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Tuesday, 7 May, 2024
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कैसे मोदी सरकार पुराने भारत में एक न्यू इंडिया का निर्माण कर रही है

लेकिन हमेशा से जो जाना-पहचाना भारत है वह हर कदम पर सामने आकर खड़ा हो जाता है और ‘इंडिया के नये आइडिया’ को ठोस रूप देने की महत्वाकांक्षा के लिए एक समस्या बन जाता है.

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भारत में इन दिनों निर्माण का ज़ोर है. हाइवे, एक्सप्रेसवे, तेज गति वाले माल ढुलाई कॉरीडोर, समुद्र पर पुलों, समुद्रतटीय फ्रीवे, बड़े शहरों में मेट्रो, बुलेट ट्रेन, नये कल्पित रेलवे स्टेशनों से इंटर सिटी सफर के साधनों, गहरे समुद्रों में बन्दरगाहों, हवाई अड्डों आदि-आदि के निर्माण पर ज़ोर है. सूची लंबी और प्रभावशाली है. अगर सब कुछ योजना और समय के हिसाब से होता तो देश के 75वें स्वतंत्रता दिवस तक इसका नक्शा बदल जाता. लेकिन अब थोड़ा लंबा समय लगेगा.

फिर भी, तीन बार विफल शुरुआत के बाद मुंबई को मुख्य भूमि स्थित दो शहरों से जोड़ने वाले ट्रांस-हार्बर लिंक का निर्माण अंततः शुरू हो गया है. चिनाब पर दुनिया का सबसे ऊंच पुल बनकर तैयार होने वाला है. हिमालय के दर्रों में हर मौसम के लिए उपयोगी सुरंगों की खुदाई हो चुकी है. ब्रह्मपुत्र पर बने नये पुलों को खोल दिया गया है. डेढ़ किलोमीटर लंबी तेजरफ्तार मालगाड़ियों का, जिनमें दो मंजिले कंटेनर लगे होते हैं, नये फ्रेट कॉरीडोर पर छोटी दूरी तक एक्सप्रेस सवारी रेलगाड़ियों से ज्यादा गति से चलाकर परीक्षण किया गया है. इसके साथ, मुंबई-दिल्ली औद्योगिक कॉरीडोर में उभर रहे ढोलेरा जैसे नये तरह के शहरी केंद्र को भी जोड़ा जा सकता है. उधर गुजरात की ‘गिफ्ट सिटी’ का आसमान बदल रहा है और कंपनियों की बढ़ती संख्या यही बताती है कि एक विचार अंततः अपने परिणाम दे रहा है.

भौगोलिक स्वरूप में परिवर्तन के साथ दूसरे परिवर्तनों की भी तैयारी की गई है. बैंक खातों, रसोई गैस, शौचालय, और स्वास्थ्य बीमा के बाद अब नलों से पानी, और बिजली की बारी है. कोयला की जगह अक्षय ऊर्जा (राजस्थान के रेगिस्तानों पर सौर पेनेलों), बिजली से चलने वाले नये वाहनों के उपयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है. अगर कहा जाए तो ‘इंडिया का नया आइडिया’ ठोस रूप लेकर नागरिकों को, उन्हें भी जो निराश हैं कि खेती से आय वादे के मुताबिक दोगुनी नहीं हो रही या जीडीपी में मैनुफैक्चरिंग का योगदान न बढ़ने से रोजगार के लाखों अवसर नहीं पैदा हो रहे हैं, आश्वस्त करेगा कि आज़ाद देश के प्लेटिनम जुबली साल में जश्न मनाने के लिए कुछ तो होगा.


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इस बीच, 2030 और इससे आगे के लिए जो महत्वाकांक्षी घोषणाएं की जा रही हैं और इनमें जितना पैसा खर्च होने वाला है, उस सबके आंकड़े हैरतअंगेज हैं. अब बुलेट ट्रेन को केवल मुंबई-अहमदाबाद के बीच ही नहीं, सात रूटों पर चलाने की योजना है. आठ और उससे ज्यादा लेन वाले सिग्नल-फ्री एक्सप्रेसवे 18,000 किमी की यात्रा में समय की बचत कराएंगे. चार लें वाले हाइवे अधिकतर जिला मुख्यालयों को आपस में जोड़ेंगे, और तेजरफ्तार इंटर-सिटी ट्रेनें हर दिशा में दौड़ेंगी. खर्च? ~2 ट्रिलियन इसमें, ~20 ट्रिलियन उसमें, ~50 ट्रिलियन तीसरी परियोजना में, ~70 ट्रिलियन चौथी में. ~200 ट्रिलियन वाली अर्थव्यवस्था केवल ट्रिलियनों की ही बात करती है.

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आप कह सकते हैं कि यह सब वाजपेयी सरकार के गोल्डन चतुर्भुज कार्यक्रम से शुरू हुआ, इसके बाद मनमोहन सिंह सरकार ने ‘ग्रीन’ ऊर्जा को बढ़ावा देने, माल ढुलाई कॉरीडोर, और प्रथम बुलेट ट्रेन सेवा का विचार दिया. लेकिन बेशक मोदी सरकार ने ही बुनियादी ढांचे में निवेश और जनकल्याण योजनाओं को मौजूदा महत्वाकांक्षी स्तर पर पहुंचाया है.
फिर भी, हमेशा से जो जाना-पहचाना भारत है वह हर कदम पर सामने आकर खड़ा हो जाता है. केंद्र-राज्य के झगड़े, भूमि अधिग्रहण पर पर्यावरणवादियों की आशंकाएं और आपत्तियां, परियोजनाओं को लागू करने में पुरानी सुस्ती अधिकतर परियोजनाओं को प्रभावित करती रही हैं. मुंबई को ही लें, तो वहां नया हवाई अड्डा, नया उत्तर-दक्षिण मेट्रो लाइन, समुद्रतटीय सड़क, बुलेट ट्रेन के लिए टर्मिनस, और ट्रांस-हार्बर लिंक के निर्माण की योजना है. इस बीच, सभी ग्राम पंचायतों को ब्रॉडबैंड लिंक से जोड़ने की परियोजना अभी आधी भी नहीं पूरी हुई है.

नौसेना के पोत निर्माण की तरह, किसी भी बड़ी परियोजना को प्रारम्भिक विचार के स्तर से लेकर अंतिम स्तर तक पहुंचाने में 20 साल लग जाते हैं, बजाय इसके कि उन्हें इससे आधे समय में पूरा किया जाए. यह स्पष्ट कर देता है कि प्रधानमंत्री नौकरशाही से निराश क्यों हैं. उनके मंत्रीगण अधिकारियों पर अपना गुस्सा निकालते रहते हैं. लेकिन महत्वाकांक्षा की अति भी एक समस्या बन जाती है. जैसे ‘ग्रीन’ ऊर्जा अभियान के ऊंचे लक्ष्य हासिल नहीं किए जा सकते हैं.

अंत में, अपरिहार्य प्रश्न तो यही है कि पैसे कहां हैं? लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था ने सरकार को राजस्व से, और निजी क्षेत्र को सरप्लस से वंचित किया है. विशेष मकसद के लिए अलग-अलग कंपनियां बनाई गई है, लेकिन राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण कर्ज में और असंख्य अधूरी परियोजनाओं में गले तक डूबा हुआ है. रेलवे का लाल स्याही का सामना हो चुका है और वित्तीय घाटा बॉन्ड मार्केट को चोट पहुंचा रहा है. परिसंपत्तियों को पैसे में बदलो, यह नया मंत्र है. लेकिन इसका मजा तब महसूस होगा जब आप बिक्री पर उतर आएंगे.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए क्लिक करें)


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