scorecardresearch
Monday, 18 November, 2024
होममत-विमतक्यों मोदी की चीन से भिड़ंत इतिहास को नेहरू के प्रति नरम रवैया अपनाने वाला बना सकता है

क्यों मोदी की चीन से भिड़ंत इतिहास को नेहरू के प्रति नरम रवैया अपनाने वाला बना सकता है

1949 से 2022 तक चीन से मुकाबले के लिए सेना को न नेहरू, न मोदी तैयार कर पाए.

Text Size:

साठ साल पहले, चीन के खिलाफ 1962 के युद्ध में भारत को अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा था. भारतीय सेना को 20 अक्टूबर से 20 नवंबर तक महज एक महीने और एक दिन में, वह भी केवल 10 दिनों की वास्तविक लड़ाई में, मुंह की खानी पड़ी थी. पूरी नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (अरुणाचल प्रदेश) और 50 फीसदी लद्दाख को शर्मनाक तरीके से खाली छोड़ दिया गया. 21 नवंबर को चीन ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा करके मानो हमारे घावों पर नमक छिडक़ दिया. उसने अपने सैन्य और राजनीतिक लक्ष्यों को प्राप्त कर लिया था और हमारे पुराने हथियारों और सैन्य भंडारों के ढेर को पीछे छोड़ कर वापस चला गया.

सैन्य इतिहासकार, मीडिया और आम लोगों का नजरिया एक जैसा है कि उस पराजय की जिम्मेदारी पूरी तरह प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कंधों पर है. उन्होंने न सुलह के लिए कूटनीतिक वार्ता की और न अपनी क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा के लिए जरूरी सैन्य ताकत और सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार किया. साठ साल बाद, मई 2020 में हम फिर पूर्वी लद्दाख में मुठभेड़ में भिड़े. हमारा अपने 1,000 वर्ग किमी. के इलाके पर अब कोई नियंत्रण नहीं है और न ही उसे वापस पाने की कोई राजनैतिक इच्छा तथा सैन्य क्षमता है. कूटनीति और अपर्याप्त सैन्य क्षमता का नाकामी साफ-साफ उजागर है. विडंबना यह है कि इस बार कोई जवाबदेही भी नहीं है.

1962 के युद्ध की वजहें क्या थी और मौजूदा दौर में पूर्वी लद्दाख में संकट की शुरुआत कैसे हुई? प्रधानमंत्री नेहरू की क्या मजबूरियां थीं और और मोदी की क्या हैं? इन सवालों के जवाब ही भविष्य के लिए सबक दे सकते हैं.

सीमाओं पर झंडे गाड़ना

राष्ट्र-राज्यों के लिए क्षेत्रीय अखंडता अनिवार्य है, और अनंत स्मृतियों वाली सभ्यता के राज्यों को अपने खोए हुए क्षेत्रों को वापस पाने की इच्छा ही सर्वोपरि है. पिछले समझौतों के बहुत कम या न के बराबर मायने हैं. भारत ने 1947 में विदेशी आक्रांताओंं की यादों और औपनिवेशिक शासन के जुए को उतार फेंका था और चीन ने 1950 में अपनी ‘अपमानजनक सदी’ से मुक्ति पाई थी. दोनों के बीच सीमावर्ती क्षेत्र में हिमालय की ऊंची चोटियां खड़ी थीं.

अंतर्राष्ट्रीय सीमा’, ‘सीमा’ और ‘सीमा’ भू-रणनीतिक शब्द हैं जिनका उपयोग वैधता और अंतर्राष्ट्रीय स्वीकृति के घटते क्रम में निहित राष्ट्र राज्यों के बीच के स्थान का वर्णन करने के लिए किया जाता है. व्यावहारिक तौर पर सबसे पहले सीमांत क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण जाहिर करने के लिए झंडे गाड़े जाते हैं, फिर बातचीत या टकराव के जरिए वास्तविक सैन्य नियंत्रण के साथ सीमा तैयार होती है, और अंत में आपस में स्वीकृत अंतरराष्ट्रीय सीमा के खातिर क्षेत्रों के परिसीमन और सीमांकन के समझौतों पर हस्ताक्षर किए जाते हैं.

जब राष्ट्र-राज्य ताकत की होड़ में लगे हों तो सीमांत क्षेत्रों और सीमा पर संघर्ष की गुंजाइश बन जाती है. इस तरह, 1962 का युद्ध और मौजूदा दौर में लद्दाख संकट दोनों ही अपरिहार्य थे.

हमें 1947 में जो विरासत में मिला, वह एक सीमांत क्षेत्र था जो पार्टीशन के ‘ग्रेट गेम’ का नतीजा था और लुंजपुंज तिब्बत तथा अर्ध-स्वायत्त झिंजियांग बफर राज्यों के रूप में थे. सीमांत क्षेत्र की भौतिक सुरक्षा नहीं थी. पूर्वी क्षेत्र में, सीमा मैकमोहन रेखा तय करती थी, जो छोटे नक् शों में तो खींची गई थी, मगर जमीन पर नदारद थी. हालांकि, चीन ने 1914 के त्रिपक्षीय समझौते (ब्रिटिश भारत, तिब्बत और चीन के बीच) पर हस्ताक्षर नहीं किए थे, जिस दौरान नक्शे पर यह रेखा खींची गई थी. पश्चिमी क्षेत्र पारंपरिक/रवायती सीमा और 1842 सिख साम्राज्य-तिब्बत संधि पर निर्भर था. हालांकि, कुनलुन पहाड़ों से लगे अक्षय चिन क्षेत्र की सीमा को ‘अपरिभाषित’ छोड़ दिया गया था और 1954 तक बिंदुवार रेखाओं के जरिए गैर-सीमाकिंत क्षेत्र के रूप में दिखाया गया था.

चीन के शिनजियांग और तिब्बत क्रमश: 1949 और 1950 में अपना कब्जा कायम करने के बाद, दोनों पक्षों में हिमालय की सीमा में झंडे गाडऩे की होड़ लग गई. नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नाम पर गौर करें) में, भारत ने चीन से पहले हरकत की और 1951 तक असम राइफल्स के जरिए मैकमोहन रेखा तक के क्षेत्रों को सुरक्षित कर लिया. यह राजनैतिक तख्तापलट जैसा था क्योंकि तब तक तिब्बत का तवांग और लोहित डिवीजन के कुछ हिस्सों पर राजनीतिक नियंत्रण था. पश्चिमी क्षेत्र में, चीन ने भारत से पहले हरकत की और अक्षय चिन के तीन-चौथाई हिस्से पर काबिज हो गया. वहां उसने शिनजियांग को तिब्बत से जोडऩे वाली एक सडक़ बना ली. हम केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) और इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) के जरिए अक्साई चिन के 1/4 क्षेत्रफल पर अपना ‘झंडा’ गाड़ने में कामयाब रहे.

पश्चिमी क्षेत्र में मौजूदा वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के पूर्वी इलाके और पूर्वी क्षेत्र में मैकमोहन रेखा के आसपास के कुछ इलाकों में 1959 के मध्य तक हमारी पुलिस और अर्धसैनिक बलों का सामना चीनी सीमा रक्षकों से हुआ. तिब्बत में बगावत और अप्रैल 1959 में दलाई लामा को भारत में शरण देने से चीन ने अपने तेवर कड़े कर लिए और लद्दाख में एक औपचारिक दावा रेखा के साथ सामने आया, जिसे अब 1959 की दावा रेखा कहा जाता है. पहली दो झड़पें 25 अगस्त को लोहित डिवीजन के लोंगजू में और 21 अक्टूबर को लद्दाख के कोंगका ला में हुईं. जाहिर था कि आगे झंडे गाडऩे की किसी भी होड़ में संघर्ष तय था.


यह भी पढ़ें: बिलकिस के बलात्कारियों की रिहाई हिंदू-मुस्लिम का मसला नहीं, BJP के नेता जता रहे कि कोई सुरक्षित नहीं


नेहरू रणनीति का मूल्यांकन

नेहरू ने चीन से निपटने के लिए 1959 तक व्यावहारिक रणनीति अपनाई थी. यह कहना गलत है कि वे चीनियों की मंशा नहीं भांप पाए थे. उनके दिमाग में साफ था कि अस्थाई सीमाओं के मद्देनजर ताकत की होड़ आखिरकार युद्ध की वजह बनेगी. लेकिन गरीब विकासशील देश की आर्थिक दिक्कतों के मद्देनजर उन्होंने सीमा पर जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर और सैन्य ताकत तैयार करने के लिए कूटनीतिक पहल से समय निकालने का विकल्प चुना. उन्होंने अपने क्षेत्रों की सीमाएं चिह्नित करने के लिए पुलिस और अर्धसैनिक बलों के इस्तेमाल की पारंपरिक अग्रीम रणनीति अपनाई. दूसरा एकमात्र विकल्प अमेरिका का पिछलग्गू बन जाना था. मेरी राय में, नेहरू निश्चित रूप से एक दशक निकाल ले गए, लेकिन आर्थिक बाधाओं के बावजूद, सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने और जरूरी सैन्य क्षमता निर्माण की उनकी कोशिशें उतनी जोरदार नहीं थीं और बेहद नाकाफी थीं.

झंडे गाडऩे की अग्रीम रणनीति 1959 के अंत तक मुकम्मल हो गई थी. सीमांत क्षेत्रों की गतिविधियां गुप्त थीं और सार्वजनिक नहीं थीं. सीमा पर संघर्ष और हताहतों की संख्या के कारण संसद में और जनता के बीच भारी दबाव बना. घरेलू राजनीति से नेहरू अपना आपा खो बैठे. चीन ने यथास्थिति बनाए रखने के लिए सुलह की पेशकश की, लेकिन नेहरू ने छोटे दायरों में सेना की आक्रामक अग्रीम रणनीति अपनाकर गलती कर बैठे. सोच यह थी कि चीन हालात को युद्ध नहीं बढ़ाएगा.

उसके बाद उनके सभी कदम घबराहट में उठाए गए और सामरिक थे, उनमें रणनीतिक सोच गायब थी. तथाकथित चीनी झांसा का जवाब देने की मंशा से बेपरवाही के आलम में बमुश्किल तैयार सेना प्रतिकूल इलाके में उतार दी गई. राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व की हताशा की वजह से हम अच्छी लड़ाई लडऩे की सांत्वना भी हासिल नहीं कर पाए. पराजय अपमानजनक और संपूर्ण थी.

भाग्य के बलबूते भयावह हार के बावजूद सीमांत इलाके सीमा में बदल गए. अलबत्ता अक्षय चिन को गंवा दिया गया. चीन सर्दियों की आमद और भारत को पर्याप्त सजा दे देने के विचार के साथ पूर्व में मैकमोहन रेखा और लद्दाख में 1959 की दावा रेखा पर पहुंचकर संघर्ष विराम का ऐलान कर दिया. 1967 में नाथू ला और सुमदोरोंग चू टकराव से कुछ जान बटोर चुकी भारतीय सेना ने सीमाओं को और मजबूत कर लिया.

मोदी की चीन रणनीति में विचित्र समानताएं

जब तक सीमा पर यथास्थिति नहीं टूटी, शांति बनी रही। सीमा-प्रबंधन के लिए पांच समझौतों पर हस्ताक्षर हुए. आर्थिक सहयोग में भारी वृद्धि हुई. 1987 और 2007 के बीच की अवधि 1959 तक की नेहरूवादी नीति की वापसी थी. जब, चीन की आर्थिक और सैन्य क्षमताएं तेजी से बढ़ीं और भारत का मध्यम गति से विकास हुआ तो इसके साथ ही सभ्यतागत प्रवृतियां आड़े आ गईं. बतौर परमाणु शक्ति भारत के उदय और अमेरिका के साथ उसके गठबंधन को चीन ने एक चुनौती के रूप में देखा. सीमा इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास 2007 से धीमी गति से शुरू हुआ, लेकिन 2014 के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने उस पर जोर बढ़ा दिया. 2013 और 2014 की घटनाओं के साथ सीमा पर टकराव में वृद्धि हुई.

आरएसएस और बीजेपी वैचारिक तौर पर तो हमारे खोए हुए क्षेत्रों को वापस पाने के प्रति प्रतिबद्ध हैं। नेहरू की तरह, मोदी भी आर्थिक और सैन्य ताकत में चीन की बराबरी के लिए कुछ समय चाहते थे. कूटनीति और आर्थिक सहयोग बुलंदियों पर पहुंच गया. मोदी ने मई 2020 तक छह साल में शी जिनपिंग से जितनी बार मिले और जैसे संबंध कायम किए, वह 1949 से 2014 तक की तमाम परिघटनाओं से अधिक था. साथ ही, भारत ने सीमा पर भारत-तिब्बत सीमा पुलिस की अग्रीम चहलकदमी के जरिए अधिक आक्रामक रुख अपनाया और संवेदनशील इलाकों में सडक़ निर्माण में तेजी दिखाई. मसलन, देपसांग पठार, पैंगोंग त्सो के उत्तर में पैट्रोलिंग पॉइंट 15 और 17ए, और डेमचोक में सक्रियताएं चीन को अखरीं, जिसे वह 1959 की दावा रेखा के पार मानता है. डोकलाम की घटना उसी तरह चेतावनी की घंटी थी, जिस तरह 1959 में लोंगजू और कोंगका ला की घटनाएं हुई थीं. मोदी ने दो अनौपचारिक शिखर सम्मेलनों में व्यक्तिगत संबंधों वाली कूटनीति के साथ इसका मुकाबला किया.

राष्ट्रीय मूड बल्ले-बल्ले था. बीजेपी सरकार ने यह धारणा पैदा की कि पाकिस्तान को तो बेमानी बना दिया गया है और चीन को चुनौती दी है. लेकिन मोदी भूल गए कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है. चीन आर्थिक और सामरिक ताकत के तौर पर काफी आगे बढ़ चुका है. नेहरू की ही तरह, आर्थिक मजबूरियों और, आश्चर्यजनक रूप से इच्छाशक्ति की कमी के कारण, मोदी सेना को चीन की बराबरी करने के लायक नहीं बना सके.

जब चीन ने पूर्वी लद्दाख में संकट को गंभीर बना दिया, तो मोदी ठीक वैसी ही स्थिति में थे, जैसे नेहरू 1962 में युद्ध के ऐन पहले थे. उन्हें यह श्रेय जरूर है कि नेहरू के विपरीत, उन्होंने दुर्गम इलाके और बिना सैन्य बढ़त के युद्ध में नहीं कूद पड़े. हैरान होने और जनता को गुमराह करने की भदेस कोशिशों के अलावा, मैं संकट से निपटने के लिए उन्हें दोषी नहीं ठहरा सकता. चीन से आर्थिक और सामरिक बराबरी के लिए समय काटने के लिए 1,000 वर्ग किमी का कब्जा गंवा बैठना छोटी-सी कीमत ही है. परमाणु हथियारों और सीमित युद्ध के अनिश्चित परिणाम यही बताते हैं कि चीन-भारत सीमा को नए सिरे से नहीं खींचा जा सकता है. चुनौती यह है कि उसे अनुकूल शर्तों पर सीमांकित और रेखांकित किया जाए. 1959 में नेहरू यही कर सकते थे और अब मोदी भी यही कर सकते हैं.

यकीनन, 2014 के बाद से मोदी के दौर के अनुभव के मद्देनजर, मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि इतिहास नेहरू के साथ सहानुभतिपूर्वक न्याय करेगा. 2049 तक, जब चीन विराट महाशक्ति बनने का ख्वाब देख रहा है, भारत का राष्ट्रीय लक्ष्य उसकी प्रमुख चुनौती बनने की होनी चाहिए.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़े: चीन से बढ़ता खतरा! सेना और ज्यादा एंटी टैंक मिसाइल वाले M-4 बख्तरबंद वाहन खरीदने की तैयारी में

 

share & View comments