मतदान का पहला चरण लगभग दो सप्ताह बाद ही शुरू होने वाला है, ऐसे में आइए ज़रा देखें कि कांग्रेस चुनावी जंग के लिए कितनी तैयार है? इसके जनरलों और पैदल सैनिकों में जोश कितना है? इसके जनरल कौन-कौन हैं? हमें मालूम है कि वह कुछ समय से यह कहती आ रही है कि मोदी सरकार भ्रष्ट, निकम्मी, समाज को बांटने वाली, हमारे इतिहास की सबसे खराब सरकार है. लेकिन वह यह नहीं बता रही कि इस सरकार को ठिकाने लगाने के लिए वह क्या करने वाली है; अगले चुनाव के हरेक मतदाता के लिए जो प्रमुख मसले हैं वो— बेरोज़गारी और अर्थव्यवस्था, राष्ट्रवाद और सामाजिक समरसता है— इनके बारे में कांग्रेस के विचार क्या हैं.
इस मुकाम पर मैं आपके सामने एक और सवाल रखना चाहता हूं. इसे मैं जानबूझकर थोड़ा घुमाकर रख रहा हूं— आपके विचार से कांग्रेस आज क्या है? क्या वह एक राजनीतिक दल है, जो अपने जीवन-मरण की लड़ाई में उतरने जा रही है? या वह एक एनजीओ है, जो सिर्फ अपना फर्ज़ निभा रही है और यह उम्मीद कर रही है कि इतने भर से दुनिया बदल जाएगी?
इन सवालों से कांग्रेस-समर्थक नाराज़ हो सकते हैं मगर इस नश्तर को घाव के अंदर घुमाना ज़रूरी है. पिछले पांच वर्षों में आपका प्रतिद्वंद्वी आपको धूल चाटने पर मजबूर करता रहा है और अब आख़िरी वार करने के लिए वह अपनी कुल्हाड़ी की धार तेज़ कर रहा है. अगर इस बार फिर कांग्रेस की हालत खास्ता हुई तो इसके ‘मध्य’ से इसके कई हताश और पस्त सदस्य बाहर का रास्ता पकड़ लेंगे. यह भी काफी संभव है कि कर्नाटक और मध्य प्रदेश में इसकी नई-नई बनी सरकारें गिरा दी जाएंगी. राजस्थान में भी इसकी सरकार का जीवन भाग्य भरोसे ही रह जाएगा.
तब कांग्रेस का क्या बचा रहेगा? संभावना यही है कि तब भी यह उन्हीं पुराने या नए स्वयंभू चाणक्यों, मेकियावलियों और दिग्गज बुद्धिजीवियों की जमात के रूप में बनी रहेगी, जिन सबकी एक ही विशेषता होगी— न कभी चुनाव लड़े और न कभी चुनाव जीते या उसे भी गंवा दिया जो कभी उनके जिम्मे सौंपा गया.
किसी भी राजनीतिक दल का एक ही लक्ष्य और नारा होता है— ‘चुनाव जीतो’. इसके लिए कड़ी मेहनत और गहरी निष्ठा की ज़रूरत होती है. सफल रहे तो खूब इनाम पाओ, विफल रहे तो भारी कीमत चुकाओ. संक्षेप में, सारा दारोमदार जवाबदेही पर है. अब आप बताएं कि आपके मुताबिक, क्या कांग्रेस में इधर ऐसा कुछ हो रहा है? इस सवाल का जवाब अगर ना में है, तो मैं आपको बताऊंगा कि यह किसी एनजीओ के जैसी क्यों दिख रही है. एनजीओ भी कड़ी मेहनत करते हैं. लेकिन उनके लक्ष्य, मकसद मौसम या ‘उनके बाज़ार’ के मूड के हिसाब से बदलते रहते हैं. उनकी होड़ मूलतः सरकार से होती है. तुलना में वे हमेशा सदाचारी और कुशल दिखते हैं और उनकी जवाबदेही उन्हें दान देने वालों या अच्छे लोगों की अंतरात्मा के प्रति होती है. आम तौर पर उनका रुझान व्यवस्था विरोध की ओर होता है.
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इतने सालों में कांग्रेस ज़्यादा सामंतवादी हो गई है और योग्यता के प्रति उसका आग्रह घटता गया है. इसमें जुझारू, चुनावी प्रतिभा वाले नए नेता बहुत कम उभरे हैं. गांधी परिवार सहित कुछ पुराने वंशज अपनी सिकुड़ती जागीर शायाद ही बचा पाए हैं. वे अपने क्षेत्र में अपनी पार्टी का विस्तार नहीं कर सकते, न ही वे नई प्रतिभाओं के लिए जगह खाली कर सकते हैं. इसके युवा, स्मार्ट वाकपटु प्रवक्ता महान हैं मगर वे अपनी ख्याति और दौलत को खतरे में न डालने और धूप से अपने चेहरे को बचाने के लिए चुनाव नहीं लड़ते. आप देशभर के 50 आला कांग्रेसी नेताओं की सूची बना लीजिए, आपको यह विरोधाभास स्पष्ट हो जाएगा.
इसके विपरीत, जैसा कि दरबारों में या जवाबदेही मुक्त एनजीओ या परिवार नियंत्रित व्यवसाय में होता है, चापलूस तत्व तमाम संकटों के बीच भी बचे रहते हैं. आपको शायद मोहन प्रकाश नाम के शख्स की याद भी न हो— एक पुराना, सिफर समाजवादी जिसे राहुल गांधी ने पसंद कर लिया था, जिसे महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश समेत एक के बाद एक बड़े राज्यों का प्रभारी बना दिया गया था. वह राहुल को कांग्रेस का जेपी बताकर मशहूर और चहेता बन गया था. आप उसे एक बात के लिए दाद दे सकते हैं. उसने निरंतरता बनाए रखी— बेशक नाकामियों की. कांग्रेसियों से उसके बारे में पूछिए, तो वे आमिर खान की फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ का यह गाना दोहराने लगेंगे– ‘कहां से आया था वो, कहां गया उसे ढूंढ़ो’.
ऐसी हस्ती अकेले वही एक नहीं है. सीपी जोशी भी राहुल के पुराने चहेतों में से एक हैं, जिन्होंने जिस चीज़ को छुआ उसे धूल बना दिया— उत्तर-पूर्व इसकी ताज़ा मिसाल है. क्या आपको लगता है कि उन्हें इसके लिए जवाबदेह बनाया गया? कतई नहीं, बशर्ते आपको यह न लगता हो कि राजस्थान विधानसभा का अध्यक्ष बनाया जाना एक सज़ा है.
मेरे सहकर्मी, दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक डीके सिंह ने मुझे राहुल की तथाकथित ‘ए’ टीम का ब्यौरा दिया, जो एक सिरे से पराजितों की परेड जैसी दिखती है. राज बब्बर उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष बने हुए हैं. हालांकि प्रदेश में पार्टी का नामो-निशान शायद ही नज़र आता है. राहुल के युवा दलित स्टार माने जाने वाले अशोक तंवर हरियाणा कांग्रेस के अध्यक्ष बने हुए हैं, हालांकि न केवल वे खुद लोकसभा चुनाव हारे, बल्कि विधानसभा में भी पार्टी का सफाया हो गया. हरियाणा में एक और प्रमुख वंशज रणदीप सिंह सुरजेवाला पार्टी के मीडिया प्रमुख बने हुए हैं, हालांकि हाल में जींद के उपचुनाव में वे बमुश्किल तीसरे नंबर पर रहे.
पार्टी के महासचिवों में अंबिका सोनी और मुकुल वासनिक चुके हुए नेता ही हैं, लेकिन सोनी जहां जम्मू-कश्मीर की प्रभारी बनी हुई हैं, वासनिक केरल एवं तमिलनाडु का जिम्मा संभाल रहे हैं. दीपक बावरिया का नाम आपने शायद ही सुना होगा, मगर वे मध्य प्रदेश के प्रभारी बने हुए हैं. उन्होंने कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा. यही हाल आनंद शर्मा (पार्टी के विदेश विभाग के प्रमुख) और जयराम रमेश (पार्टी के कोर ग्रुप के संयोजक) का भी है.
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कोर ग्रुप में भी एके एंटनी ने 2001 के बाद से चुनाव नहीं लड़ा है. केसी वेणुगोपाल निवर्तमान सांसद हैं और पार्टी के काम पर ध्यान देने के लिए इस बार शायद ही चुनाव लड़ें. ऐसे में आप सोचेंगे कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह इस बार गांधीनगर से चुनाव लड़ रहे हैं तो वे पार्टी के काम से हाथ खींच लेंगे.
वैसे, राहुल के सभी करीबी सलाहकार तेज़-तर्रार, काफी पढ़े-लिखे हैं— चाहे वे भरोसेमंद सहायक कनिष्क सिंह हों या मझे हुए ट्वीट राइटर निखिल अल्वा, पूर्व अफसरशाह राजू, आंकड़ा विशेषज्ञ प्रवीण चक्रवर्ती, मुख्य विचारक प्रशिक्षक सचिन राव, पूर्व बैंकर अलंकार सवाई हों या सोशल मीडिया हेड दिव्या स्पंदना हों. क्या आपने गौर किया है कि इन सबमें समानता क्या है? स्पंदना के सिवा कोई भी राजनीति का आदमी नहीं है. इन ‘नवरत्नों’ में सबसे पहचाना चेहरा कौन है? धुर वामपंथी ‘आइसा’ के नेता और जेएनयू में एक्टिविस्ट रहे संदीप सिंह, जो राहुल के भाषण लिखते हैं.
आप अगर पार्टी के महासचिवों, कोर ग्रुप और राहुल के प्रमुख सलाहकारों पर नज़र डालेंगे तो उनमें कम ही ऐसे मिलेंगे जो राजनीतिक दिमाग रखते हैं. इनमें सबसे तेज़, अहमद पटेल अब केंद्रीय हस्ती नहीं रह गए हैं. याद कीजिए कि वे पुराने तेवर और दमखम वाले एक ऐसे कांग्रेसी हैं, जिन्होंने अमित शाह को उनकी ही मांद में चुनौती देकर किस तरह चुनाव आयोग से रातोरात भिड़ कर राज्यसभा सीट जीत ली थी.
ऊपर हमने जिन तीन प्रमुख मुद्दों की चर्चा की है उनके बारे में कांग्रेस की सोच का अंदाज़ा मिल जाता तो ये तमाम बातें गौण हो सकती हैं. वह रोज़गार, अर्थव्यवस्था, किसानों की समस्याओं को लेकर मोदी पर बेशक हमले जारी रख सकती है. लेकिन हमें यह नहीं बताया जाता कि वह इन मसलों का किस तरह समाधान करेगी. वे जिन एक्टिविस्टों के प्रति सम्मोहित हैं, कांग्रेस को उन एक्टिविस्टों के विचारों-सिद्धांतों के सांचे में ढाल दें, उसे ‘आइसा’ स्टाइल के जुनून और वामपंथी लाल रंग में भी रंग दें तो वह भी कुछ लोगों को लुभाएगा. लेकिन रंगहीन, ‘जब हमें ज़िम्मेदारी मिलेगी तब हम बताएंगे’ वाला रवैया शुरू से ही बेमानी लगता है.
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राष्ट्रवाद, सुरक्षा, आतंकवाद से मुक़ाबला, विदेश नीति— इन तमाम मुद्दों पर कांग्रेस तब तक जड़ नज़र आती है जब तक कि कोई सैम पित्रोदा उसे झटका नहीं देता. कांग्रेस के किसी बंदे के मुंह से यह नहीं निकलता कि आप जिन मिराजों और सुखोइयों या हथियारों से लड़ रहे हैं उन्हें हमारी सरकारों ने ही खरीदा था. दूसरी ओर, वे राहुल से ‘मिराज तो एचएएल ने ही बनाए’ जैसे झूठ बुलवा रहे हैं जिन्हें आसानी से जांचा जा सकता है. उसने नहीं, डसाल्ट ने बनाया. एचएएल ने ना कभी मिराज बनाया और ना कभी बनाएगा. लेकिन आज हम जिन विमानों को उड़ा रहे हैं उन्हें बनाने का आदेश उनकी दादी ने 1982 में दिया था.
राजनीति कड़ी मेहनत की मांग करती है, केवल बॉस का रीट्वीट करना ही काफी नहीं. तीसरे, सामाजिक समरसता के मुद्दे पर प्रेम और सहिष्णुता की बातें करना बेशक शानदार है, लेकिन सबरीमाला, तीन तलाक, राम मंदिर पर आपका नज़रिया अगर भाजपा से मिलता-जुलता ही है तो फिर आप अलग किस तरह हैं?
हमारे स्तंभकार टीएन नायनन ने हाल में अपने स्तम्भ में यूपीए सरकार की उल्लेखनीय उपलब्धियों को गिनाया, जिनमें गरीबी उन्मूलन, कृषि में विकास, बुनियादी ढांचे पर निवेश और आधार आदि शामिल हैं. मैं इसमें अमेरिका के साथ परमाणु समझौते को भी जोडूंगा. नायनन ने सवाल उठाया कि कांग्रेस इनकी चर्चा क्यों नहीं करती और मोदी को ऐसे बड़बोले दावे करने क्यों दे रही है कि भारत जो कुछ अच्छा काम हुआ है वह इन पांच वर्षों में ही हुआ है? अब कांग्रेस के ऊपर है कि वह इन बातों पर विचार करे. अगर वह नहीं करती तो आप ही फैसला करें कि यह एक राजनीतिक दल है या एक एनजीओ है. आप जानते ही होंगे कि एनजीओ को भी व्यवस्था विरोधी माना जाता है, भले ही वह दशकों तक व्यवस्था का ही हिस्सा क्यों न रहा हो.
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