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Saturday, 2 November, 2024
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केरल में पिनरई विजयन के नेतृत्व वाली LDF की वापसी की संभावना से क्यों चिंता में है उदारवादी

केरल में एलडीएफ शासनकाल ने मुख्यमंत्री के आसपास कभी इस तरह का व्यक्तित्व नहीं गढ़ पाया है. विजयन के विरोधी तो उनकी तुलना मोदी से करने की हद तक पहुंच गए हैं.

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केरल में 6 अप्रैल को होने जा रहे विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार के जोर पकड़ने के साथ ही पिछले कुछ दिनों से उदारवादी बुद्धिजीवियों के एक वर्ग के बीच ‘वामपंथियों के चुनाव जीतने से सावधान रहें’ का सुर छेड़ना एक फैशन बन गया है. चरम पर पहुंचे चुनावी अभियान के बीच कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा और भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के नेताओं द्वारा ऐसे दावे किए जाने की बात तो समझ आती है. लेकिन उदारवादी वर्ग ऐसा क्यों कर रहा है?

मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने अपने पांच साल के वाम शासन के दौरान बाजार अर्थव्यवस्था के साथ केरल के संबंधों को मजबूत करने की कोशिश कर तमाम लोगों को टोनी ब्लेयर की न्यू लेबर और पश्चिम बंगाल में बुद्धदेव भट्टाचार्य के शासन की याद दिला दी है. लेकिन बात सिर्फ इतनी ही नहीं है. उनके एक सत्तावादी नेता के तौर पर उभरने की वजह से भी लोग उन्हें ‘मुंडू उदुथा मोदी’ या ‘धोती वाला मोदी’ कहकर निशाना बना रहे हैं.

वामपंथी मोर्चे की वापसी को लेकर उदारवादी वर्ग की बेचैनी इसलिए बढ़ गई है क्योंकि ज्यादातर चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों का अनुमान है कि माकपा के नेतृत्व वाला वाम लोकतांत्रिक मोर्चा राज्य में सत्ता विरोधी माहौल को दरकिनार करके चुनाव में फिर जीत हासिल करेगा. केरल के पिछले 44 सालों के चुनावी इतिहास में किसी सत्तारूढ़ मोर्चे के फिर सत्ता में वापसी करने जैसी सफलता की बात तो कभी सुनी ही नहीं गई है.


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वामपंथी रणनीति

हाई वोल्टेज चुनावी अभियान का नेतृत्व कर रहे मुख्यमंत्री विजयन को भाजपा का मुकाबला करने में सक्षम एक दृढ़ इच्छाशक्ति वाले नेता के साथ विकास के मसीहा के रूप में पेश किया जा रहा है.

एलडीएफ का मुख्य राजनीतिक हथियार केरल का धर्मनिरपेक्ष ताना-बाना तोड़ रही भाजपा की हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता के खिलाफ खुद को एकमात्र मजबूत ताकत के रूप में पेश करना है. इस सारे कथानक के बीच कांग्रेस को नरम हिंदुत्व के अपने ब्रांड के साथ भाजपा के नक्शेकदम पर चलने वाली पार्टी बताया जा रहा है. एलडीएफ के चुनावी अभियान की एक और खासियत यह है कि धर्मनिरपेक्षता की बात को एकदम योजनाबद्ध तरीके से सत्तारूढ़ सरकार की उपलब्धियों वाले रिपोर्ट कार्ड के साथ विकास के एजेंडे के नीचे दबा दिया गया है.

शासन व्यवस्था की बात करें तो बुनियादी स्तर पर पिनरई विजयन और एलडीएफ की विकास-परक छवि काफी मजबूत नज़र आती है जो कोविड-19 महामारी का मुकाबला करने के अलावा राज्य में आई अभूतपूर्व प्राकृतिक और अन्य आपदाओं से निपटने में नज़र आए नेतृत्व कौशल से भी जाहिर है. सरकारी स्कूल भवनों में डिजिटल-कक्षाओं के लिहाज से निर्माण, आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित सरकारी अस्पताल और काफी समय से लंबित कुछ बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट पूरे होना एलडीएफ सरकार की कुछ प्रमुख उपलब्धियों में शामिल हैं.

गेल की एक अंतरराज्यीय पाइपलाइन और 400 केवी की ग्रिड लाइन कुछ ऐसे प्रोजेक्ट में शामिल हैं, जिन्हें स्थानीय स्तर पर विरोध के बीच पूरा किया जाना सिर्फ और सिर्फ पिनरई विजयन द्वारा पूरा ध्यान केंद्रित किए जाने के कारण ही संभव हो पाया.

राज्य में 85 लाख राशन कार्डधारियों को आवश्यक वस्तुओं से भरी किट का वितरण इस सरकार का एक मास्टरस्ट्रोक रहा है क्योंकि इसने लॉकडाउन के दौरान केरल में लगभग सभी घरों में बुनियादी स्तर पर भोजन उपलब्ध होना सुनिश्चित किया. शुरुआती चरण में कोरोनावायरस पर काबू पाने में मिली सफलता ने भी ऐसे समय पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकार की छवि को मजबूत किया, जब अमेरिका जैसे विकसित देश भी संक्रमण और मौत के आंकड़े बढ़ने के दौर से गुजर रहे हैं. इसलिए, प्रशासन सूचकांक के मोर्चे पर एलडीएफ निश्चित तौर पर जीत की राह पर है, भले ही विपक्षी दल कांग्रेस और भाजपा दावों पर सवाल उठा रहे हों.


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अधिनायकवादी अहंकार

हालांकि, सुशासन का दावा पिनरई विजयन के हाथों में अभूतपूर्व शक्तियों के निहित होने के आगे फीका पड़ गया है. केरल में एलडीएफ शासनकाल ने मुख्यमंत्री के आसपास कभी इस तरह का व्यक्तित्व नहीं गढ़ पाया है. विजयन के विरोधी तो उनकी तुलना मोदी से करने की हद तक पहुंच गए हैं.

सरकार और एकेजी सेंटर, माकपा का राज्य मुख्यालय के नायक और नेतृत्वकर्ता के रूप में विजयन ने पूरे पार्टी तंत्र को अपनी खुद की प्राथमिकताओं के अनुरूप ढाल लिया है. नव-उदारवादी नीतियों की घोर समर्थक गीता गोपीनाथ की मुख्यमंत्री की आर्थिक सलाहकार के रूप में नियुक्ति इसका एक अहम उदाहरण है कि विजयन माकपा की नीतियों और वामपंथी विचारधाराओं की ज्यादा परवाह न करते हुए अपने खुद के नीति-निर्माण तंत्र को आगे बढ़ा रहे हैं.

बहरहाल, गोपीनाथ ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) में मुख्य अर्थशास्त्री के तौर पर अपने चयन के बाद पद छोड़कर माकपा नेताओं को और ज्यादा आकुल होने से बचा लिया. कोई वामपंथी रुझान न रखने वाले सलाहाकारों के गुट से घिरे रहने वाले मुख्यमंत्री की अधिनायकवादी कार्यशैली ने विजयन प्रशासन को ऐसी श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है जो पूर्व में राज्य की एलडीएफ सरकारों से एकदम अलग है. विजयन को राज्य के आर्थिक विकास के नाम पर निजी क्षेत्र की पूंजी के इस्तेमाल को लेकर भी कोई हिचकिचाहट नहीं रही. उनकी सरकार की तरफ से अत्यधिक पूंजी-आधारित विकास की रणनीति अपनाना केरल के लिए पारिस्थितिक के अनुरूप सतत विकास मॉडल तैयार करने की जरूरत के एकदम उलट है.

इस पांच साल के शासनकाल के दौरान सबसे खराब ट्रैक रिकॉर्ड शायद पुलिस तंत्र का रहा है. पुलिस मुठभेड़ों में आठ संदिग्ध माओवादी कार्यकर्ताओं की मौत दर्शाती है कि राजनीतिक उग्रवाद के खतरों से निपटने के दौरान वाम-मोर्चा सरकार नियम-कानूनों के पालन को कम ही महत्व देती है. सत्तारूढ़ गठबंधन के दूसरे सबसे बड़े घटक भाकपा ने इन मुठभेड़ों की विश्वसनीयत पर संदेह जताया है, यहां तक कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने भी इन्हें जानबूझकर की गई हत्याएं करार दिया है. हिरासत में मौतों और उत्पीड़न के मामले बढ़ना भी यह बताता है कि राज्य में पुलिस प्रशासन को गहन आत्मनिरीक्षण की जरूरत है.


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एलडीएफ कठिन रास्ते पर चल रहा

इसमें कोई संदेह नहीं कि पार्टी के अंदर और बाहर भी पिनरई विजयन की कार्यशैली के तमाम प्रशंसक हैं. निश्चित तौर पर 2019 के लोकसभा चुनाव में करीब-करीब सफाया हो जाने के बाद एलडीएफ की किस्मत फिर से बदलने का श्रेय उन्हीं को जाता है, जब यूडीएफ ने राज्य की 20 में से 19 लोकसभा सीटें जीत ली थीं. 2019 के नतीजे बताते हैं कि राज्य की 140 विधानसभा सीटों में से 123 पर यूडीएफ आगे था. लेकिन 2020 के स्थानीय निकाय चुनावों में एलडीएफ ने शानदार जीत हासिल की और करीब 100 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त बनाने में कामयाब रहा. एलडीएफ की इस जीत ने सत्तारूढ़ गठबंधन के भी तमाम लोगों को हैरत में डाल दिया क्योंकि उस समय सोने की स्मगलिंग के मामले में प्रवर्तन निदेशालय की तरफ से विजयन के पूर्व प्रमुख सचिव के खिलाफ मामला दर्ज किए जाने के बाद मुख्यमंत्री का कार्यालय ही सवालों के घेरे में आ गया था.

केरल में सांप्रदायिक भाजपा और अवसरवादी कांग्रेस के बीच एकमात्र सुरक्षित विकल्प होने के माकपा के दावे को सत्तावादी अहंकार के आरोपों से घिरे सुशासन की कुछ बड़ी उपलब्धियों की पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए.

माकपा कैडर और समर्थकों का एक वर्ग मुख्यमंत्री की कार्यशैली को लेकर असंतुष्ट है और यह बात तब सामने आई जब पार्टी के बहुप्रचारित अनुशासन को धता बताते हुए कुछ विधानसभा क्षेत्रों में उतारे गए प्रत्याशियों के खिलाफ उन्होंने खुला विरोध जता दिया. इस विरोध के मद्देनजर पार्टी को कम से कम दो सीटों पर अपने प्रत्याशी बदलने को मजबूर होना पड़ा. यह इसका संकेतक है कि सबसे ज्यादा अनुशासित संगठन भी लोकप्रिय भावनाएं अनदेखी करने का जोखिम नहीं उठा सकता.

माकपा कैडर का यह विरोध प्रदर्शन उस चेतावनी के खिलाफ एक प्रतिरोधक के तौर पर भी काम कर सकता है कि एलडीएफ की जीत उसके प्रशासन को निरंकुश बना देगी. वैसे भी, माकपा और एलडीएफ को हमेशा ही कांग्रेस और यूडीएफ की तुलना में कम बुरे होने का राजनीतिक लाभ मिलता रहा है, जिन्हें अवसरवाद, वैमनस्यता और प्रशासनिक अक्षमता के जैसे बेहद घटिया किस्म के आरोपों का सामना करना पड़ा है.

आगामी विधानसभा चुनाव में एलडीएफ की जीत की संभावना काफी हद तक शासन क्षमता को रेखांकित करते हुए पिनरई विजयन की सत्तावादी नेता की छवि को सफलतापूर्वक भुनाने पर निर्भर करेगी.

(लेखक एक पत्रकार और डेक्कन क्रॉनिकल के पूर्व वरिष्ठ संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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