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Monday, 16 December, 2024
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दलितों का पर्व क्यों है संविधान दिवस और कौन चाहता है इसकी समीक्षा

ये एक पहेली है कि देश की आजादी के बाद संविधान के लागू होने के बावजूद जो समुदाय विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य और मानवीय गरिमा के मामले में सबसे पीछे रह गया, वही समुदाय संविधान के प्रति सबसे ज्यादा वफादार क्यों है.

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भारत सरकार और भारत सरकार की सलाह पर राज्य सरकारें 2015 से 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में मना रही हैं. 2015 में ये शुरुआत बाबा साहब डॉ. बी.आर. आंबेडकर की 125वीं जयंती समारोह के क्रम में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा की गई थी. तब से हर साल ये सिलसिला जारी है.

सरकारों ने बेशक संविधान दिवस मनाना अभी शुरू किया है, लेकिन संविधान दिवस का समारोह दलित समुदाय में काफी पहले से मनाया जा रहा है. इस दिन कई शहरों और कस्बों में दलित समुदाय के लोग घरों में रोशनी करते हैं, संविधान के मुख्य वास्तुकार आंबेडकर के योगदान पर सेमिनार करते हैं, प्रभात फेरी निकालते हैं और बच्चों की भाषण प्रतियोगिता कराते हैं.

ये एक पहेली है कि देश की आजादी के बाद संविधान के लागू होने के बावजूद जो समुदाय विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य और मानवीय गरिमा के मामले में सबसे पीछे रह गया, वही समुदाय संविधान के प्रति सबसे ज्यादा वफादार है और संविधान के प्रति अपने लगाव का प्रदर्शन भी कर रहा है.

लोकतंत्र में दलितों को सबसे कम मिला

संविधान लागू होने के सात दशक बाद दलित देश के सबसे कम विकसित, सबसे कम शिक्षित और सबसे गरीब समुदायों में हैं, जहां उसकी बराबरी पर सिर्फ आदिवासी हैं. दलित महिलाएं सवर्ण महिलाओं से काफी पहले मर जाती हैं. शिशु मत्यु दर से लेकर जन्म देने के समय माताओं की मौत जैसे हर आंकड़े में दलितों की स्थिति बुरी है. शासन और सत्ता के किसी भी अंग, जैसे – न्यायपालिका, नौकरशाही, मीडिया, कला जगत, उच्च शिक्षा संस्थान, कॉरपोरेट सेक्टर- में दलितों की हिस्सेदारी आबादी से काफी कम है, जिसे लेकर तमाम तरह के अध्ययन और शोध हो चुके हैं. जिन मंदिरों में करोड़ों-अरबों रुपयों की जायदाद हैं, उनके संचालन में दलितों की हिस्सेदारी शून्य है. वे ज्यादा से ज्यादा अब वहां दक्षिणा देने लगे हैं.


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जाति आधारित उत्पीड़न दलितों के जीवन की हकीकत है. इन अपराधों को रोकने में तत्कालीन कानूनों के बेअसर होने की वजह से 1989 में एससी और एसटी अत्याचार निरोधक अधिनियम संसद ने पास किया. इसके बावजूद उनके साथ अत्याचार खत्म नहीं हुए हैं. ये अत्याचार और भेदभाव काम की जगहों से लेकर उच्च शिक्षा संस्थानों में हो रहे हैं. आंगनबाड़ी में नन्हे बच्चे दलित महिला का बनाया हुआ खाना खाने से इनकार कर सकते हैं. ऐसी घटनाओं की खबर अक्सर आती है.

भारत में बढ़ रही है असमानता

दुनिया में असमानता का अध्ययन करने वाले फ्रांसिसी अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी के मार्गदर्शन में एन.के भारती ने एक पेपर में पाया कि जाति और आर्थिक समृद्धि का मजबूत रिश्ता है. भारत की कुल समृद्धि में दलितों का नाम मात्र का हिस्सा है. अपने शोध के निष्कर्ष में वे लिखते हैं कि – ‘विकास के मामले में निचली जातियों के लोग या तो स्थिर हैं या फिर उनकी हालत बिगड़ी है. किसी भी भारतीय नीति निर्माता के लिए सबसे चिंताजनक बात ये होगी कि निचली जातियों में शिक्षा का स्तर बेहद निम्न है. इसका मतलब है कि आने वाले दिनों में उनकी हालत में और गिरावट आएगी.’

असंतोष के मामले में डॉ. आंबेडकर का आकलन गलत निकला

सवाल उठता है कि जिस संविधान से दलितों को इतना कम मिला, इस संविधान का जश्न वे क्यों मना रहे हैं? ऐसी स्थितियों में दुनिया का कोई भी और समूह शायद विद्रोह कर देता. या फिर कम से कम शिकायती तेवर तो उसके जरूर होते. यह समाजशास्त्रीय और व्यवहार विज्ञान के शोध का विषय होना चाहिए कि भारत में दलित पर्याप्त नाराज क्यों नहीं हैं.

बाबा साहब का अनुमान था कि आर्थिक और सामाजिक असमानता बनी रही तो भारत के वंचित विद्रोह कर देंगे. ये बात उन्होंने 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा के अपने आखिरी भाषण में कही भी थी. उन्होंने कहा था कि 26 जनवरी, 1950 को भारत अंतर्विरोधों के दौर में प्रवेश करेगा. राजनीतिक जीवन में समानता होगी, लेकिन आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी बनी हुई है. उन्होंने संविधान सभा को चेतावनी दी थी कि अगर इन असमानताओं को समाप्त न किया गया, तो वंचित लोगों का गुस्सा संविधान द्वारा निर्मित लोकतांत्रिक ढांचे को नष्ट कर देगा.

अपने दौर के बेहतरीन समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री और कानूनविद डॉ. आंबेडकर इस बारे में सही अनुमान लगाने में चूक गए कि भारत में असमानता के खिलाफ वंचितों का विद्रोह होगा या नहीं.


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ऐसा क्यों हुआ होगा? मेरा अनुमान है कि भारतीय संविधान में आरक्षण का जो प्रावधान है, जिससे राजनीतिक संस्थाओं और शिक्षा तथा नौकरियों में वंचितों को कुछ हिस्सेदारी मिल जाती है, उसकी वजह से वंचितों का लोकतंत्र पर भरोसा कायम है. भारत में दलितों का जो मध्य वर्ग बना है, वह इसी रास्ते से बना है. संविधान से उसे अभी भी उम्मीद है तो इसकी वजह आरक्षण के प्रावधान भी हैं.

इसके अलावा प्रतीकात्मक रूप से राष्ट्रपति या सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस जैसे उच्च पदों पर कभी-कभार किसी दलित पृष्ठभूमि के व्यक्ति के बैठने से भी असंतोष का शमन होता है. इनसे ऐसा भाव आता है कि गणराज्य के संचालन में दलितों की भी भूमिका है.

भारत का लोकतंत्र संभवत: इस वजह से टिकाऊ साबित हुआ क्योंकि जिन तबकों को सबसे असंतुष्ट होना था, वे संविधान की ओर उम्मीद से देख रहे हैं.

दूसरी तरफ जिन लोगों को लोकतंत्र में पिछले सत्तर साल में सबसे ज्यादा मिला, वे कभी संविधान की समीक्षा करने की बात करते हैं तो कभी आरक्षण के खिलाफ आंदोलन करते हैं तो कभी माइनॉरिटी को संविधान से मिले अधिकारों को खत्म करने की बात करते हैं.

ये भारतीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा अंतर्विरोध है कि जिन्हें लोकतंत्र और संविधान का सबसे ज्यादा फायदा मिला वे संविधान की कद्र नहीं करते और जो सबसे वंचित रह गया, वह संविधान दिवस का पर्व मना रहा है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और लेख उनके निजी विचार हैं)

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