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Friday, 27 December, 2024
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ऐसे तो कश्मीरी पंडित घाटी में कभी नहीं लौट पाएंगे

उनकी सार्थक ‘वापसी’ तभी हो सकती है जब दक्षिण अफ्रीका की तर्ज पर सच्चाई और सुलह का विचार लागू किया जाएगा.

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इस साल 2 अगस्त को जम्मू-कश्मीर की राष्ट्रपति शासन वाली सरकार ने सालाना अमरनाथ यात्रा को रद्द करने की घोषणा कर दी. उसने कहा कि ‘खुफिया सूचनाएं मिली थीं कि अमरनाथ यात्रा को आतंकवादी हमले का निशाना बनाया जा सकता है’. यह पहला मौका है जब इस पूरी यात्रा को ही रद्द कर दिया गया. यानी सुरक्षा की स्थिति सचमुच, सचमुच खराब रही होगी.

लेकिन मोदी सरकार के लिए सुरक्षा की स्थिति इतनी अच्छी थी कि वह अनुच्छेद 370 और 35ए को रद्द कर सके, राज्य को दो केंद्रशासित क्षेत्रों में बांट सके, और सैकड़ों भारत समर्थक राजनीतिकर्मियों को जेल में डाल दें.

इस परस्पर विरोधी बात से आप यही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि मोदी सरकार जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक हैसियत को आमूल बदल डालने की जबरदस्त राजनीतिक हड़बड़ी में थी, और इसी घोर जल्दबाज़ी में उसने अमरनाथ यात्रा भी रद्द कर दी. लेकिन किसी भी- जी हां एक भी- हिंदू ने इस पर हो-हल्ला नहीं मचाया कि हिंदू भावनाओं को चोट पहुंचाई गई है. जरा कल्पना कीजिए कि कांग्रेस की किसी सरकार ने राजनीतिक वजह से ऐसा किया होता तो क्या कहर टूटता.

कश्मीरी पंडितों के मसले पर राजनीतिक बहस भी इसी तरह राजनीतिक पाखंड से भरा है.

न्यूयॉर्क में भारत के वाणिज्यदूत संदीप चक्रवर्ती का एक वीडियो आया है जिसमें वे कश्मीरी पंडितों के एक समूह को संबोधित करते नज़र आते हैं. गलतबयानी करने के बाद लोग आम तौर पर जो करते हैं उसी लीक पर चलते हुए उन्होंने सफाई दी है कि उनके बयान को ‘संदर्भ से काट कर’ दिखाया गया है. दरअसल, चक्रवर्ती ने ऐसी कई बातें कही है जो या तो तथ्यात्मक रूप से गलत हैं या कश्मीर के इतिहास और उसकी संस्कृति के बारे में उनकी अज्ञानता को ही उजागर करती हैं.

हम यहां एक-एक कर इसे उठाएंगे.

वे ‘तम्बू’ जो कहीं दिखते नहीं

पहली बात तो वे यह कहते हैं कि ‘मुझे विश्वास है कि अपनी ज़िंदगी में ही हम अपनी जमीन वापस हासिल कर लेंगे, हमारे लोगों को लौटना ही पड़ेगा क्योंकि हर कोई अमेरिका में नहीं रह सकता. हमारे कश्मीरी पंडित भाई जम्मू में, दिल्ली में सड़कों पर तंबुओं में रह रहे हैं…’


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किसी झूठ को हज़ार बार बोलो तो उसे सच माना जाने लगता है. इसलिए, मुमकिन है कि चक्रवर्ती इस सच में विश्वास करते होंगे कि कश्मीरी पंडित अभी भी तंबुओं में, सड़कों पर रह रहे हैं. अगर तथ्य की बात करें, तो ऐसा है नहीं. जम्मू और दिल्ली, दोनों जगहों पर उन्हें ठीकठाक मकानों में भेज दिया गया है. और यह अधिकांश काम कांग्रेस के शासन में हुआ. लोगों को यह तब पता चलता जब कांग्रेस अपनी उपलब्धियों का वैसे ही ढिंढोरा पीटती जैसे भाजपा पीटती है.

फिर भी, ‘तंबू’ शब्द की रट जारी रहेगी क्योंकि इसके बिना आप यह कैसे दावा करेंगे कि आपको सताया जा रहा है? उदाहरण के लिए, आप ‘इंडिया टुडे’ में पूजा शाली की उस रिपोर्ट को ले सकते हैं जिसमें कहा गया है कि ‘जगटी शरणार्थी शिविर में रह रहे कश्मीरी पंडितों ने राज्य के विशेष दर्जे को खत्म करने के मोदी सरकार के फैसले की तारीफ़ की है.’ यहां जानबूझकर इस महीने झूठ का सहारा लिया गया है कि जगटी एक शरणार्थी शिविर है, ‘बस्ती’ नहीं है. यहां फोटो में आप जगटी अपार्टमेंट का प्रवेशद्वार देख सकते हैं. जिन लोगों को पता नहीं है कि एक शिविर क्या चीज़ है, उनके लिए यहां वह फोटो दिया जा रहा है जिसमें आप देख सकते हैं कि कश्मीरी पंडित कभी शरणार्थी शिविर में कैसे रहते थे.

इसी तरह, दिल्ली में शरणार्थी कश्मीरी पंडितों को रहने के लिए फ्लैट दिए जा चुके हैं. अब उनके आकार और रखरखाव को लेकर सवाल उठाए जा सकते हैं, लेकिन तथ्य यह है कि वे शिविर नहीं हैं. और, सड़कों पर तो कोई भी नहीं रह रहा है.

जरूरत से ज्यादा खौफ

अब जबकि फ्लैट और शिविर का फर्क साफ हो चुका है, हम चक्रवर्ती के दूसरे दावे की जांच कर सकते हैं. उनका दावा है कि कश्मीरी पंडित खौफ की वजह से कश्मीर घाटी में नहीं लौट रहे हैं. वीडियो में उन्हें यह कहते सुना जा सकता है कि ‘आप अपनी ज़िंदगी को खतरे के खौफ के कारण वहां नहीं जाना चाहते, लेकिन यह खौफ दूर हो जाएगा.’

अगर शरणार्थी कश्मीरी पंडित खौफ के चलते कश्मीर में रहने नहीं जा रहे हैं, तो फिर कश्मीरी पंडितों के 808 परिवार (करीब तीन-चार हज़ार लोग) घाटी में 292 जगहों पर कैसे रह रहे हैं? यह आंकड़ा कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के संजय टिक्कू ने, जो श्रीनगर में रहते हैं, जुटाई है. अगर खौफ ही वजह है तो हजारों कश्मीरी पंडित छुट्टियों पर या निजी दौरे पर या तुलमुल्ला में सालाना खीर भवानी उत्सव पर घाटी क्यों जाते हैं?


यह भी पढ़ें : संदीप चक्रवर्ती ने कश्मीरी पंडितों की वापसी के लिए इजरायली मॉडल अपनाने की दी सलाह, विवाद शुरू


कश्मीरी पंडितों का निष्कासन बेशक क्रूरतापूर्ण और अमानवीय था, मगर उनका शरणार्थी होना एक पेचीदा मामला है. शरणार्थी कश्मीरी पंडित भौतिक रूप से अपने पुराने घरों में लौट सकते हैं मगर वे गुजर चुके वक़्त में नहीं लौट सकते. संकल्पवान, शिक्षित, एकजुट शरणार्थी कश्मीरी पंडित शिक्षा और रोजगार हासिल कर चुके हैं और आज पूरे भारत और दुनिया भर में फैल चुके हैं. क्या किसी शरणार्थी कश्मीरी पंडित का बेटा या बेटी, जो कोई कॉर्पोरेट जॉब कर रही है, पुराने शहर श्रीनगर के अपने पुश्तैनी घर में लौटना चाहेगी? कोई मुंबई में अपना कॉर्पोरेट जॉब क्यों छोड़ेगा जब तक कि उसे श्रीनगर में वैसी ही नौकरी न मिले?

कश्मीर के रिटायर्ड इंग्लिश लेक्चरर अरविंद गिगू आज अपनी पत्नी के साथ जम्मू में एक फ्लैट में रह रहे हैं. 1991 में निष्कासन के बाद वे जम्मू आ गए थे. जम्मू और दिल्ली में 2010-12 के बीच हुई मुलाकातों में मैंने उनसे पूछा कि वे लौटकर श्रीनगर में रहने के बारे कभी क्यों नहीं सोचते, तो उन्होंने कहा था कि उनके सारे दोस्त आज जम्मू में ही हैं. इसी वजह से वे अपने लेखक बेटे सिद्धार्थ टिक्कू के साथ दिल्ली में नहीं रहते. कई वर्षों बाद अरविंद जब श्रीनगर गए तो खुद को वहां अजनबी महसूस करने लगे क्योंकि वे अब वहां किसी को जानते नहीं थे. लोग बाहर बस जाते हैं, फिर मर जाते है, यह सिलसिला चलता रहता है. कश्मीरी भाषा में किसी पंडित को बोलते देख युवा उसे पौराणिक युग का अपवाद मानने लगते हैं. लेकिन अगर वे श्रीनगर लौटकर वहां बसना नहीं चाहते तो इसकी सबसे अहम वजह है- सुविधा, आराम, पुराना घर, पुराने ढंग का रहन-सहन, पुराने किस्म के गुसलखाने, गंदी पुरानी गलियां… जम्मू के ज्यादातर आधुनिक घर उन्हें ज्यादा सुविधाजनक, आरामदेह लगते हैं. आखिर उन्होंने श्रीनगर का घर बेच दिया. यही कई पंडितों ने किया है.

इसलिए, जब हम पंडितों की ‘वापसी’ की बात करते हैं तब हमें भौतिक पुनर्स्थापन के बारे में नहीं सोचना चाहिए. कश्मीरी पंडित 1989 के पहले वाले कश्मीर नहीं लौट सकते क्योंकि आज वह वजूद में है ही नहीं.

इजरायली मॉडल बनाम भारतीय मॉडल

अब जबकि हमने इस झूठ का पर्दाफाश कर दिया है कि असुरक्षा के डर के कारण कश्मीरी पंडित घाटी में नहीं लौट रहे, हम संदीप चक्रवर्ती के इजरायली मॉडल पर नज़र डालें जिस पर श्रोताओं ने खूब तालियां बजाईं. यह मॉडल पंडितों के लिए एक विशेष एनक्लेव बनाने की बात करता है. यानी, एक हिंदू कश्मीर बनेगा और एक मुस्लिम कश्मीर बनेगा, जिनके बीच एक सीमा रेखा होगी क्योंकि हम मोहम्मद अली जिन्ना को गर्व करने लायक नहीं मानते रहे हैं.

यह आइडिया पुराना है, जिस ‘पन्नुन कश्मीर’ के नाम से जाना जाता था. गौरतलब है कि भाजपा ने कभी इसका समर्थन नहीं किया, हालांकि यह कोई नहीं जानता कि मोदी-शाह की भाजपा इसके बारे में क्या सोचती है. अनुच्छेद 35ए को रद्द करने के बाद मोदी सरकार ने ऐसा कोई आश्वासन नहीं दिया है कि वह घाटी में भारतीयों को नहीं बसाएगी. इसलिए, अगर इरादा घाटी के आबादी के स्वरूप को बदलने (इन दिनों सतही विचारों की जिस तरह बाढ़ है उसे देखते हुए आप कुछ नहीं कह सकते कि क्या हो जाए) का है तो हम इजरायली मॉडल नहीं बल्कि चीनी मॉडल की ओर बढ़ रहे हैं.

लेकिन एक भारतीय मॉडल भी है, जिसे हम भूले बैठे हैं. यह मॉडल उसी दिन खत्म हो गया था जिस दिन जवाहरलाल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार किया था. और इसे फिर से जिंदा करने का वक़्त शायद बहुत पहले ही बीत चुका है. भारतीय मॉडल ‘अखंडता’ पर ज़ोर देता है. कश्मीरी पंडितों की घाटी में सार्थक ‘वापसी’ का एक ही रास्ता है- पंडितों और मुसलमानों के बीच के संदेहों और अविश्वासों को दूर किया जाए. यह सच्चाई और सुलह के दक्षिण अफ्रीकी मॉडल को अपना कर किया जा सकता है.


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लेकिन मोदी तंत्र के लिए तो कश्मीरी मुसलमानों की भावनाएं, संवेदनाएं, उम्मीदें कोई मायने नहीं रखतीं. इस तरह की कोई पेशकश की भी नहीं गई है.

‘कश्मीरी संस्कृति हिंदू संस्कृति है’

एक भारतीय राजनयिक के नाते देखें, तो संदीप चक्रवर्ती का अल्पज्ञान शर्मिंदगी भरा है. उनका यह बयान कश्मीरी संस्कृति के बारे में उनकी नासमझी को ही उजागर करता है कि ‘हम सबको कश्मीरी संस्कृति को जिलाए रखना है. कश्मीरी संस्कृति भारतीय संस्कृति है, हिंदू संस्कृति है. मैं खुद को उतना ही कश्मीरी महसूस करता हूं जितना और कोई करता होगा.’

कश्मीरी संस्कृति क्या है,क्या थी यह जानने के लिए उन्हें गूगल पर यह लेख पढ़ना चाहिए कि एक कश्मीरी परिवार अमरनाथ यात्रा के केंद्र में क्यों है. उन्हें ‘कश्मीरियत’ पर (जिसे आज खारिज कर दिया गया है), समन्वयवाद पर कुछ किताबें पढ़नी चाहिए. जी नहीं, कश्मीरी, हिंदू, और भारतीय, तीनों एक चीज़ नहीं हैं. ये एक साथ रह सकती हैं बशर्ते संदीप चक्रवर्ती जैसे लोग जिन्ना के नक्शे-कदम पर चलने की जगह अनेकता में एकता के नेहरूवादी विचार की खूबसूरती को समझ जाएं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(यह लेखक का निजी विचार है)

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1 टिप्पणी

  1. Business man keeps ladoo in both hands time to time they distribute them to top politician in center or State as per their own interests.

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