकि उस पर गहन घरेलू दबाव होगा.


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2. फौज के साथ देश: ऐसा माना जाता है कि पाकिस्तान की फौज है, जिसके पास एक देश है. पाकिस्तान से मतभेद रखने वाले लेखक हुसैन हक्कानी अक्सर हमे याद दिलाते हैं : ‘ब्रिटिश इंडिया की फौज का एक तिहाई हिस्सा पाकिस्तान को विरासत में मिला पर बस उसके संसाधनों का 17 प्रतिशत ही. उसने पाकिस्तान की फौज को ड्राइविंग सीट पर ला दिया जो कि पाकिस्तान के राष्ट्रवाद की व्याख्या करता है.’

लेकिन अक्सर राजनेता ड़्राइवर की सीट पर बैठना चाहते हैं. पर पाकिस्तान की सेना को अपनी बात सिद्ध करनी है और अपना औचित्य भी दर्शाते रहना है. और ऐसा करने के लिए भारत हमेशा आक्रामक और पाकिस्तान के दुश्मन के रूप में दिखाई देना चाहिए. और ऐसा करने के लिए आतंकवाद सबसे अच्छा औज़ार है.

पाकिस्तानी विद्वान आयेशा सिद्दिका ने अपनी महत्वपूर्ण किताब मिलिटरी इंक में दस्तावेजों के साथ लिखा है कि कैसे पाकिस्तान की सेना अर्थव्यवस्था के सभी भागों में घुसी हुई है. ये दुनिया की इकलौती सेना होगी जो सीमेंट, कपड़े, मांस, बीमा आदि बेचती है. पर उसका मुख्य इंट्रेस्ट रियल एस्टेट में ही हैं. अगर सरकार फौज पर हावी होती है, तो रावलपिंडी की समानांतर अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचेगी- जिसका सीधा असर इस बात पर होगा कि एक जनरल को रिटायरमेंट के बाद कितने प्लॉट मिलते हैं.

अपने 72 साल के जीवन में पाकिस्तान पर सैन्य साशन 33 सालो तक रहा. जब फौजी शासन संभव नहीं हुआ वे एक ऐसी नागरिक सरकार को पसंद करते हैं जो उनके हाथ की कठपुतली हो- जैसे की मौजूदा सरकार.

3. 1971 का बदला: किसी ऐसे पाकिस्तानी से मिलना मुश्किल का काम है, जो बांगालादेश को पाकिस्तान से मुक्त कराने के लिए भारत के खिलाफ दुर्भावना पाले बैठा हो. पाकिस्तानी इस बात को जानते हैं कि पूर्वी पाकिस्तान के साथ सत्ता में भागीदारी न करने की उनकी खुद की सरकार की अनिच्छा, और उनकी स्वयं की सेना के नस्लीय अहंकार के कारण देश का पूर्वी भाग अलग हो गया, भारत ने तो बस प्रक्रिया को तेज़ किया है.

लेकिन पाकिस्तान की सेना के लिए 1971 केवल बंग्लादेश के बारे में नहीं था. ये पाकिस्तान की सेना की बेइज़्ज़ती भी थी, जिसे भारतीय सेना के समक्ष 93000 युद्ध बंदियों के साथ आत्मसमर्पण करना पड़ा था.

दिल्ली के एक पाकिस्तान के जानकार हैपी मैन जेकब ‘हम मानें या न मानें 1971 की बेइज़्ज़ती का फौज की मानसिकता पर गहरा असर पड़ा है और साथ ही भारत के प्रति उसके रवैये पर भी. उसकी आज की भारत और कश्मीर के प्रति नीति को इस परिप्रेक्ष्य में न देखना कि ये उसके गहरी बेइज़्ज़ती के भाव से प्रभावित है, इतिहास को नज़रअंदाज़ करने जैसा होगा.’ चाहे भारत का पंजाब या कश्मीर हो, पाकिस्तानी सेना 1971 की बेइज़्ज़ती का बदला लेना चाहती है.

4. राष्ट्रीय पहचान का संकट: दिसम्बर में इस्लामाबाद में बलोच छात्रों को संबोधित करते हुए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमराम खान ने कहा था ‘भारत में मुसलमानों के साथ जैसा व्यवहार होता है, उसने लोगों को ये समझने में मदद की है कि पाकिस्तान की स्थापना क्यों हुई.

ये बात कितनी ध्यान देने लायक है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को पाकिस्तान की स्थापना के 71 साल बाद उसकी औचित्य को न्यायोचित बताना पड़ रहा है. देश के राष्ट्रीय पहचान संकट को सुलझाने के लिए पाकिस्तान को अपने दुश्मन से चिपके रहना ज़रूरी है, इसलिए आतंकवाद के ज़रिए लगातार दुश्मनी बरकरार रखी जाती है. पाकिस्तान की राष्ट्रीयता भारत के साथ लगातार चल रही एक प्रतियोगिता है – या फिर एक हज़ार साल का युद्ध जैसा है कि एक बार पाकिस्तान के दिवंगत नेता ज़ुल्फिकार अली भुट्टो ने कहा था.

पाकिस्तान का भारत विरोध उसके जन्म से ही है, जब माना जाता था कि भारतीय नेतृत्व ने पाकिस्तान की स्थापना को उनकी इच्छा के खिलाफ स्वीकार किया था और फिर वो उस देश को अस्थिर करने का हर मौका इस्तेमाल कर रहा है. पाकिस्तान के सैन्य प्रोपोगेंडा ने भारत को हमेशा एक ऐसे देश के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसने पाकिस्तान को अस्थिर करने और खत्म करने की कोशिश की है.

और इस बात की पुष्टि 1971 में हो भी गई, जिसने पाकिस्तान के राष्ट्रिय पहचान संकट को और गहरा कर दिया. अगर हिंदू और मुस्लिम पृथक राष्ट्र हैं तो फिर बंगाली मुस्लिम पाकिस्तान से अलग क्यों हो गए? इसलिए अब ये और भी ज़रूरी हो गया कि भारत में नस्लीय तनाव का समर्थन और बढ़वा किया जाएगा.

5. द ग्रेट गेम: पिछले हफ्ते, तीन देशों ने अपनी धरती पर आतंकवादी हमलों के लिए पाकिस्तान को दोषी ठहराया: भारत, ईरान और अफगानिस्तान. पाकिस्तान का आतंकी ढांचा वैश्विक है. इसकी शुरुआत अफगानिस्तान में सोवियत संघ को हराने के लिए अमेरिका के इशारे पर मुजाहिदीनों के प्रशिक्षण से हुई. 1989 में सोवियत की हार के बाद, आतंकवादी ढांचे को कश्मीर की ओर मोड़ दिया गया था. इतिहास आज खुद को दोहरा रहा है – जैसा कि अमेरिका अफगानिस्तान से बाहर निकल रहा है, कश्मीर में आतंकवाद फिर से बढ़ रहा है.

पुलवामा हमला, जिसमें में कम से कम 40 अर्धसैनिक बलों के जवानों की मौत हो गई है, जब पश्चिमी ताकतें अफगानिस्तान, तालिबान में पाकिस्तान की प्रॉक्सी के साथ बातचीत की मेज पर आने के लिए तैयार हो गई हैं. तालिबान से निपटने और एक स्थिर अफगानिस्तान सुनिश्चित करने के लिए दुनिया को पाकिस्तान की जरूरत है. कश्मीर का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने और भारत पर दबाव बनाने के लिए पाकिस्तान के लिए बेहतर क्षण नहीं हो सकता है. यही कारण है कि नई दिल्ली की पाकिस्तान को ‘अलग-थलग करने’ की बात स्थानीय लोगों की सोच को दर्शाती है.

यहां ध्यान देने वाली बात है कि जैश-ए-मोहम्मद, जिसके तालिबान के साथ संबंध से सब भलीभांति परिचित हैं, ने पिछले दो वर्षों में कश्मीर में खुद को पुनर्जीवित किया है, क्योंकि अमेरिका ने इस क्षेत्र से अपना ध्यान हटा दिया है और पाकिस्तान अफगानिस्तान में अधिक सुरक्षित महसूस करता है.

इस प्रकार भारत इस क्षेत्र में चल रहे ग्रेट गेम का हिस्सा है. नई दिल्ली ने काबुल में जवाबी कार्रवाई में अपना पक्ष मजबूती से रखा है, जिससे पाकिस्तान खुद को और असुरक्षित महसूस कर रहा है. पाकिस्तान ने भारत पर अफगान सीमा के माध्यम से बलूचिस्तान में हिंसा करने का भी आरोप लगाया है.


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6. कश्मीर: भारत को कश्मीर से मुक्त करना हमेशा पाकिस्तानी राष्ट्रवाद का मुख्य उद्देश्य रहा है. यह दो-राष्ट्र सिद्धांत का उल्लंघन है. विभाजन में सभी मुस्लिम बहुल क्षेत्रों पर पाकिस्तान के दावे को देखते हुए, पाकिस्तानियों का कहना है कि उन्हें कश्मीर मिलना चाहिए था. यह विभाजन का अधूरा व्यवसाय है, यह घाटी है जहां से पाकिस्तान की नदियां बहती हैं.

1965 में और 1999 के कारगिल युद्ध में आज़ाद हुए कश्मीर को आज़ाद कराना, उन्हें आतंकवाद के साथ एकमात्र विकल्प के रूप में छोड़ दिया गया. उन दोनों युद्धों में पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी. आज, पाकिस्तान का कश्मीर मुद्दा भारतीयतावाद का विरोध के लिए एक बहाना ज्यादा है. जब पाकिस्तान को भारतीय पंजाब में बगावत करना था, तब उसने किया और कश्मीर में पनपने के लिए, उसे नई दिल्ली द्वारा अपने ही कश्मीरी मुस्लिम नागरिकों के अलगाव के कारण, एक मौका मिल गया है.

कश्मीरी अलगाव जहां गोला-बारूद है, वहीं आतंकवादी समूह बंदूक हैं. ट्रिगर को खींचने वाली पाकिस्तान सेना है. जिस देश में ओसामा बिन लादेन को आराम से रखा गया था, वहां इसकी अस्वीकृति में बहुत अधिक संभावना नहीं है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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