पंजाब के फरीदकोट में औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान (आईटीआई) के लोहे के फाटक छात्रों के लिए मानो उस नरक का द्वार था जहां उन्हें वयस्कों की दुनिया में प्रवेश करने की कीमत यातना भोग कर चुकानी पड़ती है. राजनीतिशास्त्री डोना सूरी ने 1981 में लिखा था कि यह सिस्टम उम्मीदों को चकनाचूर करने के लिए तैयार की गई है और छात्रों को एमए के बाद एमए करने और टाइपिंग तथा शॉर्टहैंड सीखने के लिए किसी कमर्शियल इंस्टीट्यूट में दाखिल होने से पहले अंततः एलएलबी करने को मजबूर करने के लिए बनी है. सूरी ने आगे यह भी लिखा है कि उनके लिए आसमान हमेशा असंतोष, निराशा और लाचारगी के घने बादलों से बोझिल रहता है.
जैसा कि हरेक जेलनुमा व्यवस्था में होता है, उसमें कैद हर कैदी जेल तोड़कर भागने की कोशिश करता है, लेकिन हर किसी को यह नहीं मालूम होता कि रोशनी कहां मिलेगी. 1980 की सर्दियों में, कम्युनिस्टों के एक समूह ने जब लेनिन के उपदेश प्रसारित करने के लिए छात्र महोत्सव के मंच पर कब्जा करने की कोशिश की लेकिन सिख पुनरुत्थानवादियों के एक अपने गुरुओं से दिशा निर्देश लेते हुए उन्हें खदेड़ दिया.
छात्र महोत्सव में कम्युनिस्टों के साथ इस झगड़े ने कुलवंत सिंह खुखराना की जिंदगी बदल दी. उसे जरनैल सिंह भिंडरांवाले से मिलने के लिए स्वर्णमंदिर बुलाया गया. भिंडरांवाले उस समय सिखों के नव-कट्टरपंथी आंदोलन का उभरता सितारा था. स्वर्णमंदिर में भिंडरांवाले ने कुलवंत से कहा कि वह अपने दाढ़ी-मूंछ काटना बंद करे और एक असली सिंह बन जाए, सिख धर्म का योद्धा.
इस महीने के शुरू में, कुलवंत का बेटा और खालिस्तानी आंदोलन के भगोड़े प्रचारक अमृतपाल सिंह के सोशल मीडिया संरक्षक अवतार सिंह खांडा ने लंदन में भारतीय उच्चायोग में राष्ट्रीय ध्वज को हटाकर थोड़ा ‘नाम कमा लिया’ था. उसके पिता ने जो खूनखराबा किया उसकी कहानी, और बेटे ने इंस्टाग्राम पर पोस्ट की जो झड़ी लगाई वह हमें यह समझने में मदद करती है कि खालिस्तान का भूत पंजाब और प्रवासी सिखों को अभी भी क्यों सता रहा है.
कैसे बनते हैं आतंकवादी
‘दप्रिंट’ ने कुलवंत की जिंदगी के बारे में उपलब्ध जो ऑनलाइन ब्योरे और पंजाब पुलिस के जो रिकॉर्ड देखे हैं उनसे साफ है कि सिख कट्टरपंथ को मजबूत बनाने के लिए भिंडरांवाले ने जो राजनीतिक संगठन ‘ऑल इंडिया सिख स्टूडेंट्स फेडरेशन’ (एआइएसएसएफ) बनाया था उसमें मोगा का यह छात्र पूरी तरह सक्रिय हो गया था. लेकिन 1984 में जब भारतीय सेना ने स्वर्णमंदिर पर धावा बोला था तब कुलवंत वहां नहीं था. पुलिस के रिकॉर्ड बताती है कि एआइएसएसएफ के इस नेता को एक स्थानीय हिंदू पर हमला करने के आरोप में उसे और उसके भाई बलवंत सिंह को जेल में बंद कर दिया गया था. उसे 18 महीने बाद रिहा किया गया लेकिन जेल ने उसे एक अलग पाठ पढ़ा दिया, उसे खलिस्तान कमांडो फोर्स के भावी नेता गुरजंत सिंह बुधसिंहवाला का करीबी बना दिया.
कुलवंत अप्रैल 1986 में जमानत पर रिहा हुआ और 7 मई 1986 को उसकी शादी चरणजीत कौर से कर दी गई. परिवार को उम्मीद थी कि शादी के बाद वह घर से बंध जाएगा. परिवार का दावा है कि पुलिस कुलवंत को लगातार परेशान करती रही, बल्कि शादी के दिन भी उससे घूस लेने पहुंच गई. इसके विपरीत पुलिस की रिकॉर्ड बताती है कि उसने जमानत की शर्तों का पालन नहीं किया, जिसमें एक शर्त यह थी कि उसे हर सप्ताह अधिकारियों के सामने हाजिरी लगानी थी.
इस सबके जवाब में कुलवंत भूमिगत हो गया और परिवार पटियाला में गुरुद्वारा श्री दुखनिवारण साहिब के पास किराये के मकान में रहने चला गया. लेकिन एआइएसएसएफ का नेता समय-समय पर खुली रैलियां करता रहा. नवंबर 1986 में, एक कार्यक्रम में उसने कहा, “भारतीय सुरक्षा बल फर्जी मुठभेड़ें और फर्जी गिरफ्तारियां कर रहा है, लेकिन आज़ादी का आंदोलन दबने के बजाय और तेज हो रहा है. जब कोई सिख इंसाफ की बात करता है तो उसे आतंकवादी घोषित कर दिया जाता है.”
खालिस्तान समर्थक खेमे और पुलिस रिकॉर्ड, दोनों में इस बात के सबूत मिलते हैं कि कुलवंत 1987 में आकर खालिस्तान कमांडो फोर्स में सक्रिय हो गया था. उस साल की गर्मियों में मोगा के एक पार्क में अकाली नेता गुरचरण सिंह तोहड़ा की हत्या की कोशिश, पुलिस अधीक्षक गोविंद राम की हत्या और आरएसएस के 21 स्वयंसेवकों की हत्या के मामले में नामजद किया गया था.
बाद में, उस पर आरोप लगाया गया कि वह एक कम्युनिस्ट नेता और डॉक्टर (जिस पर पुलिस की मुखबिरी करने का शक था) की हत्या, एक दलित नास्तिक धार्मिक समूह के नेता, और एक डकैती के मामले में उसकी शिनाख्त करने वाले बैंक कर्मचारी की हत्या में कथित रूप से शामिल था. अंततः, पंजाब पुलिस ने 1991 में उसे गोली मार दी जबकि वह गुरजंत सिंह बुधसिंहवाला को फरार होने में मदद कर रहा था, जिस खालिस्तानी आतंकवाड़े को एक साल के अंदर मार डाला गया.
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डिजिटल युग में
अवतार सिंह की लंबी दाढ़ी और लंबा चोगा उसे उस सिख परंपरा का वारिस बनाता है जिसके लिए उसके पिता ने अपनी जान दे दी. इस खालिस्तानी एक्टिविस्ट के भाषण व्हाइट नेशनलिस्ट मूवमेंट की शाखाओं में प्रचलित भाषा के साथ-साथ वामपंथी तेवर के तत्व शामिल होते हैं. एक इंटरव्यू में उसने दावा किया कि ‘डीप स्टेट’ (सरकारों पर दबाव डालने वाला गुप्त समूह) दुनिया भर में एक गुप्त साजिश के तहत लंदन शहर से काम करता है. फिडेल कास्त्रो और चे ग्वारा की रोलेक्स घड़ियों का जिक्र करते हुए उसने कहा कि क्रांतिकारी लोग अगर धन-संपत्ति बनाते हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं है.
अवतार का जन्म 1988 की गर्मियों में हुआ था, कोलकाता में जन्मी बहन से तीन महीने पहले. अपने पिता की तरह उसने एक स्थानीय स्कूल में पढ़ाई की. उसका दावा है कि उस स्कूल में उसे अपने माता-पिता को लेकर फब्तियां सुननी पड़ती थीं और तभी से वह कट्टरपंथ की ओर मूड गया था. उसके पारिवारिक सूत्र बताते हैं कि 2010 में वह एक रिश्तेदार द्वारा प्रायोजित किए गए वीसा पर ब्रिटेन चला गया. वहां वह खुद को पुलिस दमन का शिकार बताकर राजनीतिक शरण लेने में सफल हो गया.
लेकिन इस नये शख्स की गमन ने ब्रिटेन में खालिस्तानी मुहिम पर तब तक केवल मामूली असर ही डाला था जब तक कि 2020 में किसान आंदोलन के दौरान छोटे कद का फिल्म अभिनेता दीप सिद्धू सोशल मीडिया का सितारा बनकर नहीं उभरा. सिद्धू ने कुछ समय तक लंदन में पढ़ाई की और रोजगार भी किया लेकिन इस बात के संकेत नहीं मिलते कि वह अवतार से मिला या नहीं या वहां खालिस्तान की मुहिम से जुड़ा. वास्तव में, उसने तो स्वदेश लौटकर अलगाववाद का दामन पकड़ने से पहले भाजपा के लिए चुनाव प्रचार किया.
किसान आंदोलन के बाद सोशल मीडिया के मित्रों द्वारा मेल कराए जाने के बाद सिद्धू और अवतार खूब ऑनलाइन बातचीत करने लगे. अमृतपाल भी ट्विटर के जरिए इस गुट से जुड़ गया. अवतार के मुताबिक, उसने फरवरी 2022 में एक सड़क हादसे में सिद्धू की मौत के बाद अमृतपाल को नव-कट्टरपंथी युवा गुट ‘वारिस पंजाब दे’ का नेता चुनने में मदद की.
अनुषंगी अकाली नेता सिमरनजीत सिंह मान और एआइएसएसएफ के लोगों को उम्मीद थी कि अमृतपाल पंजाब में खालिस्तानी मुहिम में फिर जान फूंकने में केंद्रीय भूमिका निभाएगा, जिसमें उसे अवतार जैसे प्रवासी का समर्थन मिलेगा. लेकिन यह नहीं हो पाया, जिसके कारणों पर विचार करने की जरूरत है.
नकली खालिस्तानी
खालिस्तान आंदोलन, और फरीदकोट के आइटीआइ में भड़का तनाव विशेष सामाजिक परिस्थितियों की देन था. लेखक हमीश टेलफोर्ड, आदि ने लिखा है कि हरित क्रांति के लाभ सबको समान रूप से नहीं मिले जिसके कारण मोगा जैसी जगहें असंतोष के केंद्र बन गईं. कुलवंत की तरह भिंडरांवाले भी एक छोटे किसान की सात संतानों में एक था, जिसे विरासत में कोई काम लायक जमीन नहीं मिलने वाली थी. अर्थव्यवस्था भी रोजगार और उद्यम के कम अवसर ही उपलब्ध करा रही थी.
पांचवीं तक के पढ़ाई करने के बाद मात्र दस साल का भिंडरांवाले दमदमी टकसाल में शामिल हो गया, जिसके साथ उसके परिवार का पुराना जुड़ाव था. दमदमी टकसाल एक छोटा धार्मिक संगठन है जिसकी स्थापना 18वीं सदी में हुई थी. वह जिस मिथकीय समतावादी भाईचारा का प्रतिनिधित्व करता था वह उसे और दूसरे असंतुष्ट जाटों को असमतामूलक आधुनिकता का विकल्प नज़र आता था.
1962 में सिख नेता फतह सिंह के उभार के बाद से सुलगते आर्थिक तनावों ने सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप भी धारण कर लिया. अकाली नेताओं को समझ में आ गया था कि सभी सिख उनका समर्थन नहीं करते, और इसके लिए सांप्रदायिक बहुलता का निर्माण करने की जरूरत थी. कट्टरपंथियों के लिए, इसने निष्ठा को पश्चिमीकरण और सांप्रदायिकता के दोहरे दबाव के रू-ब-रू ला दिया.
आतंकवादी वास्सन सिंह जफरवाल ने शोधार्थी ज्वायश पेट्टीग्रिव से कहा, “एक मजदूर संघ की बैठक में कुछ कम्युनिस्टों ने किरपाण धारण करने पर मज़ाक उड़ाया. मैंने उठकर अमृतधारियों के पक्ष में बोला.” जफरवाल ने कहा कि कम्युनिस्टों के आदर्श थे लेनिन. पूंजीपतियों का आदर्श था अमेरिका, इसलिए हम बदलाव के लिए स्पष्ट सिख आधार चाहते थे. लगातार चुनाव नतीजों से साफ है कि सिख नव-कट्टरपंथी के प्रति समर्थन ने कभी निर्णायक गति नहीं हासिल की.
अवतार सिंह की कहानी यही बताती है कि मिथकीय समतामूलक अतीत को वापस लाने का विचार प्रवासी सिखों को बही भी आकर्षित करता है. बुजुर्ग प्रवासियों को चिंता है कि उनके बच्चे धार्मिक अनुशासनों का पालन नहीं करते. कुछ युवा नव-कट्टरपंथ को उग्र श्वेतों के समाज में अपनी पहचान पर ज़ोर देने का साधन मानते हैं. इसके अलावा, हिंदू राष्ट्रवाद के उभार के कारण कई सिख भविष्य को लेकर आशंकित हैं.
लेकिन अमृतपाल शायद ही कुछ हासिल कर पाया, उसने अवतार के मुक़ाबले भी कम ही हासिल किया. अमृतपाल अपनी रंगरूटों की भर्ती का आधार मोगा के आसपास से आगे नहीं फेला पाया, जहां दमदमी टकसाल पहले ही भर्ती अभियान चला चुका था. हालांकि अवतार और अमृतपाल ने पंजाब में किसानों के बढ़ते असंतोष को भुनाने की कोशिश की लेकिन आंकड़े बताते हैं कि खालिस्तानी आंदोलन या आतंकवाद के लिए नए रंगरूटों की भर्ती में कोई अहम बढ़ोतरी नहीं हुई है. लेखक अजय साहनी कहते हैं कि दरअसल प्रवासी सिखों में खालिस्तानी समूहों को हिंसक कार्रवाई के लिए वैचारिक रुझान वाले रंगरूटों की जगह अपराधी गिरोहों का ही ज़्यादातर सहारा लेना पड़ा है.
पंजाब में असली खतरा विकृत राजनीति, प्रतियोगी सांप्रदायिकता और निष्क्रिय अर्थव्यवस्था से है. ये सब मिलकर एक नये प्रकार का संकट पैदा कर सकते हैं. वैसे, अतीत के प्रेत केवल हमें डराने और वर्तमान के मसलों से निबटने के काम से विचलित करते हैं.
(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @praveenswami है. व्यक्त विचार निजी हैं.)
(संपादन: ऋषभ राज)
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