भारतीयों को सब्सिडाइज्ड उच्च शिक्षा से इतना डर क्यों है?
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जो हो रहा है वो पूरे भारत के परिप्रेक्ष्य में एक बड़ा संकेत और ट्रेंड है जहां शैक्षणिक संस्थान लगातार खतरे में हैं. ये खतरा- सरकार, सत्ता पक्ष और व्हाट्सएप ग्रुप से है.
कैंपस और विद्यार्थी आंदोलनों को अस्थिर करने के लगातार प्रयास किए जा रहे हैं. हैदराबाद सेंट्रल विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या, उत्पीड़न के बाद टीएन टोपीवाला नेशनल मेडिकल कॉलेज में पायल तड़वी की आत्महत्या, आईआईटी मद्रास में फातिमा लतीफ की हत्या, जेएनयू से नजीब का लापता होना और अंत में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में संस्कृत पढ़ाने पर फिरोज़ खान के खिलाफ प्रदर्शन, ये सभी इसी ओर संकेत कर रहे हैं.
जेएनयू में फीस वृद्धि से सबसे ज्यादा कौन खोने जा रहा है? समाजिक तौर पर वंचित छात्र.
हालांकि, फीस वृद्धि की आलोचना करने वालों को प्रतिमाओं या गायों पर सार्वजनिक खर्च की तर्कहीनता का हवाला नहीं देना चाहिए. यह पहले से ही पक्षपाती भारतीय जनता को विश्वास दिलाता है कि शिक्षा और स्वास्थ्य मूर्तियों और गायों के साथ तुलनीय हैं.
उच्च शिक्षा के संकट को हल करने के लिए हमें सबसे पहले विद्यार्थियों को विद्यार्थियों की नज़र से देखना चाहिए न कि एक उपभोक्ता के तौर पर. क्योंकि शिक्षा एक अधिकार है न कि कोई सामग्री.
सार्वजनिक विश्वविद्यालयों का खराब होते चले जाना
आइए इस मसले के मूल में चलते हैं.
1986 की शिक्षा नीति में फैकल्टी को बढ़ाने और विकास पर ज़ोर देने को कहा था. इसने भारत में उच्च शिक्षा में निजीकरण को बढ़ावा दिया.
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2005 में, भारत ने विश्व व्यापार संगठन- जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड इन सर्विसेज (डब्ल्यूटीओ-जीएटीएस) के तहत उच्च शिक्षा के उदारीकरण की पेशकश की. इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए डब्ल्यूटीओ-जीएटीएस द्वारा निर्धारित शर्तों में राष्ट्रीय उपचार का मूल सिद्धांत शामिल था. यह मांग करता है कि सरकार निगमों को एक ‘स्तरीय मैदान’ प्रदान करे- इस क्षेत्र में सार्वजनिक और निजी संस्थान दोनों को समान अवसर प्रदान करने के लिए. यह विभिन्न श्रेणियों के छात्रों को आरक्षण और वित्तीय सहायता जैसी सकारात्मक कार्रवाई नीतियों की कीमत पर है.
यह छात्र को उपभोक्ता, शिक्षा को सामग्री बनाता है और निगमों को इसकी कीमत तय करने की शक्ति देता है. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) अपने संस्थानों में निवेश नहीं करना चाहता क्योंकि सरकार उच्च शिक्षा को बाजार की शक्तियों के लिए खोलना चाहती है.
2013-14 और 2017-18 के लिए उच्चतर शिक्षा रिपोर्टों का अखिल भारतीय सर्वेक्षण भारत में निजीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति की पुष्टि करता है. डेटा बताता है कि भारत में कॉलेजों की संख्या 36,634 से बढ़कर 39,050 हो गई है. जबकि निजी रूप से प्रबंधित कॉलेजों का अनुपात 75 प्रतिशत से बढ़कर 78 प्रतिशत हो गया, वहीं सरकारी कॉलेजों का अनुपात समान अवधि में 25 प्रतिशत से गिरकर 22 प्रतिशत हो गया. हालांकि, भारत के 32.4 फीसदी छात्र इन 22 फीसदी सरकारी कॉलेजों पर निर्भर हैं.
भारत में 903 विश्वविद्यालयों में से 560 (62 फीसदी) पब्लिक फंडेड हैं और 343 (38 फीसदी) निजी तौर पर चलाए जाते हैं.
फरवरी में, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज ने अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के छात्रों को वित्तीय सहायता वापस लेने का फैसला किया, जो सरकार के पोस्ट-मैट्रिक छात्रवृत्ति (जीओआई-पीएमएस) के लिए पात्रता रखते हैं. यह हाशिए पर पड़े वर्गों के छात्रों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को दुर्गम बनाने का एक प्रयास था.
भारत में आदिवासी और दलित छात्रों का एक बड़ा हिस्सा केंद्र द्वारा प्रस्तावित पोस्ट-मैट्रिक छात्रवृत्ति पर निर्भर है. बजट आवंटन में कटौती, छात्रवृत्ति के असंगत वितरण और फ्रीलोडर्स (मुफ्तखोरों) के खिलाफ बनाए गई सार्वजनिक भावना ने उच्च शिक्षा में मिलने वाली सब्सिडी और सामाजिक न्याय योजनाओं पर सरकार, विश्वविद्यालयों और लोगों द्वारा इस पर हमला किया जाने लगा.
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इसने इस क्षेत्र में निजी खिलाड़ियों का रास्ता खोल दिया है. यह कॉर्पोरेट जगत के दिग्गजों के लिए एक वरदान है जो इंतज़ार कर रहे थे कि वे अपना जियो विश्वविद्यालय शुरू करें (इंस्टीट्यूशन ऑफ एमिनेंस’ टैग के साथ).
शिक्षा को बेचना
विश्व स्तर पर लोग सरकारों पर भरोसा खो रहे हैं और तेजी से निगमों के शासन को गले लगा रहे हैं, जहां निगमों द्वारा दान को सार्वजनिक खर्च की तुलना में अधिक वैध माना जा रहा है.
सार्वजनिक राय उन छात्रों के साथ मेल नहीं करेगी जो शिक्षा के ‘बौद्धिक उपनिवेशीकरण’ पर सवाल उठाते हैं. भारतीयों का एक बड़ा हिस्सा शिक्षा को एक वस्तु के रूप में मानता है जो एक मौलिक अधिकार के बजाय शादी के बाजार में एक इंसान के लिए मूल्य बढ़ाता है. शिक्षा में निवेश अक्सर मूल आवश्यकता की तुलना में माता-पिता के लिए एक पेंशन योजना होती है.
यह सब सार्वजनिक-खर्च विरोधी सामाजिक न्याय योजनाओं को लक्षित करते हैं जिनके प्रमुख लाभार्थी गरीब और हाशिए पर पड़े लोग होते हैं.
वहीं जब सरकार ब्राह्मणवादी विचारधारा के साथ शिक्षा का निजीकरण कर करती है तो वो महिलाओं, दलितों, आदिवासियों, धार्मिक और लैंगिक अल्पसंख्यकों को अलग-थलग करने का काम करती है.
सरकार और विश्वविद्यालयों द्वारा दी जाने वाली उच्च शिक्षा को अच्छी गुणवत्ता के साथ देने में असमर्थता, जो इसके हकदार हैं और सार्वजनिक धन के प्रति राजनीतिक प्रतिबद्धता की कमी, आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों को प्रभावित कर रहा है- वो भी जिन्हें शिक्षा की सबसे ज्यादा जरूरत है. ये व्यापारी को अपने उपभोक्ता को चुनने की शक्ति देता है. ‘कमोडिटी’ एक ‘उपभोक्ता’ का मौलिक अधिकार नहीं हो सकती है.
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शिक्षा में इस तरह का संकट बहुस्तरीय है जिसे मोदी सरकार द्वारा अपनाये जाने वाले तरीके से भी हल नहीं किया जा सका है. ऐसे समय में सिद्धांतों के सवाल पर कोई बीच का रास्ता नहीं हो सकता है. सरकार को सब्सिडी वाली उच्च शिक्षा के भविष्य पर अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए. उसे पूरे भारत में प्रदर्शनकारी छात्रों को सुनना चाहिए और उन्हें छात्रों के रूप में स्वीकारना चाहिए न की उपभोक्ता की तरह.
हम संघर्ष के इस रास्ते पर उम्मीद नहीं खो सकते. अगर हम उम्मीद खोते हैं तो हार जाएंगे.
(लेखक गुजरात के वड़गाम विधानसभा से विधायक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)
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