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Friday, 20 December, 2024
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नरेंद्र मोदी को रोकने का जिम्मा दलितों पर ही क्यों?

बीजेपी को सबसे ज्यादा समर्थन तो सवर्णों का मिला है. अगर बीजेपी को वोट देना किसी की नजर में कोई गलत बात है तो ये काम तो सबसे ज्यादा सवर्णों ने किया है.

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लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से ही तरह तरह के सर्वे प्रकाशित हो रहे हैं कि किस जाति ने किसे वोट दिया. इस क्रम में ये भी बताया जा रहा है कि लगभग एक तिहाई दलितों ने इस बार बीजेपी को वोट दिए. पिछले लोकसभा चुनाव और इस लोकसभा चुनाव के बीच दलितों के बीच बीजेपी के लिए समर्थन बढ़ गया है. चूंकि इस तरह के किसी सर्वे की विश्वसनीयता नहीं होती क्योंकि उसकी शोध विधि के बारे में बहुत कम बताया जाता है, और हम ये जानते हैं कि मतदाता अपनी जाति और किसे वोट दिया जैसे बातें आसानी से किसी को नहीं बताते. लेकिन चुनावी विश्लेषणों में इन आंकड़ों का खूब इस्तेमाल होता है.

बहरहाल, चूंकि इन पंक्तियों का लेखक दलित है, इसलिए दोस्तों ने उससे फेसबुक पर पूछ ही लिया कि- ‘दलितों ने हिंदुत्ववादी ताकतों के लिए वोट क्यों दिया?’ एक लिबरल मित्र ने तंज भरे लहजे में मुझसे कहा, ‘इस बार तो आपके दलितों ने संघियों को भर भर के वोट दिए.’


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इस तरह के संवाद से उभरे तीन महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए-

पहला सवाल, क्यों कुछ चुनिंदा लिबरल्स दलितों को अपनी इच्छा से लिए गए निर्णय के लिए दोषी सिद्ध करार दे रहे हैं. दलितों को अगर किसी पार्टी को वोट देना है तो दिया. ऐसा ही सवाल सवर्णों, ब्राह्मणों-ठाकुरों से क्यों नहीं पूछा जाता कि उन्होंने बीजेपी को क्यों वोट दिया. वैसे भी जाति और मतदान के सर्वे में बीजेपी को सबसे ज्यादा समर्थन तो सवर्णों का मिला है. अगर बीजेपी को वोट देना किसी की नजर में कोई गलत बात है तो ये काम तो सबसे ज्यादा सवर्णों ने किया है.

दूसरा सवाल, क्या दलितों ने हिंदूवादी ताकतों के समर्थन में सचमुच वोट डाला है?

तीसरा और सबसे जरूरी सवाल, दलितों ने मोदी के लिए वोट क्यों किया?

चलिए पहले पॉइंट पर आते हैं-

भारत के लिबरल्स की नज़र में मोदी के रथ को रोकने के लिए या यूं कह दीजिये की मोदी की चमचमाती बीएमडब्लू गाड़ी को सात रेस कोर्स में घुसने से रोकने का एकमात्र जिम्मा दलितों के पास ही है. कई लोग उम्मीद लगाए बैठे थे कि बेशक उनकी अपनी जाति तो बीजेपी के साथ जा रही है, लेकिन दलित किसी भी कीमत पर बीजेपी के साथ नहीं जाएंगे.

दलितों के बारे में स्टीरियोटाइप यानी पूर्व निर्मित धारणाएं

मैं राजस्थान में एक दलित परिवार (मेघवाल समुदाय) से आता हूं. साउथ मुंबई के मेरे एक इलीट सामाजिक कार्यकर्ता मित्र को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि हम गोमांस नहीं खाते हैं. उन्हें थोड़ा और अचरज में डालने के लिए मैंने यह भी बताया कि हमारे पास छत पर मीट पकाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि मेरी मां, एक धार्मिक महिला होने के नाते, रसोई में मांस पकाने नहीं देतीं. यह राजस्थान के कई दलित घरों की कहानी भी है.

खासकर उत्तरी भारत के कई दलित घरों में आम्बेडकर और हिंदू देवताओं के चित्र एक साथ दीवार पर टंगे दिख सकते हैं. जितने घरों में आम्बेडकर की फोटो पहुंची है, उससे कई गुना ज्यादा दलित घरों में हिंदू देवी-देवताओं की तस्वीरें होती हैं. दलित समुदाय ने अभी तक शोषण के स्रोत, हिन्दूवादी तौर-तरीकों को क्यों नहीं त्याग दिया, यह एक अलग शोध का विषय है लेकिन जो हकीकत है, सो है.

एक बार ट्रेन में यात्रा के दौरान एक बहुजन कार्यकर्ता ने बड़ी मजेदार टिप्पणी की. वो कहते हैं –‘बहुजन इन दिनों ब्राह्मणों से भी अधिक हिंदू हो रहे हैं. 1947 के बाद, ब्राह्मणों ने धार्मिक पुस्तकों की सीमाओं को बहुत जल्दी भांप लिया था और सारा ध्यान ‘संविधान’ नामक एक नई शक्तिशाली पुस्तक को समझने के लिए लगा दिया. जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने सरकार, न्यायपालिका, और मीडिया में शीर्ष पदों पर कब्जा जमा लिया. दूसरी तरफ दलित और ओबीसी जिन्हें सदियों से धर्म और धार्मिक अनुष्ठान से वंचित रखा, उन्हें जब इन किताबों तक पहुंचने का मौका मिला, तो धार्मिक कर्मकांडो में उनकी रुचि और जिज्ञासा ज़बर्दस्त उफान मारने लगी.’

इस बारे में शोध होना चाहिए क्या ऐसा सचमुच है.


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दलित इकहरी पहचान नहीं, इनमें कई स्तर हैं!

यह भी समझाना पड़ेगा की दलित एक समरूप समाज नहीं है. यहां बहुत सी उप-जातियां हैं और उनके अलग-अलग वोटिंग पैटर्न हो सकते हैं. कई उप-जातियां अपनी राजनीतिक आकांक्षा के बारे में कम मुखर हैं और अब तक कोई बड़ा नेता उनके समुदाय से नहीं निकला है. शायद किसी प्रभावशाली सामाजिक नेता की कमी के कारण, ऐसी जातियों ने मोदी को अपना नेता चुना है.

जैसा कि बद्री नारायण तिवारी इकोनॉमिक टाइम्स में लिखते हैं ‘आरएसएस भी सबसे अलग-थलग पड़ी जातियों में काम कर रहा है. वह बहुत से सम्मेलनों का आयोजन करता है, जिससे एक नयी हिन्दू पहचान स्थापित करने की कोशिश की जाती है. इन समुदायों के इतिहास और नायकों को हिंदुत्व के भीतर शामिल करने का प्रयास किया जाता है. आरएसएस इन दलित समूहों को ‘राष्ट्र रक्षक’ और ‘धर्म रक्षक’ के रूप में पेश करता है.’

जाहिर है कि इन सबका दलितों के मतदान व्यवहार पर फर्क पड़ा होगा.

क्या दलितों को नरेंद्र मोदी से शिकायत है?

अरुंधति रॉय ने डेमोक्रेसी लाइव के साथ अपने हालिया साक्षात्कार में कहा है कि ‘बीजेपी राहुल गांधी से नहीं, बल्कि बहुत सी दलित जातियों के एक साथ मिलने से हारेगी.’ हो सकता है कि मोदी की जीत से उन्हें निराशा हुई हो और वे इस चुनाव नतीजों के लिए दलितों को जिम्मेदार मानती हों.

दलित देश की 16.6 फीसदी आबादी है. इस वजह से लोकसभा की 84 सीटें उनके लिए आरक्षित हैं. उत्तर प्रदेश में 17 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. 2014 में ये सभी बीजेपी ने जीती थीं. इस बार भी वह 15 सीटें जीत गई है. हालांकि दलित सीटों पर गैर दलित भी वोट डालते हैं, इसलिए इससे ये निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि रिजर्व सीटें जीतने वाले दलों को दलित वोट ज्यादा मिले. बल्कि रिजर्व सीटों पर आम तौर पर दलित विरोधी मानी जाने वाली पार्टियां हमेशा बेहतर परफ़ॉर्म करती हैं.

क्या हिंदुत्व प्रोजेक्ट के लिए दलितों ने किया वोट?

जैसा कि कुछ लिबरल मित्र कह रहे हैं कि क्या दलितों ने अल्पसंख्यकों के खिलाफ रची गयी हिंदुत्व परियोजना के लिए वोट दिया? जमीनी हकीकत एक अलग तस्वीर पेश करती है. देश के सबसे गरीब लोगों की पहली महत्वाकांक्षा बुनियादी सुविधाएं प्राप्त करना है. अर्थव्यवस्था और नौकरियों पर मोदी का बुरा रिकॉर्ड अच्छी तरह से दर्ज है. नोटबंदी का रोजगार पर कितना बुरा असर पड़ा, इसे दलितों से बेहतर कौन जान सकता है.

पर हमें कुछ ऐसे योजनाओ पर भी ध्यान देना होगा जिनका लक्ष्य गरीबों को फायदा पहुंचाना या गरीबों तक पहुंचना था. इनमें से सबसे कम चर्चा हुई है आयुष्मान भारत योजना की. यह दुनिया की सबसे बड़ी सरकारी स्वास्थ्य सेवा योजना है, जिसके मुताबिक, सबसे गरीब 50 करोड़ भारतीयों के लिए प्रति वर्ष 5 लाख तक का अस्पताल खर्च भारत सरकार उठाएगी. इन गरीबो में काफी दलित हैं. गरीब किसानों के खातों में सीधे 6,000 रुपए डालने की योजना की भी गांवों में काफी चर्चा रही.

सरकार ने स्टैंड अप इंडिया नाम से एक योजना शुरू की है. योजना के मूल विचार के अनुसार,1.25 लाख बैंक शाखाओं में से हर ब्रांच हर साल कम से कम एक एससी-एसटी उद्यमी को 10 लाख रु से 1 करोड़ रु के बीच लोन देगा. हालांकि इस योजना का लाभ बहुत कम लोगों तक पहुंचा है, लेकिन इसने उम्मीद तो जगाई ही है. इसी तरह उज्ज्वला योजना से भी गरीबों के घरों में गैस से खाना पकना शुरू हुआ है. प्रधानमंत्री आवास योजना और मुद्रा ऋण का लाभ भी गरीबों तक पहुंचा है, जिनमें से कई दलित भी हैं.

अब ये योजनाएं कितनी सफल या विफल रही हैं, इसका पता तो आंकड़ों के प्रकाशन और उनकी जांच के बाद ही पता चलेगा. लेकिन मोदी कम से कम यह मैसेज पहुंचाने में कामयाब हो गए कि सरकार देश के गरीबों के लिए कुछ कदम उठा रही है. वे इस बार परफॉर्मेंस नहीं, प्रॉमिस बेच रहे थे. इसमें वे सफल रहे. ये काम राजनीतिक संवाद की उनकी शैली के कारण हुआ है.


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हालांकि उनके 5 साल दलितों के आंदोलनों के लिए भी याद रखे जाएंगे, एससी-एसटी एक्ट और 13 पॉइंट रिजर्वेशन रोस्टर के सवाल पर भारत बंद तक आयोजित किए गए. लेकिन सरकार दोनों मांगों पर पीछे हटी और दलितों की मांगें मान ली गईं. इस मायने में मोदी सरकार दलितों की मांगों को लेकर संवेदनशील दिखी. वहीं दलितों के वोटों की दावेदारी करने वाले दल इन आंदोलनों से अपनी दूरी बना कर चले. इन आंदोलनों का आह्वान किसी दल ने नहीं किया था. न ही इस आंदोलन में गिरफ्तार किए गए दलितों को राहत देने के लिए ये दल आगे आए. समाज के उभरते बुद्धिजीवियों के साथ किसी दल ने अपना संबंध नहीं बनाया.

शायद, अंत में, लोग बहुत अच्छे से सुनाई गई उज्ज्वल भविष्य की एक आरामदायक कहानी सुनना पसंद करते हैं. मोदी ने ही उन्हें ऐसी एक कहानी सुनाई.

(लेखक ने जेएनयू से आर्ट एंड एस्थैटिक्स की पढ़ाई की है. फिल्मकार हैं. इनकी किताब लव इन द टाइम ऑफ पोकेमॉन अमेजन पर बेस्टसेलर है)

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