राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत देश के बेहतरीन वक्ताओं में से एक हैं. उनके बोलने का अंदाज़ सबसे अलग है. वे बहुत कुछ बोलकर भी कुछ न कहें और कभी बहुत कम बोलकर भी बहुत कुछ कह दें और यह सब बिना टेलीप्रॉम्प्टर के.
28 अगस्त को राजधानी दिल्ली में आरएसएस के तीन दिनी कार्यक्रम के अंतिम दिन उनकी यही दूसरी शैली देखने को मिली. सवाल पूछा गया था कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष की नियुक्ति में देरी क्यों हो रही है. भागवत ने जवाब दिया, “हम तय नहीं करते. हम तय करते, तो इतना समय लगता क्या?” इसके बाद उन्होंने मुस्कुराते हुए अंग्रेज़ी में कहा, “TAKE YOUR TIME” और “आराम से करिए.” यह सुनकर पूरा हॉल ठहाकों से गूंज उठा. सभी को समझ आ गया कि उनका संदेश किसके लिए था. भागवत असल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को यह जता रहे थे कि संघ कोई जल्दी में नहीं है और वे जितना चाहें उतना वक्त ले सकते हैं.
जेपी नड्डा का कार्यकाल, जिसे राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने बढ़ाया था, जून 2024 में समाप्त हो गया. तब से भाजपा अध्यक्ष का पद खाली है. पार्टी ने पिछले साल अपना सदस्यता अभियान पूरा किया था, लेकिन अब तक नई सदस्यता संख्या सार्वजनिक करने से बच रही है. 2019 में चले पिछले अभियान के बाद पार्टी ने जोर-शोर से 18 करोड़ सदस्यों का ऐलान किया था. नड्डा के उत्तराधिकारी को लेकर गतिरोध से ज़्यादा पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं को इस बात की खटक है कि शीर्ष नेतृत्व उन्हें भाजपा का हिस्सेदार ही नहीं मानता. कई नेताओं ने मुझसे बातचीत में कहा कि मोदी-शाह कम से कम पार्टी की संसदीय बोर्ड से नड्डा का कार्यकाल तब तक बढ़ा सकते थे, जब तक नए अध्यक्ष का चुनाव नहीं हो जाता. कुछ हफ्ते पहले भाजपा के एक पूर्व सांसद ने मुझसे कहा था, “मुझसे क्यों पूछ रहे हो? पार्टी तो दो लोगों की है. हम कौन होते हैं सवाल पूछने वाले?”
सोचिए, ऐसी पार्टी जिसके 18 करोड़ सदस्यों को ही नहीं पता कि उनके पास विधिवत चुना हुआ अध्यक्ष क्यों नहीं है और इससे भी ज़्यादा कि शीर्ष नेतृत्व उन्हें इतना अहम क्यों नहीं मानता कि उन्हें जानकारी दी जाए.
मोदी के बाद कौन?
तो आखिर भाजपा के अगले अध्यक्ष की नियुक्ति में देरी क्यों हो रही है? इसका जवाब तो हमें मालूम ही है. असली सवाल यह है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व और आरएसएस, नए अध्यक्ष के चुनाव को लेकर क्यों टकरा रहे हैं? नड्डा तो सिर्फ एक औपचारिक चेहरा ही थे, है ना? तो यह पद अचानक दोनों के लिए इतना अहम क्यों हो गया है? इसका जवाब पार्टी के भीतर चल रही एक और बड़ी बहस में छुपा है — यानी प्रधानमंत्री मोदी के उत्तराधिकारी का सवाल. आइए देखते हैं, यह बहस किस तरह आगे बढ़ रही है.
उत्तर-पूर्व दिल्ली के सांसद मनोज तिवारी ने पिछले हफ्ते मेरी सहयोगी नीलम पाण्डेय को दिए एक इंटरव्यू में बड़ा खुलासा किया. उन्होंने कहा कि नरेंद्र मोदी 2034 में भी भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे. वे आशान्वित थे कि मोदी अपना 2034 वाला कार्यकाल भी पूरा करेंगे — यानी 2039 तक. भाजपा सांसद ने यह भी कहा कि मोदी के बाद प्रधानमंत्री की कुर्सी पर अमित शाह बैठेंगे.
अमित शाह अपना 61वां जन्मदिन 22 अक्टूबर को मनाएंगे. मनोज तिवारी के अनुमान के हिसाब से शाह को प्रधानमंत्री बनने के लिए और 14 साल इंतज़ार करना पड़ सकता है. वे इंतज़ार कर भी सकते हैं, क्योंकि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने अब 75 साल की उम्र सीमा को मानो अप्रासंगिक बना दिया है.
मनोज तिवारी का कहना था कि अमित शाह के बाद योगी आदित्यनाथ और देवेंद्र फडणवीस प्रधानमंत्री बन सकते हैं, लेकिन अगर शाह एक कार्यकाल भी पूरा करते हैं — यानी 2044 तक तो तब तक योगी और फडणवीस की उम्र क्रमशः 72 और 74 साल होगी. हालांकि, वे रूस और चीन के राष्ट्रपतियों की हालिया बातचीत से थोड़ी हिम्मत ले सकते हैं, जिसमें शी जिनपिंग ने कहा था कि इंसान 150 साल तक जी सकता है और व्लादिमीर पुतिन ने कहा था कि इंसान शायद और जवान भी हो सकता है, यहां तक कि अमर भी.
मनोज तिवारी, जिन्होंने 2009 लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ के खिलाफ चुनाव लड़ा था और हार गए थे, असल में वही दोहरा रहे थे जो उनके साथी सांसद निशिकांत दुबे पहले ही कह चुके थे. दुबे ने एक पॉडकास्ट में कहा था कि अमित शाह की लोकप्रियता “कल्पना से परे” है और यूपी के लोग असल में मोदी को वोट देते हैं, योगी को नहीं.
शाह बनाम योगी की बहस चल रही है, लेकिन भाजपा के और भी कई महत्वाकांक्षी नेता शायद ऑस्कर-विजेता ऑपेनहाइमर फिल्म के किरदार लुईस स्ट्रॉस (जिनका किरदार रोल रॉबर्ट डाउनी जूनियर ने निभाया) की सीख ले रहे होंगे: “शौकिया लोग सूरज की तलाश में रहते हैं. जल जाते हैं. असली ताकत छाया में रहती है.” इंडिया टुडे के मूड ऑफ द नेशन सर्वे उन्हें सोचने का मौका दे सकते हैं. अगस्त 2024 के सर्वे में जब पूछा गया कि मोदी के भाजपा में कौन उत्तराधिकारी हो सकते हैं, तो 25% लोगों ने अमित शाह को चुना, 19% ने योगी आदित्यनाथ को, 13% ने नितिन गडकरी को और 5% ने शिवराज सिंह चौहान को.
एक साल बाद, अगस्त 2025 के सर्वे में, शाह की बढ़त थोड़ी और मजबूत हुई — 28% लोगों ने उन्हें मोदी का सबसे अच्छा उत्तराधिकारी बताया. वहीं योगी आदित्यनाथ को 26% समर्थन मिला, जो पिछले साल की तुलना में 7 अंक ज़्यादा है और अब शाह और उनके बीच का फासला सिर्फ 2 अंक का रह गया है. नितिन गडकरी को सबसे उपयुक्त मानने वालों का आंकड़ा गिरकर 7% पर आ गया. राजनाथ सिंह और निर्मला सीतारमण को 3-3% समर्थन मिला. मौजूदा हालात को देखते हुए यह मुकाबला सिर्फ दो घोड़ों के बीच लग रहा है और बाकी दावेदार शायद छाया में रहना ही बेहतर समझेंगे. उन्हें पता है कि यह एक लंबी दौड़ है और बहुत जल्दी दौड़ पड़ना समझदारी नहीं होगी.
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‘माहौल बनाना’
अब लौटते हैं असली सवाल पर: नड्डा के उत्तराधिकारी का चुनाव मोदी-शाह और आरएसएस के लिए इतना अहम क्यों है?
आरएसएस के लिए तो वजह साफ है. स्वयंसेवक और पूर्व प्रचारकों के सत्ता में आने से उसे बहुत फायदा हुआ, लेकिन सरकार और भाजपा दोनों में उसका वीटो पॉवर खत्म हो गया. प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता और अमित शाह की चुनावी रणनीतियों के चलते “सक्षम” भाजपा पूरी तरह आज़ाद रहना चाहती थी. नड्डा ने खुद भी यही संकेत दिए थे. अब संघ को फिर से पकड़ मजबूत करनी है और इसी वजह से अगला पार्टी अध्यक्ष कौन होगा, यह बेहद ज़रूरी हो जाता है. संघ चाहता है कि नड्डा का उत्तराधिकारी व्यक्तियों के बजाय विचारधारा और संगठन के प्रति वफादार हो.
दूसरी ओर, मोदी और शाह के लिए अगर पार्टी अध्यक्ष का दिमाग खुद का होगा और नागपुर स्थित संघ मुख्यालय से उसकी सीधी लाइन होगी, तो इसका मतलब होगा एक पैरलल पावर सेंटर का उभरना. नया भाजपा अध्यक्ष ऐसा क्या कर सकता है जो नड्डा ने नहीं किया या नहीं कर पाए? बहुत कुछ. पिछले कुछ हफ्तों में जिन भाजपा नेताओं से मेरी बात हुई, उन्होंने साफ कहा कि वे अब एक और “रबर स्टाम्प” अध्यक्ष नहीं चाहते.
मान लेते हैं कि अगला अध्यक्ष एक पुरुष नेता होगा. भाजपा में किसी महिला का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनना उतना ही मुमकिन है, जितना कि सोनिया गांधी का प्रियंका गांधी वाड्रा को कांग्रेस की पीएम उम्मीदवार घोषित करना. हालांकि, पीएम मोदी कभी भी सरप्राइज दे सकते हैं, लेकिन फिलहार के लिए हम यही मान लेते हैं. भाजपा नेताओं का मानना है कि नया अध्यक्ष भाजपा के भीतर “कांग्रेस संस्कृति” को उलट सकता है और इसे फिर से पार्टी विद ए डिफरेंस बना सकता है. वह फैसले लेने की प्रक्रिया को सलाह-मशविरा और लोकतांत्रिक बना सकता है. प्रमोशन और इनाम का आधार व्यक्तिगत वफादारी और चापलूसी के बजाय कामकाज और जवाबदेही को बनाया जा सकता है. किसी मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री या पार्टी पदाधिकारी की नियुक्ति किसी की व्यक्तिगत पसंद या नापसंद का मामला नहीं होना चाहिए.
नया अध्यक्ष लोकसभा और विधानसभा चुनावों में टिकट बांटने की प्रक्रिया को पारदर्शी बना सकता है. आज कई भाजपा नेताओं को लगता है कि पार्टी के इन-हाउस और किराए पर ली गई सर्वे एजेंसियों की रिपोर्टें, जिन्हें फीडबैक रिपोर्ट कहा जाता है, असल में कुछ नेताओं को टिकट न देने के लिए बहाना बन गई हैं. 2024 लोकसभा चुनाव में भाजपा ने कई मौजूदा सांसदों को टिकट नहीं दिया और उन सीटों में से कई पर हार भी मिली.
और भी बहुत सी बातों के अलावा, अगला भाजपा अध्यक्ष यह सुनिश्चित कर सकता है कि मोदी के उत्तराधिकारी को लेकर पार्टी में चल रही अमेरिकी शैली की प्राइमरीज़, मोदी के रिटायर होने से पहले ही खत्म हो जाएं. अभी देखें, जो भी “मोदी उत्तराधिकारी” माने जा रहे हैं — लखनऊ, मुंबई या कहीं और वे खुद को अपने ही घर में घिरा हुआ पा रहे हैं.
किसी भी संभावित मोदी उत्तराधिकारी के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि उसके वफादार लोग अहम पदों पर हों — केंद्रीय मंत्री, सांसद, मुख्यमंत्री, राज्य मंत्री, विधायक, राज्य भाजपा अध्यक्ष और अन्य पदाधिकारी. यही लोग “माहौल बनाने” में अहम भूमिका निभाएंगे और शायद आरएसएस के फैसले पर भी असर डालेंगे — जब भी मोदी के उत्तराधिकारी का चुनाव होगा. इसलिए, अगर आपके वफादारों को अहम जगहों पर बैठाना है, तो आपके पास एक वफादार राष्ट्रीय अध्यक्ष होना ही चाहिए. मामला और पेचीदा हो जाएगा, अगर खुद वही अध्यक्ष भी इस दौड़ में शामिल हो.
(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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