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Sunday, 3 November, 2024
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अग्निपथ विरोधी आंदोलनकारियों के घरों पर बुलडोजर क्यों नहीं चला रही है BJP सरकार

इस आंदोलन को सख्ती से कुचलने की बात इस समय कोई नहीं कर रहा है, जबकि इस आंदोलन में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई है. खासकर रेल और अन्य सरकारी संपत्तियों को काफी नुकसान हुआ है.

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नरेंद्र मोदी और उनसे भी ज्यादा योगी आदित्यनाथ अपने सख्त रवैये और कभी न झुकने वाली छवि के लिए जाने जाते हैं. चंद अपवादों को छोड़ दें तो दोनों ने अपने फैसले, विरोध के कारण नहीं बदले हैं. उन्होंने आंदोलनों, खासकर हिंसक आंदोलनों को सख्ती से दबाया है. लेकिन सेना में भर्ती की नई स्कीम अग्निपथ के खिलाफ देश के बड़े हिस्से में भड़के आंदोलन को लेकर इन दोनों नेताओं और बीजेपी की सरकारों का दूसरा ही रूप सामने आया है.

इस आंदोलन को सख्ती से कुचलने की बात इस समय कोई नहीं कर रहा है, जबकि इस आंदोलन में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई है. खासकर रेल और अन्य सरकारी संपत्तियों को काफी नुकसान हुआ है. दर्जनों जगहों पर रेलगाड़ियों को जलाया गया है और पुलिस पर पथराव हुए हैं. लेकिन सरकार का हाथ काफी नर्म है. वाराणसी के कमिश्नर सतीश भारद्वाज ने मीडिया से बात करते हुए कहा कि ‘ये हमारे ही बच्चे हैं इनको समझाने की ज़रूरत है.’

बेहद सख्त बयानों के लिए जाने जाने वाले यूपी के एडीजी (लॉ एंड ऑर्डर) प्रशांत कुमार ने कहा है कि सीनियर अफसर मौके पर हैं और ‘वे सभी विद्यार्थियों और अभ्यर्थियों को शांत करने की कोशिश कर रहे हैं.’ वीडियो फुटेज होने के बावजूद पुलिस, अनजान लोगों के खिलाफ मुकदमे दर्ज कर रही है.

सेना में भर्ती की अग्निपथ योजना की घोषणा रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने तीनों सेनाओं के प्रमुखों की उपस्थिति में की थी. संक्षेप में कहें तो ये योजना 17.5 से 21 साल तक के युवाओं के लिए है. फौज में भर्ती होने पर वे चार साल तक नौकरी कर पाएंगे. ये अग्निवीर कहलाएंगे. नौकरी में चार साल पूरी करने के बाद उनकी सेवाएं खत्म हो जाएंगी. बाद में योग्यता के आधार पर उनमें से एक चौथाई को सेना में पक्की नौकरी दी जाएगी. इस स्कीम के सैनिकों को पेंशन नहीं मिलेगी. सरकार ने बताया है कि इस साल 46,000 अग्निवीर भर्ती किए जाएंगे. इस योजना की घोषणा के बाद से ही देश के कई हिस्सों में आंदोलन शुरू हो गए. माना जा रहा है कि ये आंदोलन वे लोग कर रहे हैं, जिनके जीवन का सपना सेना में पक्की नौकरी करना है.

इस बीच सरकार और बीजेपी तमाम तरीके से आंदोलनकारियों को समझाने-बुझाने में जुटी है. ये समझाया जा रहा है कि ये योजना कितनी फायदेमंद है. स्कीम में कुछ संशोधन भी किए गए हैं. पहले ये योजना 21 साल तक के युवाओं के लिए ही थी. इस साल के लिए उम्र सीमा बढ़ाकर 23 साल कर दी गई है. इसके अलावा सेवा पूरी करने वाले अग्निवीरों के लिए केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों और असम राइफल्स में 10% आरक्षण लागू करने की घोषणा की गई है. उन्हें उम्र सीमा में भी तीन साल की छूट दी जाएगी. सरकार इस विशेष मामले में अड़ियल या सख्त नजर नहीं आ रही है.

इस योजना के गुण और दोष पर विचार करना इस लेख का उद्देश्य नहीं है. बल्कि यहां ये समझने की कोशिश होगी कि इस योजना का विरोध करने वाले कौन लोग हैं और ऐसा क्या है कि सरकार इनके साथ सख्ती नहीं कर रही है या नहीं कर पा रही है.

इस आंदोलन के ताप और इसमें होने वाली हिंसा की प्रकृति लगभग तीन दशक पहले हुए आरक्षण विरोधी आंदोलन से मिलती जुलती है. 7 अगस्त 1990 को तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों में एक को लागू करने की घोषणा करते हुए केंद्र सरकार की 27 प्रतिशत नौकरियों को अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी के लिए आरक्षित कर दिया था. इसके खिलाफ उत्तर भारत में बड़े पैमाने पर हिंसा भड़क उठी, जिसमें रेल, बस और सरकारी इमारतों को मुख्य रूप से निशाना बनाया गया. ये आंदोलन वे सवर्ण युवा कर रहे थे, जिन्हें लग रहा था कि आरक्षण लागू होने से सरकारी नौकरियों के उनके अवसर कम हो जाएंगे.

मैं उस आंदोलन का दिल्ली में गवाह रहा हूं और मैने देखा है कि उस आंदोलन के प्रति पुलिस और प्रशासन का रुख कितना सहयोगी किस्म का था. आंदोलनकारी आश्वस्त थे कि पुलिस उनके साथ ज्यादा सख्ती नहीं करेगी और फायरिंग नहीं होगी. ये आत्मविश्वास आंदोलन के उग्रतर होते जाने की बड़ी वजह बना. पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों की नजर में ये “अपने बच्चे” थे. ये बात इसलिए भी स्पष्ट हो गई थी क्योंकि खुद केंद्र सरकार के कर्मचारी खुलकर प्रदर्शन कर रहे थे. मीडिया भी लगभग पूरी तरह से आंदोलन के समर्थन में था.

2022 में भी माहौल कुछ वैसा ही है. पुलिस पत्थर और मार खाकर भी शांत बनी हुई है या बल प्रयोग एक दायरे में ही किया जा रहा है.

इसकी तुलना अगर मोदी सरकार के काल में हुए अन्य आंदोलनों से करें तो 2018 में जब एससी-एसटी संगठनों और लोगों ने एससी-एसटी एक्ट को कमजोर किए जाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ आंदोलन किया तो पुलिस फायरिंग में कम से कम 11 लोग मारे गए थे. इसी तरह सीएए-एनआरसी और फिर बीजेपी की प्रवक्ता रही नूपुर शर्मा के बयान के बाद हुए आंदोलन पर पुलिस ने जबर्दस्त सख्ती की और तथाकथित साजिशकर्ताओं और आंदोलन में हिस्सा लेने वालों के घर और बिजनेस प्रतिष्ठान पर बुलडोजर चलवा दिया. ये चलन इतना चर्चित हुआ कि बुलडोजर को बीजेपी की प्रशासनिक सख्ती का प्रतीक मान लिया गया.


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अग्निपथ विरोधी आंदोलन पर बुलडोजर क्यों नहीं?

इसकी वजह शायद इस सवाल में हैं कि भारतीय सेनाओं में कौन हैं और कौन लोग इसमें भर्ती होते या किए जाते हैं. लेकिन इस बारे में आंकड़े उपलब्ध नहीं है कि सेनाओं की धार्मिक और सामाजिक संरचना क्या है. अमेरिका जैसे देशों में, जहां लोकतंत्र पुराना और स्थायी हो चुका है, वहां सेना अपनी सामाजिक संरचना की हर साल सार्वजनिक घोषणा करती हैं और इससे राष्ट्र की सुरक्षा को कोई खतरा नहीं होता. मिसाल के तौर पर हम सब ये जानते हैं कि 2020 में अमेरिकी रक्षा सेवाओं में 59 प्रतिशत श्वेत और 13 फीसदी ब्लैक थे. इसी तरह हम जानते हैं कि अमेरिकी रक्षा सेवाओं में हिस्पैनिक्स यानी लैटिनो, एशियन अमेरिकन और नेटिव अमेरिकन कितने हैं.

भारत में इस तरह की एकमात्र कोशिश यूपीए-1 के दौरान हुई थी, जब अल्पसंख्यकों की स्थिति जानने के लिए बनाई गई सच्चर कमेटी ने सेना में विभिन्न धर्म वालों की संख्या जानने की कोशिश की थी. लेकिन तब सेना ही नहीं, रक्षा मंत्रालय ने भी इस पहल को खारिज कर दिया. बीजेपी ने इसका विरोध किया था. तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटनी ने घोषणा की थी कि सेना में धर्म के हिसाब से गिनती की इजाजत नहीं दी जाएगी. इस तरह ये जानने का मौका चला गया कि भारतीय सेना कितनी समावेशी है. इसी तरह सेना की जातीय संरचना का भी आंकड़ा नहीं है, जबकि केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल में आरक्षण लागू किया जाता है और आंकड़ा भी रखा जाता है. सीमा के अग्रिम मोर्चे पर शांतिकाल में ये सशस्त्र बल ही तैनात होते हैं.

जिस तरह से और जिन लोगों ने सेना में धर्म आधारित आंकड़ा जुटाने का विरोध किया, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि सेना में मुसलमानों की संख्या शायद उनकी आबादी के अनुपात में कम है. टीवी और अन्य संचार माध्यमों में अग्निपथ विरोधी आंदोलनकारियों के जो बयान दिखाए जा रहे हैं, उसके आधार पर मैं ये अनुमान लगा रहा हूं कि इस आंदोलन में मुख्य रूप से हिंदू ही आगे हैं.

यहीं से बीजेपी की समस्या शुरू होती है. बीजेपी की पूरी राजनीति हिंदू-मुस्लिम द्वेत यानी बाइनरी पर आधारित है. बीजेपी मुख्य रूप से हिंदू आधार वाली पार्टी है. अगर आंदोलनकारी मुसलमान होते तो बीजेपी की सरकारों के लिए ये तय करना बेहद आसान होता कि उनके साथ कैसे पेश आना है. एक हद तक दलितों के मामले में भी ये सच है. लेकिन हिंदू आंदोलनकारियों से सरकार उस तरह पेश नहीं आ सकती, जिस तरह से वो मुसलमानों के साथ आती है.

दूसरा कारण भी इससे जुड़ा हुआ है. बीजेपी ने जब अपना विस्तार ब्राह्मण-बनिया आधार से बाहर नए सामाजिक वर्गों में किया, तो वह मुख्य रूप से ठाकुर/राजपूत और किसान जातियों में गई. ये मुमकिन है कि सेना में इन समूहों के लोग अच्छी संख्या में हैं और सेना में जाने के इच्छुक लोग भी इन वर्गों से ज्यादा हैं. जाति और समूह आधारित रेजिमेंट की ब्रिटिश परंपरा, जिसे आजादी के बाद जारी रखा गया, में भी इन्हीं वर्गों के लोग ज्यादा जाते हैं. बीजेपी बेशक इस समय चल रहे आंदोलन से नाखुश है, लेकिन वह इस सामाजिक समूह को नाराज करने का जोखिम नहीं ले सकती.

इसलिए कोई अगर सोच रहा है कि इतनी भारी हिंसा के बाद बीजेपी इन आंदोलनकारियों के घरों पर बुलडोजर चला देगी, तो वे गलतफहमी में हैं.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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