नरेंद्र मोदी ने 2014 में बहुमत के साथ सत्ता में आने पर सबसे पहले जो कुछेक काम किए थे उनमें रेलवे बजट को खत्म करना शामिल था. कुछ दिनों के लिए कतिपय लोगों ने इस बारे में शिकायत की थी, खास कर बिहार और पश्चिम बंगाल के नेताओं और पूर्व रेल मंत्रियों ने, और हमेशा की तरह पुराने समाजवादियों ने.
अब कोई भी रेल बजट को याद नहीं करता. समय बीतने के साथ, भारतीयों की एक ऐसी पीढ़ी वोट डाल रही होगी जिनको रेल बजट जैसी किसी चीज़ की यादाश्त या जानकारी नहीं होगी. अब नई ट्रेन चलाने की घोषणाओं, टिकट मूल्यों में चालाकी भरी कटौती या वृद्धि, विद्युतीकरण के दावों आदि का कोई एक निश्चित दिन नहीं है. रेलवे को अब सामान्य रोजमर्रा के ढर्रे पर चलाया जाता है. मीडिया के लिए इसमें न तो कोई खबर, कम से कम बड़ी खबर है और न ही कोई रोमांच.
वार्षिक राष्ट्रीय बजट के लिए भी मोदी का यही सिद्धांत है. बाज़ारों में आज गिरावट देखी गई, क्योंकि मोदी के सातवें बजट ने भी बिग बैंग या बड़े आर्थिक सुधारों संबंधी अपेक्षाओं को झुठलाने का काम किया. निराशा तर्कसंगत थी, पर उम्मीद बिल्कुल अतार्किक. मोदी के इससे पहले के छह बजटों में ऐसा कुछ भी नहीं था कि जिससे लगता हो कि उनका बिग बैंग सिद्धांत में यकीन भी है.
वह बजट को एक साधारण और नियमित किस्म की कवायद, और उत्तरोत्तर महज़ वार्षिक लेखेजोखे के रूप में देखना चाहते हैं, जिसमें भाषणबाज़ी, घिसीपिटी बातों और बड़े उद्देश्यों की चर्चा के साथ-साथ श्लोकों और कविताओं की हल्की-सी छौंक होती है. बड़ी घोषणाएं यदि कुछ रही भी हैं तो वो बाज़ार को पसंद नहीं आने वाली: अमीरों पर चोट करने, और इस तरह गरीबों में काल्पनिक संतुष्टि का भाव भरने वाली.
इसके अलावा, बजट बिना किसी शोर-शराबे के निकल जाता है और दिन भर की सुर्खियों के बाद मर जाता है. बड़े आर्थिक फैसले साल में कभी भी आ जाते हैं, जब भी प्रधानमंत्री चाहें, या ज़रूरी समझें. ऐसे फैसले वास्तव में बड़े होते हैं, जैसे कि नोटबंदी और इससे जुड़ी छूट और माफी की तमाम योजनाएं. या ये बड़ी घोषणाएं पूर्व में घोषित योजनाओं को वापस समेटने के रूप में भी हो सकती हैं, कई बार तो एक-एक कर लगातार कई रोलबैक हुए हैं.
यह भी पढ़ें: क्या रिफ्यूजी कैंप से निकलकर ‘शिकारा’ दर्शकों तक कश्मीरी पंडितों का सच ले जा पायेगा ?
2019 के त्रासद बजट के बाद का घटनाक्रम एक अच्छा उदाहरण है. गरीबों को खुश करने के लिए अमीरों की धुनाई की भावना का ऐसा ज़ोर चला कि बाज़ारों में अफरातफरी मच गई, अरबपतियों और उद्यमियों के विदेशी पासपोर्ट खरीदने की कहानियां सुनाई देने लगीं, विदेशी संस्थागत निवेशकों में आक्रोश दिखने लगा, और मोदी को अपने वित्त मंत्री को बजट प्रस्तावों को एक-एक कर वापस समेटने के काम में लगाना पड़ा, लगभग हर शुक्रवार को ऐसी घोषणाएं होने लगी थीं.
पिछले साल कॉरपोरेट टैक्स की दर में कटौती मोदी शासन का सर्वाधिक चौंकाने वाला आर्थिक सुधार था और उसे आमतौर पर अमीरों के प्रति दरियादिली के रूप में देखा गया था. कटौती की घोषणा बिना किसी चर्चा या बहस के, किसी सामान्य प्रशासनिक फैसले की तरह की गई थी. मानो कोई नई ट्रेन शुरू करने की घोषणा हो. कॉरपोरेट टैक्स में कटौती की घोषणा अपनी गलती मानने की प्रकृति की थी क्योंकि 2019 के गरीबोन्मुखी बजट ने बाज़ार के उत्साह को ठंडा कर दिया था. पर कल्पना करें उस परिदृश्य की जब इस तरह की टैक्स कटौती को वार्षिक बजट का केंद्रीय आकर्षण बनाया जाता, टीवी स्टूडियो ‘विशेषज्ञों’ से पटे होते, और विपक्ष हमलावर हो रहा होता.
इस लेखक समेत मुक्त-बाज़ार और निजीकरण के अनेक समर्थकों ने चिंता व्यक्त की थी कि दूसरा बड़ा जनादेश पाने के बावजूद मोदी ने बजट में किसी बड़े विनिवेश की घोषणा नहीं की. पर क्या उन्हें ऐसा करने और आलोचनाओं एवं बहस को न्योता देने की ज़रूरत भी है, जब वह किसी सामान्य शाम को तुरत-फुरत बुलाए गए संवाददाता सम्मेलन में ऐसी घोषणा कर सकते हों? जैसा कि उनकी सरकार बीपीसीएल और अन्य कई मामलों में कर चुकी है. वह इस बात पर बल दे रहे हैं कि इस तरह के कदम उठाने के लिए सरकार को बजट की दरकार नहीं है. बस शुक्रवार, वित्त मंत्री के पसंदीदा दिन, और बुधवार (मंत्रिमंडल की बैठक का दिन) की शाम को चौकस रहिए.
भला कौन कहेगा कि मोदी को तमाशा पसंद नहीं. वास्तव में उनसे अधिक और किसको दिखावा पसंद होगा. पर वह तमाशों पर भी नियंत्रण चाहते हैं, हमेशा. बड़े बजट परेशानी का सबब होते हैं. क्योंकि यदि इससे गरीबों को खुशी होती है, तो आमतौर पर ये अमीरों को और बाज़ार को गुस्सा दिलाता है, जैसा कि 2019 में दिखा. और, यदि ये बाज़ार के हित में हुआ, तो गरीबों को ये पंसद नहीं आता, राहुल गांधी आपको ‘सूट-बूट की सरकार’ कहते हैं, और आप कभी नहीं चाहेंगे कि ऐसी स्थिति बने.
बजट का नरेंद्र मोदी सिद्धांत अब स्पष्ट है. यदि पिछले लगातार छह बजट हमें यकीन नहीं दिला पाए थे, तो अब सातवां हमारे सामने है. पत्रकारिता में, आमतौर पर, हम एक जैसी तीन घटनाओं को एक पैटर्न मान लेते हैं. ये तो सातवीं बार का मामला है. नरेंद्र मोदी ने खबर बनने वाले बजट का गला घोंट दिया है. आपको सबूत चारों तरफ बिखरे मिलेंगे.
इस बजट में रक्षा क्षेत्र को आवंटन लगभग यथावत रखा गया है, जबकि रक्षा पेंशन का खर्च काफी बढ़ चुका है. अभी तो आलोचना हो रही है. पर, साथ ही, रक्षा मंत्रालय ने वित्त आयोग के समक्ष संसाधनों की कमी का मुद्दा उठाया है. वित्त आयोग खरीदारी के लिए निरंतर उपलब्ध एक कोष की स्थापना, और संभवत: रक्षा सेस लगाने के विचार के अध्ययन के लिए एक कमेटी गठित कर रहा है. जब इसकी घोषणा होगी, संभवत: एक बार फिर किसी नियमित प्रेस कॉन्फ्रेंस में, तो ये रक्षा बजट में बड़ी वृद्धि के मुकाबले निहायत छोटी खबर बनेगी. और चूंकि ये रक्षा की बात है, कोई भी आलोचना का जोखिम नहीं उठाना चाहेगा. यही है राजनीतिक अर्थव्यवस्था को लेकर मोदी का रवैया.
यह भी पढ़ें: कैसे भारतीय सेना पाकिस्तान को एक हफ्ते के भीतर हरा सकती है
इस बजट में साहसिक कहे जा सकने लायक एकमात्र बात है, निजीकरण बढ़ाने की चर्चा, और भारतीय जीवन बीमा निगम का आईपीओ. बीपीसीएल, एयर इंडिया, कॉनकोर, शिपिंग कॉर्पोरेशन आदि मामलों के जरिए निजीकरण के पक्ष में जनमत बनाने का काम पहले ही किया जा चुका है. तभी तो एलआईसी को अचानक सामने कर दिया गया. लेकिन, यदि अधिक आलोचना होती है, खास कर आरएसएस और स्वदेशी वालों की तरफ से, तो वैसे में आश्चर्य नहीं कि इस प्रस्ताव को टाल दिया जाए. पिछले साल सरकारी ऋण बॉन्डों के प्रस्ताव को लेकर यही तो हुआ था.
नरेंद्र मोदी की सरकार भारत की अब तक की सर्वाधिक राजनीतिक, वैचारिक और केंद्रीय नियंत्रणवादी सरकार है. इंदिरा गांधी की सरकार से भी अधिक. हर फैसला, हर पहल का आधार ये होता है कि मतदाताओं पर उसका क्या असर होगा.
मोदी सुधारों के पक्ष में आर्थिक जोखिम नहीं उठाएंगे. बाज़ार के किरदार, फंड मैनेजर, और पैसे वाले इस बात के अभ्यस्त हो चुके हैं. यदि आप वोट संबंधी अपनी प्राथमिकताओं को बाज़ार अनुमानों पर हावी होने देंगे, तो अतार्किक अपेक्षाएं निर्मित होंगी, जैसा कि इस बजट से पहले दिखीं. इसलिए पहली फरवरी की सुर्खियों से बाहर निकल कर, पूरे साल बड़ी तस्वीर देखना सीखिए.
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)