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Friday, 29 March, 2024
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तेजी से आगे निकलने की हड़बड़ी, मोदी पहले कदम बढ़ाते हैं और सोचते बाद में हैं

मोदी सरकार की नीति निर्माण प्रक्रिया में कारक साक्ष्यों और प्लानिंग की जगह नहीं है.

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नरेंद्र मोदी सरकार इलेक्ट्रिक वाहनों के युग में प्रवेश के लिए नीति की घोषणा करती है और फिर उसे इसके अव्यावहारिक होने का अहसास होता है. तब वह इसकी समय सीमा को आगे बढ़ा देती है और इस बार भी बेशक इसे आगे बढ़ाया जाएगा.

अचानक से, सरकार कुछ हफ्तों के भीतर पूरे देश में सिंगल-यूज प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाने की बात करती है, और उसके बाद उसे महसूस होता है कि ऐसा करना व्यावहारिक नहीं है.

यदि आपको ये अलग-थलग उदाहरण लगते हों तो आप मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के प्रथम बजट को देखें कि कैसे इसकी अधिकांश बड़ी बुरी योजनाओं को वापस ले लिया गया. बजट में सरकार ने अतिधनाढ्यों पर भारी टैक्स लगाने की बात कही थी. पर भारतीय उद्योग जगत के दबाव में, कुछ ही हफ्तों के भीतर उसे कॉरपोरेट टैक्स में कटौती करनी पड़ी. जल्दी ही सरकार को पता चल जाएगा कि यह कदम उठाने की ज़रूरत ही नहीं थी क्योंकि असल समस्या मांग के अभाव की है. ये अहसास होने के बाद वो कोई और कदम उठाएगी.

अभी तक, मोदी सरकार पर सिर्फ योजनाओं के कार्यान्वयन संबंधी अक्षमता का आरोप लगाया गया है, पर नीतिगत गतिहीनता का काल ज्यादा दूर नहीं है. नीतिगत गतिहीनता या दुर्बलता की स्थिति तब बनती है जब सरकार नई नीतिगत पहल करने से घबराने लगती है, ये सोचकर कि कहीं नई नीति उल्टी ना पड़ जाए. मोदी सरकार ने पहले ही चीजों को झकझोरने की अपनी प्रवृति के कारण एक फलती-फूलती अर्थव्यवस्था को धीमा कर छोड़ा है, इसलिए वह आगे और व्यवधानकारी कदम उठाने का खतरा मोल नहीं ले सकती (या ऐसी उम्मीद की जा सकती है).

रोग पहचाने बिना इलाज

समस्या की जड़ में है बिना साक्ष्य के या कारक निर्धारित किए बिना नीतियों का निर्माण. कई बार इनके पीछे राजनीतिक मकसद या निहित स्वार्थ होते हैं, तो कई बार ये कारण भी नहीं होते.

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बगैर निर्धारित प्रक्रिया के जम्मू कश्मीर राज्य का अस्तित्व मिटाने के बाद – राज्य विधानसभा को निलंबित रखकर राज्यपाल की सहमति के सहारे– सरकार इसके पक्ष में दलीलें ढूंढने का प्रयास करती है. उसका कहना है कि अनुच्छेद 370 विकास की राह में और आतंकवाद से लड़ाई में बाधक बन रहा था. हालांकि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है. और, सरकार कोई साक्ष्य पेश करने की जरूरत भी नहीं समझती है. कोई अध्ययन नहीं, कोई जांच आयोग नहीं, कोई विचार-विमर्श नहीं, कुछ भी नहीं. क्या फर्क पड़ता है यदि अनुच्छेद 370 ने वास्तव में जम्मू कश्मीर के ‘विकास’ में योगदान दिया हो?

इसी तरह, सरकार ने नई दिल्ली के हृदय स्थल या सेंट्रल विस्टा के पुनर्निर्माण की घोषणा करने के बाद इसके पक्ष में दलीलें ढूंढने की कवायद शुरू की. जाम लगा रहता है, भूकंप का खतरा है, फलाना है, ढिकाना है… और, इस मामले में भी कोई अध्ययन नहीं, कोई साक्ष्य नहीं.

प्रतिकूल साक्ष्य मिलने का डर

मोदी सरकार कई बार साक्ष्य आधारित नीति निर्माण से इतना घबराती है कि वह सबूतों को मिटा डालने का फैसला कर लेती है. इसी साल मई में, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने सरकार से संबद्ध संस्थानों के ई-सिगरेटों पर शोध के प्रकाशन ही नहीं बल्कि उस पर चर्चा तक करने पर पाबंदी लगा दी. सरकार पहले ही फैसला कर चुकी थी कि उसे ई-सिगरेटों पर प्रतिबंध लगाना है, और अगस्त 2018 में उनके खिलाफ चेतावनी जारी की जा चुकी थी. अब, सरकार नहीं चाहती कि किसी शोध में ये कहा जाए कि ई-सिगरेट तंबाकू वाले आम सिगरेटों के मुकाबले कम हानिकारक थे.


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यहां तक कि स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के तंबाकू नियंत्रण विभाग तक ने भी ई-सिगरेटों को लेकर किसी शोध या उपयोग संबंधी सर्वे कराने की जरूरत नहीं समझी. जब अंतिम नतीजा पहले से तय हो, तो फिर शोध में समय नष्ट करने का क्या मतलब? सरकार प्रायोजित सिर्फ एक अध्ययन हुआ था, हालांकि वो भी कोई ऑरिजनल शोध कार्य नहीं था, और उसमें तय उद्देश्यों के अनुरूप हाल के उन अनुसंधानों की अनदेखी की गई थी जो कि ई-सिगरेटों के नियंत्रित उपयोग को धूम्रपान की लत से छुटकारे में मददगार बताते हैं.

मंत्रालय ने इस विषय पर विचार के लिए 2014 में एक उपसमिति का गठन किया था, और आरटीआई के जरिए सामने आई फाइल नोटिंग में एक नौकरशाह की ये टिप्पणी दर्ज है: ‘लगता नहीं है कि इस बारे में वैज्ञानिक आधार पर और निष्पक्षता से विचार किया गया है. हमें खास कर प्रतिकूल दृष्टिकोणों पर गहराई से विचार करते हुए किसी फैसले पर पहुंचना चाहिए’.

बिना साक्ष्य नीति निर्माण का नुकसान

बिना शोध या साक्ष्य के, और कारक निर्धारित किए बगैर नीति निर्माण की ऊंची कीमत चुकानी पड़ती है. ई-सिगरेट का धंधा अब अवैध रूप से और बिना किसी नियंत्रण के फले-फूलेगा. किसी नियामक तंत्र की निगरानी के अभाव में लोगों को अब ये तक पता नहीं चलेगा कि वो वास्तव में किस चीज़ का कश खींच रहे हैं. परंपरागत सिगरेट से किनारा करने की हसरत रखने वाले लोगों के पास अब ई-सिगरेट का विकल्प नहीं है.

इसी तरह, इलेक्ट्रिक वाहन नीति में फेरबदल से ऑटो सेक्टर में अनिश्चितता को हवा मिली. उल्लेखनीय है कि नियमन संबंधी अनिश्चितता से निवेश के माहौल पर प्रतिकूल असर पड़ता है. इलेक्ट्रिक वाहन नीति को लेकर दिखी अनिश्चितता ने ऑटो सेक्टर की मंदी में योगदान दिया, और शायद इसके कारण नौकरियां भी गईं हैं.

हमें 2017-18 में बताया गया था कि भारत 2030 तक इलेक्ट्रिक वाहनों के मामले में 100 फीसदी सक्षम हो जाएगा और 2030 से आगे पेट्रोल पर चलने वाली गाड़ियों की बिक्री नहीं होगी. इस घोषणा से तेल इंजन वाले वाहन निर्माताओं में घबराहट फैल गई जबकि इलेक्ट्रिक वाहन बेचने का मंसूबा रखने वालों की बांछें खिल गईं. पर जल्दी ही सरकार को अहसास हो गया कि तय की गई समय सीमा अव्यावहारिक है और उसने इलेक्ट्रिक वाहन नीति को लागू नहीं करने का फैसला किया. सरकार को महसूस हुआ कि उसे सबसे पहले इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए चार्जिंग का तंत्र खड़ा करना पड़ेगा, इसलिए उसने अब चार्जिंग नीति की रूपरेखा बनाई है. पता नहीं बहुत सारी निवेश योजनाओं को नकारा बनाते हुए इस नीति को भी कब बदल दिया जाए?

ऐसे तमाम मामलों में, सरकार का लक्ष्य अच्छे दीर्घकालीन परिणाम हासिल करना नहीं, बल्कि फिलहाल के लिए सकारात्मक सुर्खियां बटोरना रहा है. ‘भारत 2030 तक पूरी तरह इलेक्ट्रिक वाहनों पर निर्भर होगा’. शाबास. जब नीति वापस लेनी पड़ी तो उसकी जगह लेने के लिए अन्य आकर्षक सुर्खियां मौजूद थीं: ‘भारत महात्मा गांधी की जयंती के मौके पर सिंगल-यूज प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाएगा’. शानदार! पर, इस योजना से भी चुपके से कदम पीछे खींच लिए गए हैं.


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सुर्खियां का प्रबंधन अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक होता है. इसका नोटबंदी और जीएसटी रूपी मोदी की सबसे बड़ी नीतिगत भूलों से बेहतर और कोई उदाहरण नहीं हो सकता. दोनों ही फैसलों से पूर्व इतना कम सोच-विचार किया गया था कि सरकार अगले कई हफ्तों तक संबंधित प्रावधानों में फेरबदल के लिए सर्कुलर, संशोधन, अध्यादेश आदि जारी करने में व्यस्त रही. यदि सरकार ने साक्ष्य आधारित नीति निर्माण की प्रक्रिया अपनाई होती तो उसने जीएसटी को, इसके कार्यान्वयन पर नजर रखते हुए, धीरे-धीरे लागू किया होता.

शोध पश्चिमी अवधारणा है

यदि सरकार को कारक निर्धारण की समझ होती तो उसे पता होता कि समानांतर या ब्लैक अर्थव्यवस्था का मात्र 5 फीसदी ही नकदी के रूप में है, और उसके लिए नोटबंदी का व्यवधान खड़ा करने की आवश्यकता नहीं थी. जाहिर है कि सरकार ने नोटबंदी के प्रभाव के बारे में कोई पूर्व अध्ययन नहीं कराया था.

सरकार अपनी सहूलियत के अनुसार नीतियां लागू करने और उन्हें बदलने के बाद भी बच निकलती है क्योंकि कमज़ोर विपक्ष इस सिलसिले में सवाल करने की स्थिति में नहीं है. शीघ्र ही आ रहा है: सरकार का कहना है कि वह भारतीय नागरिकों का एक राष्ट्रीय रजिस्टर तैयार करेगी, जिसके लिए सभी भारतीयों को अपनी नागरिकता साबित करनी होगी. आप सोचते होंगे कि सरकार इस तरह का कठोर कदम उठाए जाने से पहले इस बात के साक्ष्य प्रस्तुत करेगी कि भारत अवैध प्रवासियों से भरा हुआ है. पर उसे ऐसा करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि उसके पास भारी बहुमत जो है. साथ ही, शोध एक पश्चिमी अवधारणा है, और कारक निर्धारण एक हिंदू-विरोधी विचार है.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)

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