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Monday, 6 May, 2024
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जितिन प्रसाद को भाजपा की और भाजपा को उनकी जरूरत, यह पाला बदलना तो तय ही था

भाजपा यूपी में एक विश्वसनीय ब्राह्मण चेहरा तलाश रही है और प्रसाद आगे बढ़ने का मौका चाहते हैं. यह एक-दूसरे के लिए ही बने होने जैसी स्थिति थी.

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नई दिल्ली : 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले ही जब जितिन प्रसाद ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल होने का मन बना लिया था, तो कांग्रेस के ही एक अन्य युवा नेता ने उन्हें यह कहते हुए रोका, ‘कांग्रेस कोई पार्टी नहीं है. यह हमारा परिवार है. कुछ भी हो, हम अपना परिवार नहीं छोड़ते हैं.’

जितिन प्रसाद, जिनके पिता और दादा भी कांग्रेसी थे, भी इस बात को मानकर रुक गए, जबकि उन्हें यह आभास था कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस नेता के रूप में उनके कैरिअर की संभावनाएं धूमिल ही हैं.

यह एक कड़ा फैसला था.

यूपी के एक युवा, महत्वाकांक्षी नेता के लिए कांग्रेस उपयुक्त पार्टी नहीं थी. लोकप्रिय ब्राह्मण नेता जितिन प्रसाद एक स्मार्ट राजनेता हैं और ऐसा नहीं है कि वह राज्य में कांग्रेस की स्थिति को देखते हुए अपनी संभावनाएं धूमिल होने का अंदाजा नहीं लगा पाए. भाजपा को भी जितिन प्रसाद की जरूरत थी.

अटल बिहारी वाजपेयी, मुरली मनोहर जोशी और कलराज मिश्र का जमाना बीत चुका है और यूपी की आबादी में 10 प्रतिशत से अधिक भागीदारी वाले ब्राह्मणों को एक नए चेहरे की दरकार है. भाजपा ने कुछ ब्राह्मण चेहरे आगे बढ़ाए, जिनमें बहुजन समाज पार्टी के पूर्व नेता ब्रजेश पाठक जैसे दूसरी पार्टी से आए नेता भी शामिल थे, लेकिन उनमें से कोई भी यूपी के ब्राह्मणों के बीच हासिल लोकप्रियता और कद के मामले में स्वर्गीय जितेंद्र प्रसाद के बेटे जितिन प्रसाद प्रसाद के आगे कहीं नहीं ठहरता है.

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भाजपा और जितिन प्रसाद के लिए यह एक-दूसरे के लिए ही बने होने जैसी स्थिति थी. लेकिन युवा नेता ने आखिरी समय अपने कदम पीछे खींच लिए. इसकी वजह कांग्रेस के साथ पुराने पारिवारिक संबंधों से ज्यादा यह थी कि उन पर अपने मित्र और पार्टी सहयोगी, जो राहुल गांधी के करीबी थे, की बातों का खासा असर हुआ था. हालांकि, उनके वह मित्र मार्च 2020 में खुद भाजपा में शामिल हो गए.


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कांग्रेस के रुख से नाखुश

जितिन प्रसाद कांग्रेस में तो बने रहे लेकिन उनके अंदर एक कटुता रही. उनके पिता ने 2000 में कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में सोनिया गांधी के खिलाफ खड़े होकर एक असफल कोशिश की. इस इतिहास ने जितिन प्रसाद का पीछा नहीं छोड़ा था, भले ही गांधी परिवार ने यह दर्शाने की पूरी कोशिश की कि उन्हें इस बात को लेकर कोई शिकवा-शिकायत नहीं है.

उन्हें 2008 में मनमोहन सिंह सरकार में राज्यमंत्री (एमओएस) बनाया गया था. हालांकि, पार्टी सहयोगियों के बीच कुशल राजनेता और प्रशासक की पहचान कायम करने वाले जितिन प्रसाद अगले छह वर्षों तक एमओएस ही बने रहे जबकि अन्य युवा कांग्रेस नेताओं को मंत्रालयों का स्वतंत्र प्रभार मिला और यहां तक कि वे कैबिनेट मंत्री भी बन गए.

उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों के संख्या बल के साथ-साथ अन्य समुदायों पर उनके प्रभाव को देखते हुए कांग्रेस ने हमेशा रीता बहुगुणा जोशी और प्रमोद तिवारी जैसे नेताओं को अहमियत देकर उन्हें लुभाने की कोशिश की. लेकिन जितिन प्रसाद को, ब्राह्मणों के बीच उनके परिवार के खासे दबदबे के बावजूद, छोटी-मोटी जिम्मेदारियां ही दी गईं.

चाहे बालाकोट हवाई हमला हो या जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म किया जाना या फिर तीन तलाक का मुद्दा, वो कई महत्वपूर्ण मामलों में पार्टी के रुख से भी खासे नाखुश थे.

प्रसाद ने उस समय एक दिन इस संवाददाता से कहा था, ‘मेरे नेता जनता का मूड नहीं समझते हैं. जब पूरा देश अनुच्छेद 370 को हटाने का समर्थन कर रहा है तो मेरी पार्टी इसका विरोध कर रही है! भगवान जाने हमारे नेता क्या सोचते हैं.’

यूपी में राजनीतिक आधार और बंगाल का चुनाव

हालांकि, निराश होकर प्रसाद ने यूपी में अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश की. संगठन को खड़ा करने के प्रति पार्टी नेतृत्व की तरफ से कोई रुचि न दिखाए जाने पर उन्होंने राज्यभर के कांग्रेसियों के साथ वर्चुअल बैठकें शुरू कीं और जब उन्हें इस पर कार्यकर्ताओं की तरफ से खासी उत्साहजनक प्रतिक्रिया मिल रही थी तभी पार्टी आलाकमान की तरफ से उन्हें यह सब रोकने का निर्देश मिला.

कांग्रेस महासचिव और यूपी की प्रभारी प्रियंका गांधी वाड्रा के करीबी सहयोगी उन्हें कमजोर करने में जुट गए थे. उन्हें पार्टी में दरकिनार कर दिया गया था.

जितिन प्रसाद ने तब योगी आदित्यनाथ सरकार के खिलाफ ब्राह्मणों के कथित गुस्से को भुनाने की कोशिश की. उन्होंने ब्राह्मण चेतना परिषद की स्थापना की और इसके संरक्षक बन गए. जब उन्होंने ब्राह्मणों को लामबंद करने के लिए विभिन्न जिलों का दौरा करना शुरू किया और जमीनी स्तर पर पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ संपर्क स्थापित किया, तो उन्हें पश्चिम बंगाल का प्रभारी बना दिया गया.

यद्यपि इसे उनकी पदोन्नति के तौर पर पेश किया गया, लेकिन वास्तविकता यही है कि यह उन्हें राज्य से बाहर भेजे जाने की एक चाल थी.

इस बीच, वह 23 कांग्रेस नेताओं की तरफ से लिखे गए विवादास्पद पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले भी बन गए, जिसमें पूर्णकालिक पार्टी अध्यक्ष और संगठन में बदलाव की मांग की गई थी.

हालांकि, पार्टी की कार्यशैली से वह बेहद निराश थे और उसके नेतृत्व के प्रति उनका मोहभंग हो चुका था, लेकिन जितिन प्रसाद ने पश्चिम बंगाल प्रभारी के रूप में अपनी जिम्मेदारियों को पूरी तरह निभाया.

राज्य का चुनाव उनके लिए बहुत मायने रखता था. उनके साथ जुड़े एक नेता ने इस संवाददाता से कहा, ‘कांग्रेस पश्चिम बंगाल में चुनाव हारने ही गई थी. प्रसाद की तरफ से राहुल गांधी और अन्य केंद्रीय नेताओं को बंगाल आने और चुनाव प्रचार करने के लिए बार-बार कॉल करने और संदेश भेजने के बावजूद दिल्ली में कोई हलचल नहीं हुई. जल्द ही जितिन प्रसाद को समझ आ गया कि उन्हें नाकाम साबित करने के लिए ही बंगाल भेजा गया था.’

यही वो समय था जब उन्होंने कांग्रेस छोड़ने का मन बना लिया. यह भाजपा नेतृत्व को अपने फैसले के बारे में बताने से कुछ दिन पहले की बात है.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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