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Friday, 19 April, 2024
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मुस्लिम बुद्धिजीवी मदरसों का बचाव करते हैं, लेकिन गरीबों और पसमांदा के बच्चे ही वहां जाते हैं, उनके नहीं

असम के मुख्यमंत्री, हिमंत बिस्वा सरमा मदरसों को 'रेग्युलर स्कूलों' में बदलना चाहते हैं. कई मायनों में, उनके कार्य बड़े मुस्लिम समुदाय के लिए फायदेमंद होंगे.

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चुनावी राज्य कर्नाटक में एक रैली में, असम के मुख्यमंत्री, हिमंत बिस्वा सरमा ने गरजती आवाज़ में कहा कि उनकी सरकार ने 600 से अधिक मदरसों को बंद कर दिया है और वह बाकी सभी को बंद करने का इरादा रखते हैं. बयान स्पष्ट रूप से उनकी पार्टी भाजपा के वोट बैंक को प्रभावित करने के उद्देश्य से था.

इससे पहले जनवरी में सरमा ने कहा था कि राज्य सरकार इस मुद्दे पर अल्पसंख्यक समुदाय के साथ काम कर रही है और वे कट्टरता के खतरे को कम करने के लिए राज्य सरकार का समर्थन कर रहे हैं. पिछली सरकार में एक शिक्षा मंत्री के रूप में, उन्होंने विवादास्पद असम विधानसभा कानून पेश किया, जिसमें 2020 में सभी सरकारी मदरसों को ‘नियमित स्कूलों’ में बदलने की योजना थी.

मदरसों के आधुनिकीकरण की वकालत मुसलमानों के एक वर्ग ने भी की है. इसे पाकिस्तान में मुसलमानों का समर्थन भी मिल गया है.

21 वीं सदी की चुनौतियों से निपटने के लिए मुस्लिम युवाओं के लिए मदरसा शिक्षा पर्याप्त नहीं है, उन्हें बचपन से ही विभिन्न विषयों, विशेष रूप से वैज्ञानिक शिक्षा से परिचित कराने की आवश्यकता है. कई मायनों में, सरमा की हरकतें बड़े मुस्लिम समुदाय और देश के लिए फायदेमंद होंगी. मुस्लिम लीडरशिप को असम के मुख्यमंत्री के द्वारा कही बातों में छिपे अर्थ को पढ़ने की जरूरत है.


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मदरसों के साथ मेरा अनुभव

भारत में मदरसा सुधार हमेशा से एक विवादास्पद मुद्दा रहा है. एक तरफ मुसलमानों का एक तबका इस तरह के संस्थानों के ऐतिहासिक महत्व के कारण इसे संस्कृति युद्ध के रूप में देखता है. इसके बावजूद है कि वे खुद अपने बच्चों को मदरसों में नहीं भेजते हैं. दूसरी तरफ यह कहानी भी चलाई जा रही है, जिसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है, कि मदरसे आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा हैं क्योंकि वे मुस्लिम युवाओं को कट्टरपंथी बनाते हैं.

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मैंने देखा है कि गैर-मुस्लिम मदरसों को एक ऐसी जगह के रूप में देखते हैं जहां मुस्लिम बच्चे जिहाद के बारे में सीखते हैं. यह सच से बहुत दूर है. मैंने दो मदरसों में पढ़ाई की है. पहला मेरे गांव, वाराणसी के मंगलपुर में एक छोटा सा था जहां मैं स्कूल की छुट्टियों के दौरान थोड़े समय के लिए गया था. मैंने ज्यादातर कुरान, उर्दू और अंग्रेजी, हिंदी, विज्ञान और भूगोल जैसे अन्य विषयों का अध्ययन किया.

मदरसे में हम स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस भी मनाते थे. हालांकि, शिक्षा का स्तर मानक के अनुरूप नहीं था. बाद में मुझे एक साल के लिए आजमगढ़ के एक मदरसे में इस्लामिक पढ़ाई के लिए भेज दिया गया. यह बहुत ही अलग अनुभव था. यहां मैंने पहली बार सीखा कि जिहाद (कुछ लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए संघर्ष) क्या है.

पसमांदा को अशिक्षित रखने का साधन

मदरसे आधुनिक धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्रणाली में फिट नहीं होते हैं. इसके अलावा, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गरीब मुसलमान, ज्यादातर पसमांदा मुस्लिम बच्चे, ही हैं जो शिक्षा के लिए मदरसों पर निर्भर हैं. जो मुस्लिम बुद्धिजीवी मदरसों को जिंदा रखना चाहते हैं वे अपने बच्चों को यहां कभी नहीं भेजेंगे.

यहां तक कि सर सैयद अहमद खान, जिन्होंने ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली के अनुरूप वैज्ञानिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना की थी, ने भी ऐसा अशरफ के हितों की रक्षा के लिए किया था न कि पसमांदाओं के हितों के लिए. आधुनिक शिक्षा के माध्यम से निचली जाति के मुसलमानों की मुक्ति के प्रति उनका दृष्टिकोण अच्छी तरह से दस्तावेज में दर्ज है. उन्हें एक बार बरेली में मदरसा अंजुमन-ए इस्लामिया द्वारा आयोजित एक समारोह में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया था, जहां गरीब, निचली जाति के मुस्लिम छात्र पढ़ते थे. एक भाषण में, प्रतिक्रिया देते हुए उन्होंने कहा कि मदरसा अधिकारियों ने सुझाव दिया है कि छात्रों को केवल पारंपरिक इस्लामी विषयों के बजाय आधुनिक विषयों का भी अध्ययन करना चाहिए.

आपने अपने संबोधन में उल्लेख किया है कि हमें अन्य समुदायों का ज्ञान प्राप्त करने में संकोच नहीं करना चाहिए. शायद इसका मतलब अंग्रेजी पढ़ाना है. लेकिन, मैं आपसे कहता हूं, आपके जैसे मदरसे के संबंध में, अंग्रेजी पढ़ाना एक बहुत बड़ी भूल है…मुसलमानों के बीच अंग्रेजी शिक्षा और विज्ञान के प्रसार का मुझसे बड़ा समर्थक कोई नहीं है. लेकिन हर चीज के लिए एक सही समय और सही जगह होती है… इन लड़कों [जो इस मदरसे में पढ़ते हैं] की स्थिति और कक्षा को देखते हुए, उन्हें अंग्रेजी पढ़ाना बेकार है. उन्हें [मदरसा] शिक्षा की पुरानी व्यवस्था में व्यस्त रखें- जो उनके लिए और देश के लिए बेहतर है.

यह एक स्पष्ट संकेत है कि मदरसा प्रणाली का बचाव करने वालों को मदरसा के बंद होने पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला है. सच्चर समिति की 2006 की रिपोर्ट के अनुसार गरीब परिवारों के लगभग 4 प्रतिशत मुस्लिम युवा मदरसा शिक्षा पर निर्भर हैं. वैकल्पिक व्यवस्था लाए बिना इन संस्थानों पर कार्रवाई करने से न केवल किसी व्यक्ति की शिक्षा तक पहुंच बाधित होगी, बल्कि उनके पूरे परिवार और उनकी आने वाली पीढ़ियों की संभावनाओं को भी बाधित करेगी.

हालांकि, मदरसों को बंद करना एक ऐसा कदम नहीं है जिसका मैं विरोध करती हूं जब तक कि सरकार मुस्लिम बच्चों के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था प्रदान करती है जो कि ऐसा न होने पर मझधार में छूट जाएंगे.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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