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Thursday, 25 April, 2024
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क्यों नितिन गडकरी भारत के अगले प्रधानमंत्री बन सकते हैं

2014 के आम चुनाव से पहले ‘160 क्लब’ की चर्चा थी. विचार था कि अगर भाजपा की सीटें 160 के आसपास रहीं, तो पार्टी में मोदी के दुश्मन उन्हें पीएम बनने नहीं देंगे.

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2014 के आम चुनाव से पहले ‘160 क्लब’ की चर्चा थी. इसके पीछे ये विचार था कि यदि भाजपा की सीटें 160 के आसपास रहीं, तो पार्टी में नरेंद्र मोदी के दुश्मन उन्हें प्रधानमंत्री बनने नहीं दे सकते हैं.

अब जबकि आम धारणा में नरेंद्र मोदी के 2019 के चुनाव में 272+ सीटें जीतने की संभावना क्षीण होती जा रही है, 160 क्लब एक बार फिर सामने है. इस बार, इसका खुद का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार है: नितिन जयराम गडकरी.

गडकरी की महत्वाकांक्षाएं काफी समय से ज़ाहिर हैं. अब, कई बातें उनके पक्ष में आ रही हैं. किसे पता कि वह भारत के अगले प्रधानमंत्री बन जाएं.

1. क्षेत्रीय दल गडकरी के पक्ष में

यदि भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरती है, पर बहुमत से काफी पीछे रह जाती है, तो ऐसे में एनडीए के सहयोगी दलों की चलेगी. इन दलों में से किसी के पास कोई वजह नहीं है कि वो नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनाए जाने का आग्रह करें. उल्टे मोदी-शाह जोड़ी द्वारा मई 2014 से ही हाशिये पर रखे जाने वाले इन दलों में कुछ शायद किसी और को प्रधानमंत्री बनाए जाने पर ज़ोर दें, ख़ास कर जब आरएसएस उन्हें इसके लिए इशारा करता हो. और, जब समय रहते पसंदीदा नाम खुलकर आगे रख रहा है: नितिन जयराम गडकरी.

यह भी स्पष्ट है कि एनडीए का कौन-सा सहयोगी दल ये पहल करेगा: शिव सेना. इसके मुखर सांसद संजय राउत पार्टी मुखपत्र ‘सामना’ में इस ओर इशारा करने से भी ज़्यादा कुछ कह चुके हैं.

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क्षेत्रीय दलों के बीच गडकरी की लोकप्रियता केवल एनडीए सहयोगियों तक ही सीमित नहीं है. सबसे अच्छे संबंध बनाए रखने के कारण संभवत: वह विपक्षी दलों के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय मंत्री हैं. वह मोदी-शाह की तरह राजनीतिक विरोधियों के प्रति अछूत या दुश्मनी वाला भाव नहीं रखते. विभिन्न दलों के भीतर अपने लिए स्वीकार्यता विकसित करने की दिशा में उन्होंने खुद को महाराष्ट्र से प्रधानमंत्री पद के एक और उम्मीदवार शरद पवार की तर्ज़ पर ढाला है.

आमतौर पर माना जाता है कि सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री के रूप में वह गैरभाजपा और गैर-एनडीए शासित राज्यों के प्रति उदार रहे हैं. नागपुर में अपने 60वें जन्मदिन पर आयोजित समारोह में 2017 में उन्होंने कहा था, ‘हर मुख्यमंत्री सोचता/सोचती है कि मैं उसके राज्य के प्रति सर्वाधिक उदार हूं और मुझे इस बात की खुशी होती है.’ आश्चर्य की बात नहीं कि लोकसभा में विपक्षी सांसदों ने खुलकर गडकरी की तारीफ़ की है.

2. भाजपा में गडकरी का समर्थन?

ऊपर से फ़रमान चलाने की मोदी और शाह की अलोकतांत्रिक व्यवस्था से नाख़ुश भाजपा के अनेक नेताओं को सामने एक नया विकल्प पाकर राहत महसूस होगी.

प्रोजेक्ट गडकरी से अंदर ही अंदर भाजपा के भीतर के उन असंतुष्टों को बल मिल रहा है, जो मोदी-शाह युग में खुद को अप्रासंगिक पा रहे हैं. पूर्व केंद्रीय मंत्री संघप्रिय गौतम कोई मज़बूत नेता भले ही नहीं हों, पर उत्तर प्रदेश में हाशिये पर डाल दिए गए पार्टी के इस पुराने नेता ने मांग की है कि गडकरी को तत्काल उपप्रधानमंत्री बनाया जाए.

एक सरकारी पद पर आसीन महाराष्ट्र के एक प्रमुख किसान नेता ने सीधे आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को पत्र लिखकर गडकरी को प्रधानमंत्री बनाए जाने की खुलकर मांग की है.

3. आरएसएस गडकरी के पक्ष में

2013 में आरएसएस और भाजपा के आम कार्यकर्ताओं के बीच नरेंद्र मोदी की बढ़ती लोकप्रियता के मद्देनज़र आरएसएस नेतृत्व के पास प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी को समर्थन देने का कोई दूसरा विकल्प नहीं था. पर यदि मोदी की जनलोकप्रियता कम होती है– और उनके नेतृत्व में बहुमत से बहुत कम संख्या में सीटें आती हैं– तो वैसे में आरएसएस के पास मोदी का समर्थन करने की कोई बाध्यता नहीं होगी.

आरएसएस के लिए तो नितिन गडकरी अपना बच्चा है, जो सचमुच ही नागपुर में आरएसएस मुख्यालय के पड़ोस में पला-बढ़ा है. ये नज़दीकी जाति को लेकर भी है– आरएसएस नेतृत्व के समान गडकरी भी महाराष्ट्रियन ब्राह्मण हैं. हालांकि गडकरी कोई करिश्माई जननेता नहीं हैं, न ही उनके खाते में बहुत सारी चुनावी जीतें हैं, बावजूद इसके वह 1995 में महाराष्ट्र में मंत्री बने और 2010 में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष.

यहां तक कि आरएसएस ने भाजपा से पार्टी संविधान में बदलाव कराया, ताकि गडकरी दूसरे कार्यकाल के लिए पार्टी अध्यक्ष रह सकें, पर उनके खिलाफ़ भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण ऐसा हो नहीं पाया. सबको पता है कि गडकरी उन दिनों गुजरात के दबंग मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से राजनीतिक रस्साकशी में उलझे हुए थे. आरएसएस के पुराने विचारक एमजी वैद्य ने तब इसके लिए खुलकर मोदी पर आरोप लगाए थे.

4. गडकरी के पक्ष में महाराष्ट्रियन

कोई महाराष्ट्रियन अभी तक प्रधानमंत्री नहीं बन पाया है (मोरारजी देसाई गुजराती थे). एक महाराष्ट्रियन के प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने को लेकर क्षेत्रीय जनभावना इतनी प्रबल है कि मुंबई के टैक्सी चालक भी आपको इससे अवगत करा सकते हैं.

यह जनभावना भी नितिन गडकरी के पक्ष में आ रही है. शिव सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने हाल ही में कहा कि देश को एक दिन मराठी प्रधानमंत्री मिलेगा. जब उनसे पूछा गया कि वह विरोधी एनसीपी के शरद पवार की ओर इशारा कर रहे हैं या सहयोगी दल भाजपा के नितिन गडकरी की ओर, तो वह सवाल को टाल गए.

इस संबंध में जनभावना इतनी तीव्र है कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को कहना पड़ा कि देश को 2050 तक एक से अधिक महाराष्ट्रियन प्रधानमंत्री मिलेंगे– शायद वह खुद को भी गिन रहे होंगे!

5. गडकरी के पक्ष में व्यवसाय जगत

वे खुलकर ऐसा नहीं कर सकते, पर प्रधानमंत्री-पद-पर-गडकरी के राजनीतिक सुर में व्यवसाय और उद्योग जगत के लोग भी सुर मिला रहे हैं, क्योंकि गडकरी को नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी के मुक़ाबले व्यवसाय जगत के ज़्यादा अनुकूल माना जाता है. आप अनुमान लगा सकते हैं कि बड़े व्यवसायी गडकरी को कितना पसंद करेंगे, जब वह खुलकर जता सकते हैं कि विजय माल्या अपराधी नहीं हैं.

गडकरी के खिलाफ़ आरोप सर्वव्यापी राजनीतिक भ्रष्टाचार के दायरे में हैं: हितों का टकराव, शेल कंपनी आदि-आदि. कम-से-कम इस समय तो वह भ्रष्टाचार से जुड़ी छवि से उबरने में सफल रहे हैं, और इसमें अर्थव्यवस्था की सुस्ती के मौजूदा माहौल का भी योगदान है, क्योंकि लोगों को भ्रष्टाचार से ज़्यादा रोज़गार की चिंता है.

और इसमें मोदी सरकार के सबसे बढ़िया प्रदर्शन करने वाले मंत्री गडकरी की साख का भी हाथ है.

खुद एक उद्योगपति गडकरी पर उनके व्यावसायिक हितों को लेकर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं, जिनमें से कतिपय आरोपों के कारण 2013 में उन्हें भाजपा अध्यक्ष के पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था. तात्कालिक कारण थे 2012 के लोकपाल आंदोलन के दौरान अरविंद केजरीवाल द्वारा लगाये गए भ्रष्टाचार के आरोप. समय कितना बदल चुका है कि आज केजरीवाल भी गडकरी की तारीफ़ कर रहे हैं.

6. गडकरी के पक्ष में गडकरी

गडकरी चुनाव प्रचार में पहले ही जुट चुके हैं. ये हैं बीते हफ्तों में उनके बयानों से ली गई कुछ बातें: असहिष्णुता ठीक नहीं, उन्हें नेहरू के भाषण पसंद हैं, पार्टी नेतृत्व को चुनावी हारों की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए, हमें खेती-बारी से जुड़ी मुश्किलों की बात स्वीकार करनी होगी, जबकि देश के समक्ष सबसे बड़ा संकट बेरोज़गारी का है.

उन्होंने गत सप्ताह मुंबई में कहा, ‘मैं समझता हूं उपयुक्त नीतियों के सहारे हम भारत को एक मज़बूत आर्थिक ताक़त बना सकते हैं. यह वक़्त उपयुक्त नीतियां लाने और खराब शासन से छुटकारा पाने का है. मैं राजनीतिक बातें नहीं कर रहा, मैं लोकतंत्र और देश के हित में बोल रहा हूं, हमें अच्छे नेतृत्व की ज़रूरत है.’

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