भारत अपने भौगोलिक विस्तार में भू-परिदृश्यों और जलवायु की दृष्टि से दुनिया की सर्वाधिक विविधताओं को समेटे हुए है. दक्षिण में, हमारे पास द्वीपों समेत एक विशाल तटीय क्षेत्र है. पश्चिम में, हमारे पास रेगिस्तान हैं, तो साथ ही नमक उत्पादन क्षेत्र एवं दलदली भूमि भी. पूर्वोत्तर में हरे-भरे पहाड़ी क्षेत्र और पर्वत श्रृंखलाएं हैं जिनकी औसत ऊंचाई 5,000 से 10,000 फीट है. उत्तर में, हमारे पास महान हिमालय है, जो अपने भीतर 20,000 से 25,000 फीट की औसत ऊंचाई वाले पहाड़ समाए हुए है.
इतनी विशाल भूमि की रक्षा के लिए हमारे पास प्रत्येक क्षेत्र के लिए अलग से विशेष बल नहीं है. हमारी सेना के जवान रोटेशन में काम करते हुए सभी क्षेत्रों में सीमाओं की रक्षा करते हैं. पश्चिम में सेवारत एक सैनिक 48° C तक के ऊंचे तापमान को सहन करता है लेकिन उत्तर में सेवारत रहते हुए उसे -50° C तक की सर्दी को भी झेलना पड़ता है. इसलिए आश्चर्य नहीं कि हमारे सशस्त्र बलों की उनकी क्षमताओं के कारण दुनिया में शीर्ष रैंकिंग है. वे वांछित युद्ध के लिए अतिशीघ्र खुद को अनुकूलित कर लेते हैं. और भारतीय वायुसेना (आईएएफ) की स्थिति इससे कोई अलग नहीं है.
वायुसेना को ना सिर्फ युद्ध के समय बल्कि शांतिकाल में भी एक विशेष भूमिका निभानी पड़ती है.
हमारी सेना ऐसे इलाकों में भी कार्यरत है जहां कि रेल या सड़क मार्ग की पहुंच नहीं है. उन तक रोज़मर्रा के इस्तेमाल की चीजें पहुंचाने के लिए वायुसेना चौबीसों घंटे काम करती है और ये बात बहुतों को मालूम नहीं है. वास्तव में हमारे सशस्त्र बलों को पूरे साल हवाई साधनों के ज़रिए ही रसद से परिपूर्ण रखा जाता है. सैनिकों तक कितना सामान विमानों से पहुंचाया या गिराया जाता है, ये जानकारी किसी को भी चकित कर सकती है. दुनिया का कोई और देश शांतिकाल में इतना व्यापक हवाई अभियान नहीं चलाता है.
हमारे मालवाहक विमान और हेलीकॉप्टर ना सिर्फ उत्तर और पूर्वोत्तर के क्षेत्रों में बल्कि दक्षिण में अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में भी रसद की निरंतर आपूर्ति का दायित्व निभाते हैं.
उत्तरी सेक्टर (हिमालयी) और पूर्वोत्तर के क्षेत्रों की भौगोलिक दशाएं पर्वतीय होने के कारण वहां खुले इलाकों का अभाव है, जिसके कारण वहां हवाई पट्टियां बहुत छोटी होती है– कई तो पक्की भी नहीं हैं और मिट्टी पाटकर उन्हें संचालन योग्य बनाया गया है. ऐसी हवाई पट्टियों को एडवांस लैंडिंग ग्राउंड (एएलजी) के नाम से जाना जाता है. ऐसे कई रनवे बहुत ऊंचे इलाकों में हैं जिसके कारण वहां उड़ानों का संचालन अनेक तरह की सीमाओं में रहते हुए करना पड़ता है जिनमें ऊंचाई पर इंजन आउटपुट में ह्रास के कारण भार वहन क्षमता का कम होना शामिल है.
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एयर डिलिवरी
हवाई आपूर्ति अभियान उन स्थानों के लिए भी संचालित किया जाता है जहां ना तो कोई रनवे है और ना ही सड़क मार्ग की सुविधा. इस तरह की कठिनाइयों से पार पाने के लिए सैनिक चौकी के पास की जमीन के एक हिस्से को समतल किया जाता है ताकि वह आसमान से दिख सके. इस समतल हिस्से को ड्रॉपिंग ज़ोन कहा जाता है. यहां जमीन से 1,000 फीट ऊपर से पैराशूटों की मदद से राशन गिराया जाता है ताकि गंतव्य तक वो बिना किसी नुकसान के पहुंच सके. इस तरह के अभियान में विमान से रसद गिराए जाते ही पैराशूट खुल जाता है जो उसे चिन्हित स्थल तक ठीक से पहुंचाने का काम करता है.
ड्रॉपिंग ज़ोन वाले हवाई अभियान बहुत कठिन और कई बार खतरनाक भी होते हैं क्योंकि संकरी घाटियों और ऊंचे पहाड़ों के कारण उड़ानों के संचालन के लिए पर्याप्त जगह की गुंजाइश नहीं होती है. तेज़ हवाएं स्थिति को और विकट बना देती हैं और विमानों के लिए संतुलन बनाए रखना मुश्किल हो जाता है. तेज़ हवाओं के कारण सही निशाने पर गिराई रसद सामग्री भी छिटक कर दूर जा सकती है. इस तरह लक्ष्य से दूर गिर जाने पर अक्सर रसद की खेप बेकार चली जाती है क्योंकि जमीन पर तैनात सैनिकों के लिए मुश्किल भौगोलिक दशाओं वाले इलाकों तक पहुंचना संभव नहीं होता है. पर्वतीय इलाकों में अभियानों के दौरान रसद सामग्री गिराने के लिए विमान का दरवाज़ा खुलने के बाद सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए चालक दल को शत-प्रतिशत ऑक्सीजन का इस्तेमाल करना पड़ता है.
संपूर्ण सियाचिन ग्लेशियर क्षेत्र में रसद सामग्री की आपूर्ति विमानों के ज़रिए ही हो पाती है. कुछ छोटे स्थलों पर हेलीकॉप्टर उतर सकते हैं और सामान पहुंचा सकते हैं लेकिन उनकी भार वहन क्षमता कम होने के कारण उनका सीमित उपयोग ही हो पाता है. इसलिए उत्तर और पूर्वोत्तर के इलाकों में अनेक सैन्य चौकी पूरी तरह विमानों के ज़रिए रसद आपूर्ति पर निर्भर करते हैं.
सर्दियों के मौसम में ज़रूरी सामग्रियों की आपूर्ति में भारतीय वायुसेना की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि भारी हिमपात के कारण अनेक इलाकों तक सड़क संपर्क टूट जाता है. वायुसेना को कितना व्यापक अभियान चलाना पड़ता है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि अकेले उत्तरी सेक्टर में हर साल सामान और यात्री समेत करीब 30,000 टन भार विमानों के ज़रिए पहुंचाना पड़ता है. पूर्वोत्तर में अब बेहतर यातायात नेटवर्क के कारण डिलिवरी लोड घटकर 10,000 टन रह गया है.
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हिमालयी जोखिम
हिमालय सिर्फ विशाल ही नहीं है बल्कि यह अनेकों चुनौतियां भी पेश करता है— संकरी और कई बार अंधी घाटियां (यदि आप उनमें फंसे तो निकलना संभव नहीं), बर्फ जमाव की विकट स्थितियां, अत्यंत कम तापमान और पर्वतीय हवाएं जो ना केवल विमान को झकझोर देती हैं बल्कि उसे उड़ान के दौरान तोड़ भी सकती हैं. ये सारी वजहें पायलटों के लिए उड़ान संबंधी मुश्किलें बढ़ा देती हैं. यहां तक कि विमान भी इन विकट परिस्थितियों में अलग तरह से व्यवहार करते हैं— उनके घुमाव का कोण बढ़ जाता है यानि उन्हें मोड़ने के लिए अधिक जगह की दरकार होती है. और संकरी घाटियों में यह अतिरिक्त जगह मिलना कठिन होता है.
पायलटों को अत्यधिक हिमपात और बादलों के कारण व्हाइटआउट का भी सामना करना पड़ता है— यानि आकाश और जमीन बिल्कुल सफेद दिखना और क्षितिज का पता नहीं चलना. इससे दिशाभ्रम की स्थिति बन जाती है. तो फिर वायुसेना के पायलटों के लिए इन परिस्थितियों में उड़ान भरना कैसे संभव हो पाता होगा? ऐसे में प्रशिक्षण, खासकर उपकरणों संबंधी प्रशिक्षण काम आता है और उसी पर किसी मिशन की सफलता या नाकामी निर्भर करती है. हालांकि इस तरह के अभियानों में संयोग का कारक भी हमेशा जुड़ा होता है क्योंकि आप मशीन पर निर्भर होते हैं, जो तमाम अच्छी सर्विसिंग के बावजूद गड़बड़ कर सकती है.
पायलटों को सदैव सजग रहते हुए मेकेनिकल विफलताओं को समय रहते भांपना होता है और उन्हें तमाम आपातकालीन प्रक्रियाओं में दक्ष रहना होता है. जो चीज आपके नियंत्रण में नहीं है उसके लिए ज़्यादा कुछ किया भी नहीं जा सकता है. लेकिन जो कुछ भी नियंत्रित किया जा सकता है, उसे कभी भाग्य भरोसे नहीं छोड़ा जाता. बहुत कुछ मौसम पर भी निर्भर करता है. बुरे मौसम में कई-कई दिनों तक उड़ान भरना संभव नहीं हो पाता है. लेकिन मौसम में सुधार होते ही आपको समय का अधिकतम फायदा उठाना होता है. क्योंकि अनेकों लोग रसद की हवाई डिलिवरी पर पूरी तरह निर्भर हैं.
वायुसेना भले ही सैनिकों के काम के माहौल को बेहतर नहीं कर सकती हो लेकिन उसे रहने लायक बनाने के लिए वह हमेशा अतिरिक्त प्रयास करने को तैयार रहती है. हवाई अनुरक्षण कई मायनों में युद्ध की तैयारियों से जुड़ा काम है क्योंकि यह सैनिकों के मनोबल को बढ़ाने वाला उद्यम है. युद्धकाल में सारे प्रयास जहां एक सीमित अवधि पर केंद्रित होते हैं, वहीं हवाई आपूर्ति का काम पूरे साल समान जोश और उत्साह के साथ बरकरार रखना होता है.
हिमालयी क्षेत्रों में वायुसेना को सुदूरवर्ती इलाकों को पोषित रखने का असाधारण कार्य करना पड़ता है. इसने चंडीगढ़ से लेह, थोइस, सियाचिन और अक्साई चीन के बीच हवाई सेतु बना रखा है. चंडीगढ़ का एयरफोर्स स्टेशन वायुसेना की सुचारू अनुरक्षण व्यवस्था का केंद्र है.
लगातार -50 डिग्री सेल्सियस जितने कम तापमान और अपर्याप्त ऑक्सीजन वाले माहौल में रहने का मानव शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है. लेकिन सुदूरवर्ती इलाकों में सड़क संपर्क और उन्नत चिकित्सा केंद्रों के अभाव के कारण स्थानीय आबादी और जवानों को उपचार उपलब्ध कराने में मुश्किलें पेश आती हैं. ऐसे में ज़रूरतमंदों को मैदानी इलाकों में स्थानांतरित करना ही एकमात्र समाधान है और वो भी न्यूनतम संभव समय में.
उत्तरी सेक्टर में एक और अति महत्वपूर्ण काम है हताहतों को बाहर निकालना. निरंतर मौसम खराब रहने के कारण कई बार बीमारों को मैदानी इलाकों में पहुंचाने का कार्य बाधित होता है. हालांकि एलएसी की स्थिति और एलओसी पर शत्रु की भारी गोलाबारी के कारण वहां से विमानों के ज़रिए निकाले जाने वाले सैनिकों की संख्या बढ़ जाती है. भारतीय वायुसेना के हेलीकॉप्टर पायलट सुदूरवर्ती पहाड़ी इलाकों से मरीजों को लेह या थोइस पहुंचाते हैं, जहां से मालवाहक विमानों के ज़रिए उन्हें उन्नत उपचार के लिए चंडीगढ़ लाया जाता है. त्वरित हवाई निकासी के कारण ही बड़ी संख्या में लोगों की जान बचाना संभव हो पाता है.
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मानवीय सहायता में भूमिका
हवाई अनुरक्षण को संभव बनाने के अलावा शांतिकाल में वायुसेना के दो अन्य प्रमुख कार्य हैं— मानवीय सहायता और आपदा राहत. इनके तहत ही संघर्ष के इलाकों से भारतीय नागरिकों को निकालने का काम भी आता है. भारतीय वायुसेना ने इस तरह के अनेक साहसिक अभियानों को अंजाम दिया है. इस संबंध में इराक और यमन से भारतीयों की निकासी के अभियानों को हमेशा ही विशेष रूप से याद किया जाएगा.
आपदा राहत वायुसेना का एक और महत्वपूर्ण कार्य है. भूकंप, बाढ़ और दावानल की आपदाओं के दौरान वायुसेना की त्वरित कार्रवाई के कारण असंख्य जिंदगियां बचाई जा चुकी हैं. भुज में आए भूकंप के दौरान प्रभावित लोगों तक सहायता पहुंचाने में वायुसेना सबसे आगे थी. नेपाल का भूकंप एक और प्रमुख प्राकृतिक आपदा थी जिसमें सहायता कार्यों की दृष्टि से भारतीय वायुसेना का अप्रतिम योगदान था. हमने तत्परता से कार्रवाई की थी और भूकंप से काठमांडू में हवाई पट्टी को हुए नुकसान के आकलन के लिए हमारा सी-130 विमान छह घंटों के भीतर वहां पहुंच गया था. ऐसा हमारे दिलेर पायलटों के कारण संभव हो सका था जिन्होंने रनवे के सुरक्षित बचे अधूरे हिस्से पर अपना विमान उतार दिया. मानवीय सहायता की हवाई आपूर्ति शुरू करने की दृष्टि से यह बहुत ही अहम कार्रवाई थी.
टीवी चैनलों पर भूकंप का समाचार आना शुरू होते ही, मैंने विदेश और रक्षा मंत्रालयों के निर्देशों के इंतजार में स्क्वाड्रन को पूरी तरह तैयार रहने के निर्देश दे दिए थे. संकट की उस घड़ी में नेपाल की सहायता के लिए भारत सबसे पहले पहुंचने वाला देश था जबकि चीन और अमेरिका जैसे बड़े देश भी तब तक सक्रिय नहीं हो पाए थे. काठमांडू एयरपोर्ट को तत्परता से ऑपरेशनल बनाने की भारतीय वायुसेना की कार्रवाई की पूरी दुनिया ने सराहना की थी क्योंकि असंख्य ज़िंदगियां बचाने के लिए यह कार्रवाई अहम थी. उसके बाद जो अभियान चला वह मानवीय सहायता के इतिहास में एक मैराथन कार्रवाई थी.
बाढ़ राहत अभियान तो हर साल चलाना पड़ता है, खासकर लेह, उत्तराखंड और कई अन्य राज्यों में. चुनावों के शांतिपूर्ण आयोजन के लिए सशस्त्र बलों की तैनाती सुनिश्चित करना एक और काम है जो भारतीय वायुसेना अक्सर करती है. हजारों जवानों को न्यूनतम समय में देश के एक छोर से दूसरे छोर पर पहुंचा दिया जाता है.
इतना ही नहीं नोटबंदी के बाद जब सुदूरवर्ती इलाकों में नए करेंसी नोटों की उपलब्धता सुनिश्चित करने का वक्त आया, तो भारतीय वायुसेना को ही इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई थी.
आज भारत एक महान लोकतंत्र है और लोकतांत्रिक परंपराओं को आगे बढ़ाने में भारतीय वायुसेना की अहम भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है. एलएसी पर दुश्मन की आक्रामकता ने एक बार फिर भारतीय वायुसेना और उसकी क्षमताओं की ओर लोगों का ध्यान खींचा है लेकिन हमारे हवाई योद्धा हमेशा ही तत्परता से कार्य कर रहे होते हैं, जब वे चर्चा के केंद्र में नहीं हों तब भी.
(एयर वाइस मार्शल सूर्यकांत चाफेकर, एवीएसएम, शौर्य चक्र, 2017 में भारतीय वायु सेना से अनुरक्षण कमान के एसएएएसओ के रूप में सेवानिवृत हुए थे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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