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Thursday, 25 April, 2024
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भारत का सबसे बड़ा शहरी जमींदार है वक्फ बोर्ड, लेकिन किसके हित में काम कर रहा है ?

सशस्त्र बलों और रेलवे के बाद वक्फ बोर्ड भारत में तीसरे सबसे बड़े जमींदार हैं. लेकिन भारत का मुस्लिम समुदाय अभी भी बुनियादी जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहा है.

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भारत में विशाल वक्फ बोर्ड यूनिवर्स का मुख्य उद्देश्य मुस्लिम समुदाय की सेवा करना है. भले ही वक्फ बोर्ड देश में जमीन के तीसरे सबसे बड़े मालिक के रूप में उभरा हो, लेकिन भारतीय मुसलमान बुनियादी जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहे हैं और कई सामाजिक-आर्थिक संकेतकों पर दलितों से भी बदतर स्थिति में हैं. वक्फ मालिक आज भारत के सबसे बड़े शहरी जमींदार हैं.

वक्फ इस्लामिक कानून में एक प्रकार का धर्मार्थ बंदोबस्त है जहां एक संपत्ति का स्वामित्व अल्लाह को हस्तांतरित किया जाता है और संपत्ति को स्थायी रूप से धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए समर्पित किया जाता है. वक्फ (वकीफ के रूप में जाना जाता है) बनाने वाला व्यक्ति उन उद्देश्यों का निर्देश दे सकता है जिनके लिए संपत्ति से उत्पन्न आय का उपयोग किया जाना चाहिए. इसमें गरीबों और ज़रूरतमंदों को सपोर्ट करना, मस्जिद या अन्य धार्मिक संस्थान को बनाए रखना, शिक्षा की व्यवस्था करना, या अन्य धार्मिक कार्यों के लिए पैसा उपलब्ध करवाना शामिल है. 

इस तरह, वक्फ को धार्मिक दान का एक रूप माना जाता है जो मुस्लिम समुदाय को समाज कल्याण के लिए योगदान देने और आध्यात्मिक पुरस्कार अर्जित करने की अनुमति देता है. वक्फ संपत्तियों का प्रबंधन एक वक्फ बोर्ड द्वारा किया जाता है, जो यह सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार होता है कि संपत्ति से होने वाली आय का उपयोग वक्फ और इस्लामी सिद्धांतों की इच्छा के अनुसार किया जा सकें.

वक्फ की अवधारणा की जड़ें शुरुआती इस्लामिक इतिहास में हैं, जिसकी प्रथा पैगंबर मुहम्मद के समय में स्थापित की गई थी. इस्लामी स्वर्ण युग के दौरान, इस्लामी छात्रवृत्ति और शिक्षा के विकास में वक्फ संस्थानों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. दुनिया के कई पुराने विश्वविद्यालय, जैसे काहिरा (मिस्र) में अल-अजहर विश्वविद्यालय और फ़ेज़ (मोरक्को) में अल क्वारौयिन विश्वविद्यालय, को वक्फ संस्थानों के रूप में स्थापित किया गया था.


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भारत में वक्फ का इतिहास

भारत में वक्फ की शुरुआत दिल्ली सल्तनत की शुरुआत के समय से होती है. भारत में वक्फ कानून और प्रशासन (1968) के इतिहास को लेकर लेखक एस अतहर हुसैन और एस खालिद रशीद वक्फ थोड़ी बहुत जानकारी मुहैया करवाते हैं. उनके अनुसार, सुल्तान मुइज़ुद्दीन सैम घोर ने मुल्तान की जामा मस्जिद को दो गांव वक्फ को दिए.

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हालांकि, ब्रिटिश राज के दौरान, लंदन की प्रिवी काउंसिल में वक्फ पर विवाद समाप्त हो गया. मामले की सुनवाई करने वाले चार ब्रिटिश न्यायाधीशों ने वक्फ को ‘सबसे खराब प्रकार की शाश्वतता (अमर होने की अवस्था)’ के रूप में बताया और इसे अमान्य घोषित कर दिया. यहां यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि भारत में इन चार न्यायाधीशों के द्वारा किए गए फैसले को स्वीकार नहीं किया गया था और मुस्लिम वक्फ मान्यकरण अधिनियम 1913 ने संस्था को खत्म होने से बचाया था. आज, सशस्त्र बलों और रेलवे के बाद, वक्फ भारत में सबसे बड़ा ज़मींदार है.

1954 में, जवाहरलाल नेहरू सरकार ने वक्फ अधिनियम पारित किया, जिसके बाद वक्फ का केंद्रीकरण हुआ. अधिनियम के तहत, सरकार ने 1964 में एक केंद्रीय वक्फ परिषद की स्थापना की.

1995 में, प्रत्येक राज्य और केंद्र शासित प्रदेश में वक्फ बोर्डों के गठन की अनुमति देने के लिए कानून में संशोधन किया गया था. केंद्रीय वक्फ परिषद वक्फ संपत्तियों से संबंधित मामलों पर केंद्र के लिए एक सलाहकार निकाय के रूप में कार्य करती है. राज्य सेवा के एक सदस्य और दो अन्य सदस्यों (जरूरी नहीं कि मुस्लिम) की अध्यक्षता में एक वक्फ संपत्ति न्यायाधिकरण द्वारा किसी भी विवाद का फैसला किया जाता है. बिहार जैसे कुछ राज्यों में शिया और सुन्नी के लिए अलग-अलग वक्फ बोर्ड हैं.

सबसे ज्यादा खामियाजा पसमांदा मुसलमानों को भुगतना पड़ता है

वक्फ बोर्डों का निराशाजनक प्रदर्शन ने इन संस्थानों के उद्देश्य पर सवाल खड़ा कर दिया है.

वक्फ संपत्तियां समुदाय के लिए पर्याप्त काम नहीं कर रही हैं, और उसपर आजादी के बाद से भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन के कई आरोप लगे हैं. उत्तर प्रदेश से लेकर पश्चिम बंगाल तक हर राज्य की अपनी कहानी है. सितंबर 2022 में, AAP विधायक अमानतुल्ला खान जो दिल्ली वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष भी हैं, को वक्फ फंड की हेराफेरी और अनियमितताओं के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. पिछले महीने केंद्र ने वक्फ बोर्ड की 123 संपत्तियों को जब्त किया था.

ये तो चंद उदाहरण हैं जो बताते हैं कि कैसे वक्फ बोर्ड अभिजात वर्ग (अशरफ) मुसलमानों के हितों को बचाने का जरिया बन गया है और आम भारतीय मुसलमानों को इससे कुछ हासिल नहीं होता है.

अशरफ (अमीर मुसलमान) अल्पसंख्यक राजनीति के नाम पर संख्यात्मक बल और पसमांदा की हाशिये पर स्थिति का उपयोग करके अपना हित साधने में लगे हैं. वक्फ बोर्ड भी इसमें कोई अपवाद नहीं है. भारत में अन्य सभी मुस्लिम संस्थानों की तरह, वक्फ बोर्डों पर भी अशरफों का शासन है और इसमें आदिवासियों, दलितों और पिछड़े मुसलमानों की  भागीदारी शुन्य है.

पसमांदा मुस्लिम भी 1995 अधिनियम द्वारा वक्फ बोर्डों को दिए गए विशेष विशेषाधिकारों पर अन्य समुदायों से आने वाली प्रतिक्रिया का खामियाजा भुगतते हैं. किसी अन्य अल्पसंख्यक समूह के पास पूजा स्थल के लिए इतनी जमीन नहीं है. वास्तव में, हिंदू मंदिर और उनकी भूमि अभी भी राज्य की है. इसके अतिरिक्त, वक्फ द्वारा दूसरों की भूमि पर दावा करना केवल समुदायों के बीच दोष रेखा को जोड़ता है और किसी अन्य की तुलना में पसमांदा मुसलमानों को अधिक प्रभावित करता है.

वक्फ बोर्डों के उद्देश्य और वास्तव में वे किसके हित में काम करते हैं, इसकी फिर से जांच करने का समय आ गया है.

(अमाना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय अमाना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक YouTube शो चलाती हैं. वह @Amana_Ansari पर ट्वीट करती है. विचार निजी हैं.)

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख़ को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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