मायावती और मुलायम सिंह का 24 साल बाद फिर से एक मंच पर साथ-साथ आना यूपी ही नहीं भारतीय राजनीति के लिए एक महत्वपूर्ण घटना है. इसका असर न सिर्फ राजनीति पर, बल्कि समाज पर भी पड़ेगा क्योंकि ये दोनों पार्टियां दो अलग-अलग सामाजिक समूहों को प्रतिनिधित्व करती हैं और उनकी एकता से यूपी में दलितों और पिछड़ों के बीच नए सिरे से एकता बनेगी, जो 1995 में खंडित हो गई थी.
इन नेताओं की एकता के महत्व को समझने के लिए 1990 के दशक की शुरूआत के राजनीतिक घटनाक्रम पर एक नजर डालते हैं.
6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दिये जाने की नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने इस्तीफा दे दिया था. इसके एक साल बाद प्रदेश में चुनाव हुए विधानसभा चुनाव में सपा और बसपा ने गठबंधन किया और राम लहर के उस दौर में भी बीजेपी को रोक दिया. उस विधानसभा चुनाव में लगा नारा, ‘मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम’ आज भी लोगों के जेहन में तरो ताजा है.
सपा-बसपा गठबंधन सरकार 1995 तक चली. बीजेपी ने अपना समर्थन देकर इसके बाद मायावती की सरकार बनवा दी और कुछ ही दिनों बाद समर्थन लेकर उनकी सरकार गिरा दी. इसके बाद उस समय के प्रमुख बीजेपी नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि- हमने कांटे से कांटे को निकाला और दोनों कांटे फेंक दिए.
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अब उस घटना के 24 साल बाद न सिर्फ सपा और बसपा साथ आए हैं, बल्कि मायावती और मुलायम सिंह ने भी इतने साल बाद पहली बार मैनपुरी की चुनाव सभा में मंच साझा किया. 19 अप्रैल 2019 की इस सभा को इस मायने में ऐतिहासिक करार दिया जा सकता है कि लंबे अरसे बाद यूपी की दो सामाजिक शक्तियों दलितों और पिछड़ों के प्रतिनिधित्व की दावा करने वाली दो पार्टियां फिर से करीब आई हैं.
अगर मैनपुरी रैली के विजुअल मैसेज तो देखें, तो मंच पर सपा और बसपा दोनों के झंडे-बैनर लगे थे. सुनने वाले भी सपा और बसपा दोनों के झंडे लेकर आए थे और लाल और नीली टोपियां पहने हुए थे. जैसा कि दलित दस्तक के संपादक अशोक दास कहते हैं कि मंच पर माहौल बहुत पारिवारिक था. सभी बहुत अनौपचारिक तरीके से एक दूसरे से मिल रहे थे. उनके बॉडी लैग्वेंज में एक गर्मजोशी थी. इस बात को सबने नोट किया बैठने के लिए मायावती को सबसे महत्वपूर्ण बीच की कुर्सी दी गई. मंच की व्यवस्था पूरी तरह अखिलेश यादव के कंट्रोल में थी और उन्होंने मायावती को सभा की मुख्य अतिथि के तौर पर संबोधित किया. तीनों नेताओं ने सामंजस्य भरा भाषण दिया और कटुता बढ़ाने वाली कोई बात नहीं की.
सपा और बसपा तथा आरएलडी की एकता का राजनीतिक तौर पर क्या असर होगा, ये चुनाव नतीजों के दिन पता चलेगा. विश्लेषक इस बारे में अलग-अलग राय रखते हैं. कुछ मानकर चल रहे हैं कि ये गठबंधन अपने आप में कोई जादू नहीं कर पाएगा. वहीं विश्लेषकों की एक श्रेणी मानती है कि सपा और बसपा के साथ आने के बाद इस बार भी बीजेपी हवा में उड़ जाएगी.
अगर ये एकता मजबूत होती है तो भारतीय राजनीति और समाज के दो सबसे महत्वपूर्ण हस्तियों बाबा साहेब आंबेडकर और राममनोहर लोहिया के सपनों को पूरा करने का रास्ता भी खुल सकता है. जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है कि ये दोनों नेता जीवन के संध्या काल में साथ मिलकर काम करने की योजना बना रहे थे. लेकिन बाबा साहेब की असमय मौत ने दोनों को साथ मिलकर काम करने का मौका नहीं दिया और लोहियावाद और आंबेडकरवाद का कोई साझा प्रयोग नहीं पाया.
दोनों नेताओं की वैचारिक समानता की बात करें तो दोनों आधुनिक चिंतक हैं और लिबरल डेमोक्रेट माने जाते हैं. ये दोनों नेता संपूर्ण राष्ट्र के लिए चिंतन करते हुए जाति मुक्ति को एक अनिवार्य कार्यभार की तरह लेते हैं और मानते हैं कि जाति के अंत के बिना भारत सही मायने में राष्ट्र नहीं बन सकता. दोनों इस बात पर सहमत हैं कि जातियों के रहते हुए समानता की बात करना निर्थक है. लोहिया अपनी किताब भारत में जातिवाद और आंबेडकर अपनी किताब ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ में यह व्याख्या देते हैं कि जन्म के आधार पर पेशों के निर्धारण ने भारतीय अर्थव्यवस्था को गतिहीन बना दिया है. दोनों की राय में जाति अनैतिक है और इसका अंत हो जाना चाहिए. दोनों में जाति व्यवस्था के विनाश के तरीकों को लेकर असमानताएं भी हैं. लेकिन दोनों साथ मिलकर काम करने की संभावनाएं तलाश रहे थे.
दोनों के बीच आखिरी समय में हुए पत्राचार का ब्यौरा आप दिप्रिंट के एक पुराने आलेख लोहिया और आंबेडकर का अधूरा एजेंडा क्या माया-अखिलेश करेंगे पूरा ? में आप पढ़ सकते हैं.
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कहना मुश्किल है कि सपा और बसपा की ये दोस्ती एक फौरी राजनीतिक मकसद से हुई है या इसका कोई वैचारिक आधार भी है. फिलहाल जो राजनीतिक स्थिति है, उसमें माना जा सकता है कि अगर लोकसभा चुनाव में दोनों दल बेहतर परफॉर्म करते हैं, तो ये दोस्ती यूपी के अगले विधानसभा चुनाव तक और आगे भी जारी रह सकती है.
इस गठबंधन का भविष्य चाहे जो हो, लेकिन फिलहाल तो इसने वंचित जातियों में उम्मीद पैदा की है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )