देश की राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों की बढ़ती दखल हमेशा से ही निर्वाचन आयोग और न्यायपालिका के लिये चिंता का सबब रही है. न्यायपालिका के सख्त रवैये की वजह से कुछ हद तक आपराधिक पृष्ठभूमि वालों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया यानि चुनाव लड़ने की प्रक्रिया से दूर रखने में मदद मिली है, लेकिन अभी भी काफी कुछ करना शेष है.
न्यायिक व्यवस्थाओं का ही नतीजा है कि अदालत से दो साल से अधिक की सजा होते ही अब ऐसे सांसदों और विधायकों की सदस्यताा समाप्त हो रही है. लेकिन यह पर्याप्त नहीं है. देश की राजनीति को आपराधिक पृष्ठभूमि वाले तत्वों से पूरी मुक्त करने की कल्पना को साकार करने के लिये राजनीतिक दलों के सक्रिय सहयोग की अपेक्षा की जाती है. लेकिन येन केन प्रकेण सत्ता हासिल करने की लालसा की वजह से निर्वाचन आयोग इस लक्ष्य हासिल नहीं कर पा रहा है.
लोकतांत्रिक प्रक्रिया से आपराधिक छवि वाले व्यक्तियों को पूरी तरह हाशिये पर करने के मुद्दे पर तरह तरह के तर्क और कुतर्क दिये जा सकते हैं. लेकिन इनसे जनता के बीच राजनीतिक दलों की छवि किसी भी तरह सुधर नहीं रही है, बल्कि जनता के बीच यही धारणा बन रही है कि सब एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं और कोई किसी से कम नहीं हैं.
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इस संदर्भ में उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ के 27 अगस्त, 2014 के फैसले का उल्लेख करना अनुचित नहीं होगा जिसमें उसने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को सुझाव दिया था कि बलात्कार और हत्या जैसे अपराधों तथा भ्रष्टाचार के आरोपों में अदालत में मुकदमों का सामना कर रहे व्यक्तियों को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया जाना चाहिए. शीर्ष अदालत ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि जब न्यायपालिका और प्रशासनिक सेवाओं में संदिग्ध छवि वाले व्यक्तियों की नियुक्ति नहीं हो सकती तो फिर मंत्रिमंडल में ऐसे व्यक्तियों को कैसे जगह दी जा सकती है. लेकिन न्यायालय के इस सुझाव की ओर ज्यादा गंभीरता नहीं दिखाई गयी.
निर्वाचन आयोग और न्यायपालिका ने चुनावी प्रक्रिया में दागी छवि वाले व्यक्तियों की भागीदारी पर लगाम लगाने के लिये अनेक महत्वपूर्ण आदेश और फैसले सुनाये हैं. इनकी वजह से कुछ हद तक दागी छवि वाले निर्वाचित प्रतिनिधियों को भी दो साल या इससे ज्यादा की सजा होने पर लंबे समय तक चुनाव प्रक्रिया से बाहर रहना पड़ रहा है.
लेकिन अभी भी बड़ी संख्या में ऐसे जनप्रतिनिधियों और नेताओं की जमात है जो गंभीर किस्म के अपराध में आरोपी होने के बावजूद चुनाव मैदान में देखे जा सकते हैं. इसकी वजह ऐसे नेताओं के खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों के निबटारे में अत्यधिक विलंब है.
संसद और विधान मंडलों के चुनाव में विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों द्वारा नामांकन पत्र के साथ दाखिल हलफनामों से पता चलता है कि चुनाव में कितनी बड़ी संख्या में ऐसे प्रत्याशी चुनाव मैदान में होते हैं जिनके खिलाफ गंभीर अपराध के आरोपों में अदालतों में मामले लंबित हैं.
निर्वाचन आयोग चाहता है कि राजनीतिक दल आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को चुनाव लड़ने के लिये अपना उम्मीदवार नहीं बनायें. लेकिन इस विषय पर राजनीतिक दलों में आम सहमति नहीं बन पा रही है.
इसी तरह के एक मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्वाचन आयोग से कहा था कि वह इस बारे में एक रूपरेखा तैयार करे. निर्वाचन आयोग का कहना है कि उच्चतम न्यायालय की एक व्यवस्था के आलोक में प्रत्याशियों की आपराधिक पृष्ठभूमि के विवरण से जनता को अवगत कराने के लिये उसने अक्टूबर, 2018 में निर्देश जारी किये थे लेकिन यह प्रयास राजनीति के अपराधीकरण पर अंकुश लगाने के प्रयासों में ज्यादा मददगार नहीं हुआ.
आम सहमति नहीं बन पाने का ही नतीजा है कि लोकसभा और राज्यों में विधान सभा चुनावों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशियों की भागीदारी बढ़ती जा रही है. आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को चुनाव में टिकट देने में कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं है.
एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने चुनावों में अपनी किस्मत आजमाने वाले प्रत्याशियों के हलफनामों का विश्लेषण करने पर पाया कि हर चुनाव में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों की संख्या में वृद्धि हो रही है.
इस संगठन द्वारा किये गये विश्लेषणों से पता चलता है कि 2019 में संपन्न 17वीं लोकसभा के चुनाव में 1070 प्रत्याशियों ने अपने खिलाफ बलात्कार, हत्या, हत्या के प्रयास, महिलाओं के प्रति अत्याचार जैसे गंभीर अपराधों के मामले लंबित होने की जानकारी हलफनामे पर दी थी. इनमें भाजपा के 124, कांग्रेस के 107, बसपा के 61, मार्क्सवादी पार्टी के 24 और 292 निर्दलीय उम्मीदवार शामिल थे.
16वीं लोकसभा के चुनाव में 8205 प्रत्याशियों में से 908 उम्मीदवारों ने अपने खिलाफ गंभीर अपराध के मामले लंबित होने की जानकारी हलफनामों पर दी थी जबकि 15वीं लोकसभा चुनाव के दौरान ऐसे उम्मीदवारों की संख्या 608 ही थी.
दिल्ली विधान सभा के हालिया चुनाव को ही ले लीजिये इसमें 672 प्रत्याशियों में से 133 के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं. इससे भी ज्यादा दिलचस्प यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोलने और ईमानदार होने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी के 70 में से 36 प्रत्याशियों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं.
दिल्ली मे स्वच्छ सरकार बनाने का वायदा करने वाली भारतीय जनता पार्टी के 67 में से 17 और कांग्रेस के 66 में से 13 उम्मीदवार दागी छवि के हैं. बहुजन समाज पार्टी भी पीछे नहीं है और उसके 66 प्रत्याशियों में से 10 के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं.
ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि आखिर इस समस्या से निजात कैसे पायी जाये. इस संबंध में एक बार जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन करने और गंभीर अपराधों के आरोपों में मुकदमों को सामना कर रहे व्यक्तियों को चुनाव लड़ने के अयोग्य बनाने का प्रावधान करने का सुझाव दिया जा रहा है.
गंभीर अपराध के आरोपों में मुकदमों का सामना कर रहे व्यक्तियों को चुनाव लड़ने से वंचित करने के सवाल पर यह दलील दी जा रही है कि केन्द्र और राज्यों में सत्तारूढ़ दल और गठबंधन अपने प्रबल समर्थकों को चुनाव प्रक्रिया से बाहर करने के लिये इस तरह के प्रावधान का दुरूपयोग कर सकते हैं.
विधि आयोग ने भी चुनाव में अयोग्यता के बारे में फरवरी, 2014 में अपनी 244वीं रिपोर्ट में इस बारे में कई सिफारिशें की थीं. उन व्यक्तियों को चुनाव प्रक्रिया से बाहर रखने की सिफारिश की गयी थी जिनके खिलाफ अदात में संगीन अपराध के आरोप में अभियोग निर्धारित हो चुके हैं.
आयोग की राय था कि ऐसे व्यक्तियों को चुनाव लड़ने के अयोग्य बनाने को कानून में शामिल करने से संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकार का हनन नहीं होगा जिनके खिलाफ अदालत में अभियोग निर्धारित हो चुके हैं.
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विधि आयोग की सिफारिशों और निर्वाचन आयोग के सुझावों के मद्देनजर मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार 2014 में ही ऐसे व्यक्तियों को चुनाव प्रक्रिया से बाहर रखने पर विचार कर रही थी. जिनके खिलाफ संगीन अपराध के आरोप में अदालत में अभियोग निर्धारित हो चुके हैं, लेकिन चुनाव नजदीक होने के कारण यह प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ सका था. इसके बाद इस मामले में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई.
चूंकि आपराधिक छवि वाले व्यक्तियों को चुनाव में टिकट नहीं देने के सवाल पर राजनीतिक दलों में आमसहमति का अभाव है, ऐसी स्थिति में उम्मीद की जानी चाहिए अनुच्छेद 370 के अधिकांश प्रावधान खत्म करने और नागरिकता संशोधन कानून बनाने जैसे कठोर कदम उठाने वाली केन्द्र सरकार उच्चतम न्यायालय में लंबित मामले के मद्देनजर जन प्रतिनिधित्व कानून में अपेक्षित संशोधन करके उन व्यक्तियों को चुनाव लड़ने के अयोग्य बनाने का प्रावधान करेगी जिनके खिलाफ गंभीर अपराध के आरोप में अदालत में अभियोग निर्धारित हो चुके हैं. यदि सरकार ने इस संबंध में कानून में अपेक्षित संशोधन कर दिया तो निश्चित ही यह देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत बनाने की दिशा में अत्यंत महत्वपूर्ण कदम होगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. इस लेख में उनके विचार निजी हैं)