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Friday, 3 May, 2024
होममत-विमतअखिलेश यादव, ममता बनर्जी, सीताराम येचुरी और तेजस्वी यादव की राजनीति पर आरएसएस विरोधवाद हावी है

अखिलेश यादव, ममता बनर्जी, सीताराम येचुरी और तेजस्वी यादव की राजनीति पर आरएसएस विरोधवाद हावी है

यदि भारत में आज सत्ता के अलावा विपक्ष को एकजुट करने वाला कोई कारक है तो वो है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) या उसके प्रति नफरत.

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कल्पना करें एके जनेऊधारी बंगाली की जो ललाट पर त्रिशूलाकार लाल टीका लगाए कोलकाता के एक मंदिर में पूजा कर रहा है और उसके बाद वह लपक कर कॉमरेडों द्वारा संचालित किताब की दुकान में जा घुसता है कार्ल मार्क्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो और चे ग्वेरा की द मोटरसाइकिल डायरीज़ खरीदने.

वो संभवत: थॉमस मोर की यूटोपिया खरीद आएगा- क्योंकि आज के कम्युनिस्ट लगता है काल्पनिक दुनिया में ही जीते हैं. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के ताज़ा अंतरिम समीक्षा दस्तावेज़ में मंदिर परिसरों में ‘स्थाई किताब दुकानें, चिकित्सा केंद्र और जल सुविधाएं’ स्थापित करने की बात कही गई है.

और चूंकि कॉमरेडों ने मंदिर प्रबंधन में ‘धर्मनिरपेक्ष प्रवृति वाले आस्थावानों’ को शामिल करने की भी इच्छा जताई है, तो हम सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं कि मार्क्स की मदद से कैसे वे उन्हें अपनी पट्टी पढ़ाएंगे, जिनके खुद के शब्दों में: ‘धर्म उत्पीड़ित प्राणी की आह, बेरहम दुनिया का दिल और निष्प्राण परिस्थितियों की आत्मा है. यह जनता के लिए अफीम है…’

मार्क्स की धर्म की समझ के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है, लेकिन भारतीय कम्युनिस्ट हमेशा से इस बारे में अनिश्चित रहे हैं. कइयों ने नास्तिकता को अपनी विचारधारा के मूल सिद्धांतों में से एक के रूप में देखा, जबकि कई अन्य ये कहते हैं कि मार्क्स ने धर्म को एक बीमारी के रूप में नहीं बल्कि उसकी अभिव्यक्ति के रूप में देखा था. पश्चिम बंगाल के पूर्व परिवहन मंत्री स्वर्गीय सुभाष चक्रवर्ती को याद करें? हर बार उनकी मंदिर यात्रा विवादों में घिर जाती थी और वे कहते, ‘मैं पहले तो हिंदू हूं और ऊपर से ब्राह्मण भी… मैं इसे कैसे नकार सकता हूं?’

वैसे माकपा आस्थावानों को पार्टी की सदस्यता देने से इनकार नहीं करती है.

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माकपा के दस्तावेज़ में दी गई ये वजह और भी दिलचस्प है: ‘हम मंदिरों और अन्य धार्मिक स्थलों को आरएसएस और उनके सहयोगी संगठनों के भरोसे नहीं छोड़ सकते.’ आपने पहले भी ये दलील ज़रूर सुनी होगी?


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यदि भारत में आज सत्ता के अलावा विपक्ष को एकजुट करने वाला कोई कारक है तो वो है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) या उसके प्रति नफरत.

बड़ा और बुरा आरएसएस

चाहे मायावती हों या अखिलेश यादव, ममता बनर्जी या सीताराम येचुरी, नीतीश कुमार या लालू/तेजस्वी यादव, उनकी राजनीति पर आरएसएस-विरोधवाद हावी है. राहुल गांधी जेल जाने के लिए तैयार हैं, लेकिन वह संघ के खिलाफ अपनी कथित अपमानजनक टिप्पणी के लिए माफी नहीं मांगेंगे. भीम आर्मी के चंद्रशेखर आज़ाद शनिवार को नागपुर में आरएसएस मुख्यालय के करीब अपनी सभा करने के लिए इतने उत्सुक थे कि वह इसकी अनुमति लेने के लिए अदालत तक गए.

यहां तक कि महत्वाकांक्षी चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने बिहार में विपक्ष के भावी नेता के रूप में अपना पदार्पण नीतीश कुमार के खिलाफ गोडसे-बनाम-गांधी के कटाक्ष के साथ किया. पूर्व स्वास्थ्य विशेषज्ञ के मुंह से ये सुनना थोड़ा अटपटा था क्योंकि उन्होंने नरेंद्र मोदी की भाजपा और आरएसएस के पदाधिकारियों के साथ गुजरात चुनावों और 2014 के लोकसभा चुनावों में भी बहुत निकटता से मिलकर काम किया था. ये सब अमित शाह से उनकी खटपट से पहले हुआ था, जिसके बाद उन्हें विरोधी खेमे में काम तलाशने के लिए मजबूर होना पड़ा.

आखिर विपक्षी नेताओं को आरएसएस से नफ़रत करना क्यों पसंद है? सबसे पहले तो यह उनके भ्रम या वो जो जनमानस में देखना चाहते हैं – को बनाए रखता है कि भाजपा सत्ता में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वजह से नहीं बल्कि आरएसएस के कारण है. यह जनता में मोदी की व्यापक अपील और खुद की नाकामियों को नकारने का उनका तरीका है. मानो आरएसएस के बिना मोदी की हैसियत राहुल गांधी वाली हो जाएगी.

बेशक, जनसंघ/बीजेपी नेताओं की नियमित खेप के लिए आरएसएस एक वैचारिक फैक्ट्री का काम करता रहा है. साथ ही, भारत के दूर-दराज के क्षेत्रों में इसकी सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियां भाजपा के विस्तार के लिए ज़मीन भी तैयार करती हैं और, निश्चय ही संघ के एक पूर्व प्रचारक देश का प्रधानमंत्री होने के कारण मोदी सरकार पर आरएसएस की स्पष्ट छाप है.

गलत निशाना

इसके बावजूद, सांप्रदायिक दंगे भड़काने में कथित भूमिका और हिंदू राष्ट्र की स्थापना के उद्देश्य के लिए आरएसएस पर लगातार हमले कर विपक्षी नेता एक गलत लक्ष्य पर अपनी ऊर्जा खपा रहे हैं. यदि ये नेता इस बात को लेकर सर्वे कराएं कि इन हमलों से उन्हें कितने वोट मिले हैं, तो उन्हें बड़ा झटका लगेगा. उलटे विपक्ष की इस नीति ने संघ में दिलचस्पी लेने वालों की संख्या को बढ़ाया ही है.

भारत की ’आत्मा’ की कथित हिंदू वर्चस्ववादी विचारधारा से रक्षा की विपक्ष की लड़ाई, आरएसएस का मुकाबला करने में उनकी कमजोरी और असमर्थता को छिपाने में विफल रही है. कांग्रेस पार्टी के सेवा दल के पूर्ववर्ती संगठन हिंदुस्तानी सेवा मंडल का गठन 1924 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना से भी एक साल पहले हुआ था. सेवा दल कहने को तो आज भी मौजूद है, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व की रुचि नहीं होने के कारण इसकी उपस्थिति बस नाम की ही है.


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बंगाल में कम्युनिस्ट अपनी दुर्दशा के लिए आरएसएस को दोष देते हैं, लेकिन ममता बनर्जी द्वारा 2011 में सत्ता से बेदखल किए जाने के बाद से ही वे राज्य में अप्रासंगिक हो गए थे. अगर दलित मायावती को छोड़ रहे हैं और यादव वोटर अखिलेश और तेजस्वी यादव से दूर हट रहे हैं, तो ऐसा आरएसएस के प्रभाव के चलते नहीं हो रहा, बल्कि असल कारण है. इनके समर्थकों का अब नेता विशेष की सत्ता और ऐशोआराम का साधन मात्र बनने के लिए राज़ी नहीं होना.

अपने गिरेबां में झांकें    

हालांकि, विपक्षी नेता चाहे कितना भी आरएसएस को बदनाम करें और नरेंद्र मोदी जैसे नेताओं के उदय के लिए उसकी सांप्रदायिक विचारधारा को दोषी ठहराएं, पर वे अपनी राजनीतिक विश्वसनीयता और जनता में अपनी लोकप्रियता गंवाने का ठीकरा संघ पर नहीं फोड़ सकते. सच तो ये है कि आरएसएस ही आज अपने विस्तार के लिए मोदी पर निर्भर है, न कि इसका विपरीत सच है.

जवाहरलाल नेहरू ने 1956 में अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ड्वाइट आइज़नहावर से कहा था कि साम्यवाद के भीतर ही उसके विनाश के बीज छुपे हैं और उन्हें इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए. दशकों बाद नेहरू सही साबित हुए. आरएसएस ना तो नेहरू का कोई प्रशंसक है, और ना ही ऐसा लगता है कि उसे अपनी विचारधारा में अब तक ऐसा कोई बीज दिखा है.

मंदिरों का रुख करने से पहले, फिलहाल कॉमरेड उन जगहों पर कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो बेचने की कोशिश कर सकते हैं जहां कि आरएसएस का सबसे कम प्रभाव है- और शुरुआत शाहीन बाग से की जा सकती है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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