प्रशांत किशोर का अब क्या इरादा है? चुनाव रणनीतिकार किशोर ने मुंबई में शरद पवार से मुलाक़ात क्या की, राजनीतिक हलक़ों में खलबली मच गई. वैसे, किशोर पहले ही घोषणा कर चुके हैं कि वे ‘इस जगह’ (चुनाव प्रबंधन की) को खाली कर रहे’ हैं और यह काम ‘अब और’ नहीं करना चाहते हैं. जाहिर है कि पवार के निवास ‘सिल्वर ओक’ के साथ तीन घंटे की मुलाक़ात का चुनाव प्रबंधन से कोई लेना-देना नहीं था. वैसे भी महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव अभी तीन साल दूर है.
पवार की एनसीपी के नेताओं और किशोर ने इसे ‘निजी मुलाक़ात’, पश्चिम बंगाल चुनाव में भाजपा के खिलाफ लड़ाई में ममता बनर्जी का समर्थन करने के लिए धन्यवाद देने के वास्ते ‘सद्भावना’ दौरा कहा. एनसीपी नेता और पवार की बेटी सुप्रिया सुले भी इस मुलाक़ात में शामिल थीं और उन्होंने कहा, ‘इसमें बहुत ज्यादा राजनीति देखने की कोशिश मत कीजिए.’
लेकिन इन बातों पर विश्वास करने को कोई नेता तैयार नहीं है. ‘प्रधानमंत्री पद के योग्य’ नेता के रूप में व्यापक स्वीकृति रखने वाले पवार आज जब देश के सबसे विख्यात चुनाव रणनीतिकर से मिलते हैं तब इसमें बहुत ज्यादा राजनीति देखने की कोशिश की ही जाएगी. इन अटकलों को बिलकुल खारिज भी नहीं किया जा सकता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए एक महागठबंधन की तैयारी की जा सकती है. और यह सिर्फ इसलिए खारिज नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने बूते गद्दी से उतारने में सक्षम नहीं दिखती है इसलिए मोदी के आलोचकों के लिए पवार ही एक उम्मीद जगाते हैं. भला हो केंद्र सरकार के अहंकार और भाजपा के विस्तारवादी एजेंडा का, राज्यों की गैर-भाजपा सरकारें और क्षेत्रीय पार्टियां भगवा दल से लोहा लेने के लिए एक-दूसरे के करीब होती जा रही हैं. किशोर उन सबको एक छतरी के नीचे लाने की स्थिति में हैं.
चाहे बिहार में नीतीश कुमार हिन या आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी या तमिलनाडु में एम.के. स्टालिन, दिल्ली में अरविंद केजरीवाल हों या पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, इन सबको सत्ता दिलाने में किशोर का कम-ज्यादा हाथ रहा ही है. इन सबमें बंगाल का चुनाव सबसे कठिन था, क्योंकि भाजपा वहां आग उगल रही थी. भाजपा के खिलाफ पहला सफल महागठबंधन (2015 में बिहार में) बनाने में किशोर का ही हाथ था. अगर वे दोस्त से दुश्मन बने लालू यादव और नीतीश कुमार को फिर साथ ला सके थे तो राष्ट्रीय स्तर पर इसी तरह की छतरी बनाने के लिए उपयुक्त व्यक्ति साबित हो सकते हैं. लेकिन यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही कठिन है.
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गणित क्या है
हालांकि गांधी परिवार के साथ प्रशांत किशोर के संबंध अभी भी अच्छे हैं लेकिन 2024 के लिए भाजपा विरोधी सर्वदलीय ,जैसे मंच के लिए कांग्रेस, जो बिहार में महागठबंधन में शामिल थी, सबसे बड़ी अड़चन है. लेकिन इस अड़चन पर विचार करने से पहले यह देखें कि क्या इस तरह का गैर-कांग्रेस गठबंधन मोदी और अमित शाह के लिए चिंता का कारण बन सकता है.
फिलहाल 204 लोकसभा सीटों वाले 19 राज्य और पांच केंद्रशासित प्रदेश ऐसे हैं जहां कांग्रेस या तो सत्ता में है या मुख्य विपक्षी दल है. इनमें वह किसी विपक्षी गठबंधन को एक भी सीट नहीं देना चाहेगी. इनमें 25 सीटों वाले आठ उत्तर-पूर्वी राज्य शामिल हैं. 204 में से बाकी 179 सीटें मध्य प्रदेश (29), कर्नाटक (26), राजस्थान (25), केरल (20), पंजाब (13), छत्तीसगढ़ (11), हरियाणा (10), उत्तराखंड (5), हिमाचल प्रदेश (4), गोवा (2), दादरा एवं नगर हवेली और दमन व दिऊ (2), अंडमान-निकोबार (2), चंडीगढ़ (1), लद्दाख (1), और पुडुचेरी (1) में हैं. ये सीटें ऐसी भी हैं जिनमें किसी राष्ट्रीय दल से गठबंधन न करने वाले क्षेत्रीय दल या तो गायब हैं या महत्वहीन हैं, सिवा कर्नाटक में जेडी (एस) के.
इसलिए, कांग्रेस मुक्त महागठबंधन को 339 (543-204) सीटों पर ही केंद्रित होना होगा. इनमें से कुछ राज्यों- झारखंड, महाराष्ट्र, तमिलनाडु—में कांग्रेस की मौजूदगी कमजोर हो सकती है मगर सुविधा के लिए इन्हें छोड़ दें. वैसे, इन सीटों पर कांग्रेस क्षेत्रीय सहयोगियों की मेहरबानी पर है.
इस संख्या में से जम्मू-कश्मीर की पांच लोकसभा सीटों को निकाल दें. यहां क्षेत्रीय दल अनुच्छेद 370 को बहाल करने की मांग कर रहे हैं, इसलिए महागठबंधन के निर्माता उनसे दूरी ही बनाए रखना चाहेंगे. इस तरह महागठबंधन के लिए 334 सीटों पर ही दांव रह जाता है.
ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक केंद्र में काबिज शासक दल से जिस तरह टकराव मोल लेने से परहेज करते रहे हैं, बावजूद इसके कि यह दल राज्य में उनके लिए सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती बन गया है, उसके मद्देनजर इसकी 21 सीटों को भी छोड़ा जा सकता है.
यानी हम अंततः महागठबंधन की खातिर 313 (334-21) सीटें छोड़ सकते हैं. प्रशांत किशोर से आंध्र के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी की अच्छी दोस्ती है. लेकिन वे भाजपा विरोधी गठबंधन में शायद ही शामिल हो सकते हैं. केंद्रीय जांच एजेंसियां उनके खिलाफ मामलों की जांच कर रही हैं. लेकिन महागठबंधन के निर्माता चंद्रबाबू नायडु की लोकप्रियता में नाटकीय वृद्धि की हारी हुई उम्मीद कर सकते हैं.
बहरहाल, कांग्रेस मुक्त महागठबंधन 313 पर मजबूत दावा करे, यह कोई बुरी संभावना नहीं है. ये क्षेत्रीय दल अपने-अपने राज्य में चुनावी दृष्टि से जितने कमजोर हैं उसे देखते हुए कोई भी इस महागठबंधन को एक उपहास भी कह सकता है. लेकिन चुनाव से पहले 300 से ज्यादा सीटों पर असर डालने वाला कोई गठजोड़ सिद्धांततः मजबूत चुनौती तो माना जा सकता है, चाहे नतीजे जो भी हों.
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कांग्रेस का क्या होगा?
इतने बड़े विपक्षी गठबंधन के लिए आम तौर पर यही संदेह किया जाता है कि इसमें प्रधानमंत्री पद के कई दावेदार होते हैं. किशोर एक चेहरे को लेकर चुनाव के मैदान में उतरना पसंद करते हैं. यह तो याद ही होगा कि उत्तर प्रदेश विधानसभा के 2017 के चुनाव में वे प्रियंका गांधी वाड्रा को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर उतारने के लिए गांधी परिवार को राजी नहीं कर पाए थे. अब अगर वे यह महागठबंधन बनाने की कोशिश में जुटते हैं तो इसका एक चेहरा पेश करने की भी कोशिश जरूर करेंगे.
तब कांग्रेस का क्या होगा? लोकसभा चुनाव में पराजयों के बावजूद करीब 20 फीसदी वोट हासिल करने वाली कांग्रेस के बिना महागठबंधन के विचार को गांधी परिवार एक मज़ाक बता सकता है. फिर भी इस काल्पनिक परिदृश्य पर विचार कीजिए— चुनाव से पहले बना महागठबंधन उक्त 300 सीटों में से 150-175 सीटें जीत लेता है, और कांग्रेस भी 100 से ज्यादा सीटें हासिल कर लेती है. यह परिदृश्य विपक्षी खेमे के घोर आशावादियों को तो जरूर गुदगुदाएगा मगर खंडित जनादेश भाजपा नेताओं और उनके समर्थकों को तो नहीं पचेगा.
विपक्ष का महागठबंधन बनाने की कोशिशों पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया इस बात पर निर्भर होगी कि 2024 के महा मुक़ाबले से पहले के विधानसभा चुनावों के नतीजे कैसे आते हैं. फरवरी-मार्च 2022 से दिसंबर 2023 के बीच 16 विधानसभाओं के चुनाव होंगे. उत्तर प्रदेश और तेलंगाना को छोड़ बाकी सभी इन राज्यों कांग्रेस बड़ी खिलाड़ी होगी. खासकर नवंबर-दिसंबर 2023 में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावों में कांग्रेस अगर जीत हासिल करती है तो जोश वापस लौट सकता है. इसके साथ ही, भारतीय राजनीति में अपनी नंबर वाली हैसियत में लौटने की उसकी महत्वाकांक्षा भी जाग सकती है. इसका अर्थ होगा कि वह क्षेत्रीय दलों के साथ कोई समझौता नहीं करेगी. लेकिन इन चुनावों में उसे हार मिलती है तो वह व्यावहारिक रुख अपनाते हुए उक्त करीब 300 सीटों के मामले में क्षेत्रीय दलों को तरजीह दे सकती है. बेशक, यह सहमति इसमें निहित होगी. राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए बिना महागठबंधन का हिस्सा बनना कांग्रेस को शायद ही मंजूर होगा और पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को चेहरा बनाना कई क्षेत्रीय नेताओं को नापसंद है.
इस तरह के जटिल पेंचों को सुलझाने के लिए कई बैठकें करनी पड़ेंगी. ‘मोदी के मुक़ाबले कौन?’ यह सवाल ऐसा है जिससे महागठबंधन-वादी कतरा नहीं सकते. जब तक वे इस सवाल का जवाब नहीं खोज लेते तब तक महागठबंधन का विचार मोदी विरोधियों के लिए एक खामखयाली ही बना रहेगा.
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