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Sunday, 17 November, 2024
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अंतर-धार्मिक विवाह और संबंधित विवादों के लिये अब समान नागरिक संहिता की अनिवार्यता क्यों महसूस हो रही है

समान नागरिक संहिता की आवश्यकता के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने 36 साल पहले 1985 में अपनी राय व्यक्त की थी. गोवा में पहले से ही समान नागरिक संहिता लागू है.

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देश के बदलते परिवेश में विभिन्न धर्मों, संप्रदायों और पंथों में प्रचलित विवाह और विवाह विच्छेद के कानून एवं रीति रिवाज, तलाक की स्थिति में महिलाओं के अधिकार, गुजारा भत्ता और संपत्ति में उनके अधिकार जैसे मुद्दों के न्याय संगत समाधान के लिए अब समान नागरिक संहिता की जरूरत पहले से ज्यादा महसूस की जा रही है.

समान नागरिक संहिता की आवश्यकता के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने 36 साल पहले 1985 में अपनी राय व्यक्त की थी. गोवा में पहले से ही समान नागरिक संहिता लागू है. इसके बावजूद ऐसा लगता है कि राजनीतिक प्रतिबद्धताओं और राजनीतिक नफे नुकसान की वजह से कोई भी सरकार इस बारे में संविधान के अनुच्छेद 44 पर अमल के लिए कदम आगे नहीं बढ़ाना चाहती है.

समान नागरिक संहिता का मसला हमेशा से ही संवेदनशील रहा है. इसकी वजह विवाह और इससे जुड़े मुद्दों के बारे में विभिन्न धर्मों के अलग अलग रीति रिवाज हैं. हिन्दू धर्म में जहां विवाह को एक पवित्र संस्कार माना जाता है वहीं इस्लाम में यह एक करार है . कर्नाटक हाई कोर्ट ने भी इसी साल अक्टूबर में Ezazur Rehman vs Saira Bhanu प्रकरण में इसी तरह की टिप्पणी की थी. दूसरी ओर, ईसाई और पारसी समुदाय में भी विवाह के रीति रिवाज भी अलग- अलग हैं.

ऐसी स्थिति में न्यायालय महसूस करते हैं कि तेजी से बदल रही परिस्थितियों में देश में समान नागरिक संहिता जरूरी है लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय, मुसलमानों की बड़ी आबादी समान नागरिक संहिता को उनकी धार्मिक आजादी का उल्लंघन मानती है.

इसका नतीजा यह है कि नागरिक संहिता का मुद्दा न्यायिक व्यवस्थाओं के बावजूद आज भी अधर में लटका है. कभी अंतर-धार्मिक विवाह तो कभी अंतरजातीय विवाह विच्छेद के मामले के निपटारे में अब दिक्कत आ रही हैं.

न्यायिक व्यवस्थाओं में समान नागरिक संहिता बनाने के मुद्दे पर विचार के लिए एक समिति गठित करने की सरकार से कई बार सिफारिश की जा चुकी है लेकिन मामले में अभी तक कोई विशेष प्रगति नहीं हुई है. इत्तेफाक से विधि आयोग भी समान नागरिक संहिता बनाने के पक्ष में नहीं है क्योंकि उसे लगता है कि ऐसा करना व्यावहारिक नहीं है.

न्यायपालिका को लगता है कि धर्मान्तरण से संबंधित मुद्दों के मद्देनजर अब यह स्वैच्छिक नहीं रह गया है और इसलिए समान नागरिक संहिता आज जरूरी और अनिवार्य है.

हाल के वर्षो में दिल्ली हाई कोर्ट के बाद अब इलाहाबाद हाई कोर्ट ने देश में समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर जोर दिया है. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 18 नवंबर को अंतर-धार्मिक विवाहों के पंजीकरण से संबंधित 17 याचिकाओं पर अपना फैसला सुनाया.

अंतर-धार्मिक विवाह और एकल परिवार संहिता

न्यायमूर्ति सुनीत कुमार की एकल पीठ ने अंतर धार्मिक विवाहों से संबंधित Mayra Alias Vaishnvi Vilas Shirshikar And Anr vs State of UP and Ors प्रकरण में केन्द्र सरकार से कहा कि वह संविधान के अनुच्छेद 44 को लागू करने के लिए एक समिति गठित करने पर विचार करे.

न्यायमूर्ति सुनीत कुमार ने कहा कि यह समय की जरूरत है कि अंतर-धार्मिक विवाह करने वाले दंपत्तियों के साथ अपराधियों जैसे सलूक से संरक्षण प्रदान करने के लिए संसद ‘एकल परिवार संहिता’ बनाये.

न्यायालय ने कहा, ‘अब समय आ गया है जब संसद को इसमें हस्तक्षेप करना चाहिए और विचार करना चाहिए कि क्या देश को विवाह और पंजीकरण के लिए कई कानून चाहिए या विवाह करने वाले पक्षकारों को एकल परिवार संहिता के दायरे में लाना चाहिए.’

उच्च न्यायालय में पेश मामले अंतर-धार्मिक विवाह से संबंधित 17 याचिकाएं थीं और उप्र सरकार का यह कहना था कि ये शादियां जिला प्राधिकारियों की जांच के बगैर पंजीकरण के नहीं हो सकती हैं क्योंकि प्रस्तावित विवाह के लिए अपने साथी का धर्म परिवर्तन करने के बारे में उन्होंने पहले जिला मजिस्ट्रेट से अनिवार्य मंजूरी नहीं ली थी.

इसके साथ ही अदालत ने विवाह पंजीयक को जिला प्राधिकारी की धर्म परिवर्तन के बारे में मंजूरी का इंतजार किये बगैर ही याचिकाकर्ताओं के विवाह का तत्काल पंजीकरण करने का आदेश दिया.

इससे पहले, दिल्ली उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति प्रतिभा एम सिंह ने Satprakash Meena vs. Alka Meena प्रकरण में कहा था कि केन्द्र सरकार को संविधान के अनुच्छेद 44 के क्रियान्वयन की दिशा में कार्रवाई करनी चाहिए. न्यायमूर्ति सिंह का कहना था कि समाज में जाति, धर्म और समुदाय से जुड़ी बंदिशें दूर हो रही हैं और ऐसी स्थिति अनुच्छेद के 44 के क्रियान्वयन पर कार्रवाई आवश्यक महसूस होती है.

संविधान के अनुच्छेद 44 के अनुसार, ‘शासन भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिये एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा.’

न्यायमूर्ति प्रतिभा सिंह ने सात जुलाई को तलाक से संबंधित मामले में कहा था कि देश में समान नागरिक संहिता लागू करने आवश्यकता है. उनका मत था कि आधुनिक भारतीय समाज में धर्म, जाति तथा समुदाय के बंधन खत्म हो रहे हैं. ऐसी स्थिति में समान नागरिक संहिता सिर्फ एक उम्मीद बनकर नहीं रह जानी चाहिए.


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पहला विवाह भंग किये बगैर धर्म परिवर्तन कर दूसरा विवाह कितना वैध

हाल के वर्षो में मुस्लिम व्यक्ति द्वारा दूसरे धर्म की लड़की से विवाह करने की घटनाएं तेजी से सुर्खियों में आई हैं. कई बार आरोप लगते हैं कि यह विवाह धोखे से किया गया है या फिर लड़की का जबरन धर्म परिवर्तन कराया गया है. लेकिन कुछ साल पहले तक हिन्दू पति द्वारा पहली पत्नी से विवाह विच्छेद के बगैर ही इस्लाम धर्म स्वीकार कर दूसरी शादी करने की घटनाएं अक्सर चर्चा में आती थीं.

ऐसे मामलों में अचानक ही हुई वृद्धि के मद्देनजर यह मामला भी शीर्ष अदालत पहुंचा था. न्यायालय ने Smt. Sarla Mudgal. vs Union Of India प्रकरण में मई 1995 में हिन्दू विवाह कानून के तहत पहली पत्नी के रहते हुए सिर्फ दूसरी शादी के लिये धर्मांतरण के बढ़ते मामलों के परिप्रेक्ष्य में कहा था कि महिलाओं के हितों की रक्षा के लिए समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर अब संदेह नहीं किया जा सकता.

इस मामले में विचारणीय सवाल था कि क्या हिन्दू विवाह कानून के तहत पहला विवाह भंग किये बगैर धर्म परिवर्तन करके किया गया दूसरा विवाह वैध होगा और क्या ऐसा करने वाला पति भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के तहत दोषी होगा?

धर्मांतरण से संबंधित इस मामले में न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि कानूनी प्रावधानों के तहत विवाह विच्छेद किये बगैर ही इस्लाम धर्म कबूल करके हिंदू पति द्वारा किया गया दूसरा विवाह वैध नहीं है और यह धारा 494 के प्रावधानों के अंतर्गत अमान्य है. पहली पत्नी से विवाह विच्छेद के बगैर ही दूसरी शादी करने का वाला हिन्दू पति धारा 494 के तहत अपराध का दोषी होगा.

जहां तक देश में समान नागरिक संहिता की आवश्यकता का सवाल है तो इस पर सबसे पहले अप्रैल 1985 में शीर्ष अदालत ने स्पष्ट राय व्यक्त की थी.

सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश वाई एस चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने Mohd. Ahmed Khan vs Shah Bano Begum And Ors प्रकरण में इस मुद्दे पर कोई राय व्यक्त की थी. संविधान पीठ ने शाह बानो प्रकरण में ही तलाक और गुजारा भत्ता जैसे महिलाओं से जुड़े मुद्दों के परिप्रेक्ष्य में समान नागरिक संहिता बनाने पर सुझाव दिया था.

इसी तरह इस साल मार्च में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे ने वर्तमान प्रधान न्यायाधीश एन वी रमन्ना की उपस्थिति में गोवा के समान नागरिक संहिता की भूरि भूरि सराहना की थी. उन्होंने कहा था कि बुद्धिजीवियों को यहां आकर देखना चाहिए कि समान नागरिक संहिता किस तरह काम करती है.

न्यायमूर्ति बोबडे का कहना था कि गोवा में वही समान नागरिक संहिता है जिसकी कल्पना संविधान निर्माता ने अपने देश के लिए की थी और मुझे इसके तहत न्याय देने का अवसर मिला. धार्मिक प्रतिबद्धताओं के बावजूद यह संहिता सभी गोवावासियों को शासित करता है और इसके प्रावधान शादियों और उत्तराधिकार पर लागू होते हैं.

लव जिहाद या विवाह के लिए जबरन धर्मांतरण की घटनाओं के बीच न्यायपालिका द्वारा संविधान के अनुच्छेद 44 पर अमल के बारे में ठोस कदम उठाने के लिए दिए गए सुझावों पर अब सरकार और संसद को गंभीरता से विचार करना चाहिए.

संविधान के अनुच्छेद 44 में प्रदत्त समान नागरिक संहिता लागू होने पर शादी विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और जमीन जायदाद में हिस्से को लेकर उठने वाले विवादों का समाधान कहीं बेहतर तरीके से संभव हो सकेगा और इससे महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित करना संभव नहीं होगा.

सरकार को विभिन्न धर्मों में महिलाओं के हितों पर कुठाराघात करने वाले प्रावधान खत्म करने चाहिए जैसा कि उसने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए तीन तलाक की कुप्रथा खत्म करने लिए किया था.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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