scorecardresearch
Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतक्या 2021 की जनगणना में भी नहीं गिनी जाएगी जातियां

क्या 2021 की जनगणना में भी नहीं गिनी जाएगी जातियां

सरकार गाय, खच्चर, और सूअरों तक की संख्या जानती है, लेकिन ओबीसी और सवर्णों की नहीं, जबकि भारत में जातियों के आधार पर आरक्षण दिया जाता है और नीतियां भी बनाई जाती हैं.

Text Size:

अगर आप सरकार से पूछेंगे कि देश में कितनी गाय या भैंस या घोड़े, गधे या ऊंट हैं, तो सरकार आपको इनकी संख्या बता सकती है. इनकी उम्र, नस्ल और लिंग की भी जानकारी सरकार के पास है. भारत में पालतू पशुओं की गणना 1919 से लगातार हो रही है. 20वीं पशु गणना के आंकड़े पिछले दिनों सरकार ने जारी किए और बताया कि गायों की संख्या कितनी बढ़ गई है और किस तरह कुछ पशुओं की संख्या घट रही है.

पिछली पशु गणना के आंकड़ों के साथ ताजा आंकड़ों की तुलना से मवेशी जगत के बारे में गहरी जानकारियां मिलती हैं. इन आंकड़ों के आधार पर केंद्र और राज्य सरकारें और उनके पशुपालन मंत्रालय और विभाग नीतियां बनाते हैं. कई पुरानी नीतियों में संशोधन का आधार ये आंकड़े ही होते हैं.

पशु गणना एक भारी-भरकम कवायद है. मिसाल के लिए 19वीं पशु गणना के लिए सरकार द्वारा नियुक्त 1.70 लाख कर्मचारी लगभग 7.20 लाख गांवों में घर-घर गए और मवेशियों के आंकड़े इकट्ठा किए. इस काम में बड़ी संख्या में सुपरवाइजर भी निगरानी करने के लिए लगाए गए थे. पशु गणना में हर तरह के पालतू पशुओं जैसे- गाय-बैल-सांड, भैंस, भेड़, बकरी, घोड़ा, गधा, खच्चर, ऊंट, याक आदि की गिनती की जाती है और उनके बारे में तमाम तरह की जानकारियां जुटाई जाती हैं.

इससे आप समझ सकते हैं कि सरकार आंकड़ों को कितनी अहमियत देती है क्योंकि नीतियों का आधार आंकड़े ही होते हैं.

जनगणना में जाति संबंधी जानकारियां नहीं

लेकिन बात जब आदमियों की गिनती की आती है, तो सरकार आंकड़ों के महत्व को भूल जाती है. भारत में अगली जनगणना 2021 में होनी है. लेकिन अभी तक तय नहीं है कि सरकार इस जनगणना में भारतीय समाज के बारे में तमाम जानकारियां इकट्ठा करेगी या नहीं और जातियों की गणना होगी या नहीं.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

ऐसा भी नहीं है कि भारत में जाति जनगणना नहीं हुई है. भारत में जनगणना का इतिहास पुराना है. यहां 1878 से जनगणना हो रही है. 1881 के बाद से हर दस पर होने वाली जनगणना 1941 के अपवाद को छोड़कर हर बार हुई है. 1941 में जनगणना न होने का कारण दूसरा विश्व युद्ध था. 1931 तक हर जनगणना में जातियां भी गिनी गई थीं. लेकिन आजादी के बाद जातियों की गिनती बंद कर दी गई.


यह भी पढ़ें : मॉब लिंचिंग में दलित-पिछड़े क्यों शामिल होते हैं


इसलिए ऊंट और बैल की संख्या बता पाने में सक्षम सरकार आज ये नहीं बता सकती कि देश में कितने ओबीसी हैं या देश में कितने ब्राह्मण या ठाकुर या यादव या कुम्हार आदि जाति के लोग हैं, न ही इन सामाजिक समूहों की आर्थिक स्थिति, शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय, उनके जमीन के मालिकाने, उनके परिवारों के आकार आदि के बारे में ही कोई जानकारी सरकार के पास है.

2021 की जनगणना में क्या होगा?

भारत में अगली जनगणना की तैयारियां चल रही हैं. इस बार की जनगणना में डिजिटल तरीकों का भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होना है. क्या इस बार की जनगणना में जातियों की गिनती होगी? एनडीए-1 के दौरान केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके देश को बताया था कि 2021 की जनगणना में ओबीसी की गिनती की जाएगी. हालांकि उन्होंने सिर्फ ओबीसी की कैटेगरी को जनगणना में जोड़े जाने की बात की थी और ये स्पष्ट नहीं किया था कि तमाम जातियों की गणना होगी या नहीं.

लेकिन 2019 के चुनाव में जीत के बाद बनी सरकार तो इस बारे में कुछ बोल ही नहीं रही है. एनडीए के सहयोगी दल जेडीयू के सांसद कौशलेंद्र कुमार ने जब लोकसभा में एक सवाल पूछकर ये जानना चाहा कि सरकार अगली जनगणना में विधिवत तरीके से जाति जनगणना कराएगी या नहीं, तो सरकार ने इसका कोई सीधा जवाब नहीं दिया और कह दिया कि ‘जनगणना में एससी और एसटी की गिनती की जाती है.’ जाहिर है कि सरकार इस बारे में स्पष्ट तौर पर कुछ भी बताना नहीं चाहती. कई मीडिया रिपोर्ट में ऐसा कहा जा रहा है कि 2021 की जनगणना के लिए जो फॉर्म बने हैं, उनमें जातियों का कॉलम नहीं है.

भारत में क्यों होनी चाहिए जाति जनगणना?

1.जनगणना का उद्देश्य किसी देश के लोगों के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारियां इकट्ठा करना होता है. संयुक्त राष्ट्र ने जनगणना के बारे में जो मॉडल दस्तावेज जारी किया है, उसमें भी उन कैटेगरी का जिक्र है, जिनकी जानकारियां इकट्ठी की जानी चाहिए. इसमें लिंग, भाषा, धर्म, नस्ल, एथिनिसिटी, वैवाहिक स्थिति, आर्थिक स्थिति, आप्रवास, शिक्षा आदि शामिल है. भारत के जनगणना कमिश्नर की वेबसाइट भी जनगणना के उद्देश्यों के बारे में बताती है कि – ‘इसका उद्देश्य समाज की तमाम आवश्यक जानकारियां जैसे आबादी, आर्थिक गतिविधियां, सामाजिक और सांस्कृतिक पहलू, आप्रवास आदि के बारे में विश्वसनीय जानकारियां हासिल करना है.’ जाहिर है कि भारत में सामाजिक स्थितियों को समझने के लिए जाति एक महत्वपूर्ण आधार है.

2.भारत में जातियों पर आधारित सैकड़ों सरकारी कार्यक्रम और नीतियां हैं. मिसाल के तौर पर केंद्र और राज्य सरकारों ओबीसी और सवर्णों को आरक्षण देती है, अलग जातियों और उनसे जुड़े पेशों के लिए कार्यक्रम चलाती है, ओबीसी का तो डेवलपमेंट फंड भी बनाया गया है. लेकिन ये सब कुछ बगैर किसी आंकड़ों के हो रहा है. इसलिए आरक्षण का सवाल भारत में हमेशा विवादों को जन्म देता है क्योंकि ये नीति तथ्यों और आंकड़ों पर आधारित नहीं है. संविधान का अनुच्छेद 16-4 कहता है कि जिन पिछड़े वर्गों का सरकारी नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, सरकार उन्हें आरक्षण देगी. लेकिन सवाल उठता है कि उन जातियों के आंकड़े जाने बिना कैसे तय होगा कि उनका प्रतिनिधित्व पर्याप्त है या नहीं?

3. दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग यानी मंडल कमीशन को जब पिछड़े वर्गों के बारे में रिपोर्ट (1980) देने को कहा गया, तो उसे अपना काम करने में बहुत दिक्कतें आईं. उसे उन समूहों की स्थिति का अध्ययन करना था, जिनके बारे में आकड़े आखिरी बार 1931 में जुटाए गए थे. लगभग 50 साल पुराने आंकड़ों और कुछ सर्वेक्षण आदि के आधार पर अपनी रिपोर्ट देने के बाद मंडल कमीशन ने सिफारिश की कि अगली जो भी जनगणना होगी, उसमें जातियों के आंकड़े भी जुटाए जाएं. मंडल कमीशन की रिपोर्ट के 40 साल बाद भी हालात जस के तस ही हैं. हमारे पास जाति आधारित नीतियां हैं, लेकिन जातियों के फैक्ट नहीं हैं.

4.आर्थिक संसाधनों के आवंटन में दिक्कत- केंद्र सरकार ओबीसी विकास के लिए राज्य सरकारों को फंड देती है. लेकिन किस राज्य को कितना फंड दिया जाए, इसका कोई आधार अब तक नहीं बन पाया है, क्योंकि किस राज्य में कितने ओबीसी हैं, यह सरकार को पता ही नहीं है. इसलिए राज्यों की कुल जनसंख्या के आधार पर ये फंड जारी होता है.


यह भी पढ़ें : इंटरव्यू में जातीय भेदभाव के ख़िलाफ़ ऐतिहासिक फैसला


5. चूंकि सरकार के पास जातियों की संख्या और उनकी आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति का आंकड़ा नहीं है, इसलिए जब कोई जाति आरक्षण मांगती है, या अपनी जाति को ओबीसी या एससी लिस्ट में शामिल करने के लिए आंदोलन करती है तो सरकार के पास इस मांग का जवाब देने के लिए कोई आंकड़ा या तथ्य नहीं होता. इसलिए ऐसी हर मांग का समाधान राजनीतिक तरीके से होता है. मांग करने वाली जातियां भी इसे समझती हैं और इसलिए ये आंदोलन अक्सर बेहद उग्र और हिंसक होते हैं, ताकि सरकार को झुकाया जा सके.

6.चूंकि जातियों के आंकड़े नहीं हैं, इसलिए मंडल कमीशन लागू होने के बाद बना राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग आज तक किसी जाति को ओबीसी की लिस्ट से बाहर नहीं कर पाया है क्योंकि किसी जाति के बारे में उसे ये नहीं मालूम कि उसकी हैसियत अब बेहतर हो गई है.

7. जाति जनगणना के आंकड़े न होने के कारण किसी को भी नहीं मालूम कि कौन सी जातियों या जाति समूह को आर्थिक और प्रशासनिक गतिविधियों में ज्यादा प्रतिनिधित्व मिला हुआ और किसे कम. इस वजह से पश्चिमी देशों की तरह भारत में डायवर्सिटी यानी विविधता की नीतियां लागू नहीं हो सकती हैं.

इसके अलावा गौर करने की बात ये है कि भारत में जातियों की गिनती कभी पूरी तरह बंद नहीं हुई हैं. आजादी के बाद, जब ओबीसी और सवर्णों की गिनती बंद हो गई, तब भी अनुसूचित जातियों और जनजातियों की गिनती जारी रही. अब सवाल सिर्फ इतना है कि बाकी जातियों की गिनती कब होगी? 2021 इसके लिए बेहतरीन मौका है क्योंकि 2010 में ही लोकसभा में सभी दलों के बीच इस बात पर सहमति बन चुकी है कि जाति जनगणना कराई जाए.

भारत में 2011 के बाद सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना संपन्न भी हो चुकी है. समस्या सिर्फ इतनी है कि 4,893 करोड़ रुपए खर्च करके कराई गई इस जनगणना के जाति संबंधी आंकड़े जारी नहीं किए गए.

सवाल उठता है कि क्या सरकार 2021 में जाति को जनगणना में शामिल करेगी?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह लेख उनका निजी विचार है.)

share & View comments