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Thursday, 25 April, 2024
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पायलट, सिंधिया ने ममता, पवार और जगन की तरह नई पार्टी क्यों नहीं बनाई

शरद पवार और ममता बनर्जी जैसे लोग अपनी अलग पार्टी बनाने के बाद बड़े नेताओं के रूप में उभरे, लेकिन मोदी-शाह के दौर में स्थितियां एकदम बदल गई हैं.

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अपेक्षाकृत युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट संभवत: सही मौके पर एक नई पार्टी गठित करने, और लोगों को कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों का बहुप्रतीक्षित विकल्प उपलब्ध कराने का मौक चूक गए हैं. यद्यिप सिंधिया भाजपा में शामिल हो चुके हैं, पायलट किधर जाएंगे यह अभी अस्पष्ट है. लेकिन अब तक, राजस्थान के पूर्व उपमुख्यमंत्री की तरफ से नया संगठन खड़ा करने का कोई संकेत या झुकाव नजर नहीं है और वह केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी की ओर पींगे बढ़ाते ही दिख रहे हैं.

सिंधिया और पायलट कोई शरद पवार, ममता बनर्जी या यहां तक कि वाई.एस. जगनमोहन रेड्डी नहीं हैं—अलग-अलग मत वाले इन क्षेत्रीय नेताओं ने कांग्रेस से नाता तोड़कर अपने खुद के राजनीतिक दल खड़े किए और उसमें सफलता भी हासिल की.


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भाजपा ही क्यों?

सिंधिया और पायलट ने नई पार्टी बनाने का साहस क्यों नहीं दिखाया? निश्चित तौर पर, सिंधिया के लिए भाजपा एक मुश्किल विकल्प है, खासकर वैचारिक स्तर पर. और अपने विकल्पों की तलाश में पायलट की भी दुविधा सिर्फ यही हो सकती है. उनके जैसे धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील छवि वाले नेताओं के लिए एक भाजपा जैसी बहुसंख्यकवादी, हिंदूवादी पार्टी के साथ किसी भी तरह जुड़ना उन्हें केवल असहज ही करेगा.

इन लोगों के लिए भाजपा एक आकर्षक रास्ता इसलिए बन जाती है क्योंकि पहले से स्थापित पार्टी में शामिल होना, जो मौजूदा समय में राजनीतिक और लोकतांत्रिक रूप से प्रभुत्व में है, नए सिरे से किसी शुरुआत की तुलना में काफी आसान है. एक नई पार्टी खड़ी करना जटिल, हाड़-तोड़ मेहनत वाला और बेहद दुष्कर कार्य है. इसके लिए एक व्यापक जनाधार, समय, शक्ति, धनबल, तजुर्बा, धैर्य, एक दिशानिर्देशक विचार या बाध्यकारी विचारधारा की जरूरत पड़ती है, और इस सबसे इतर नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और भाजपा की लगातार चुनाव जीतने की क्षमता के बीच मतदाताओं का रुख भांपने की क्षमता और आत्मविश्वास सबसे अहम हो जाता है.

या फिर आपका अरविंद केजरीवाल जैसा विद्रोही होना जरूरी है जो किसी एक एजेंडे (उनके मामले में भ्रष्टाचार-विरोधी) पर सवार होकर, एक पार्टी बनाकर सारी मान्य व्यवस्थाओं को ध्वस्त करने का साहस करे, और सत्ता के दिल–राष्ट्रीय राजधानी पर कब्जा कर ले. अगर उम्र की बात छोड़ दें तो सिंधिया, और जैसा कि स्पष्ट दिखता है, पायलट में भी इस तरह के गुण नहीं हैं. लेकिन पंजाब और हरियाणा में हार के बाद तो केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के लिए भी लंबे संघर्ष में सफल रहना मुश्किल हो सकता है.

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इससे पहले, जब भी कोई नया राष्ट्रीय विकल्प उभरा–इंदिरा गांधी के आपातकाल और राजीव गांधी के समय बोफोर्स घोटाले के बाद–सत्तारूढ़ दल की कमजोरियों की वजह से एक उपयुक्त राजनीतिक वातावरण मौजूद रहता था. लेकिन मोदी और अमित शाह ऐसे किसी विपक्षी विकल्प को उभरने देने का कोई मौका ही नहीं दे रहे हैं. यही कारण है कि कांग्रेस छोड़ने वाले किसी भी नेता के लिए आज नए सिरे से शुरुआत करना आसान नहीं है. वैसे केजरीवाल ने भी अपनी पार्टी की शुरुआत मोदी-शाह युग से पहले की थी.


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सिंधिया-पायलट की दिशा

ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट में एक आम तो समान है-दोनों को लगता है कि दिसंबर 2018 में मध्य प्रदेश और राजस्थान में विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत के बाद उन्हें अपने-अपने राज्यों का मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए था, और वरिष्ठों के अहम के आगे उन्हें भेंट चढ़ा दिया गया.

वे अपने इस आकलन में सही हैं कि कांग्रेस नेतृत्व युवा क्षेत्रीय क्षत्रपों को आगे बढ़ने देने में एक तरह से काफी असुरक्षित और आत्म-केंद्रित है.

सिंधिया ने 22 विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़ी थी. लेकिन अगर वह मध्य प्रदेश में अपने जनाधार को लेकर इतने ही आश्वास्त थे—मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने का आत्मविश्वास था–तो उन्होंने अपनी पार्टी लांच क्यों नहीं की? उस भाजपा में ही क्यों गए, जिसके पास पहले से ही एक कद्दावर नेता और तीन बार के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान थे? यदि कांग्रेस से यही नाराजगी थी कि मुख्यमंत्री पद देने से इनकार किया जा रहा था, तो सिंधिया भाजपा में उससे कम किसी बात पर राजी क्यों हुए? क्या केंद्र में मंत्री पद पाना, अगर राजनीतिक हलकों में चर्चा पर ध्यान दें तो, ही वह सब कुछ है जो कांग्रेस छोड़ते समय उनके दिमाग में चल रहा था?

इस सबके बीच, सचिन पायलट ने कभी भी राजस्थान के मुख्यमंत्री बनने की अपनी महत्वाकांक्षा को छिपाया नहीं, और यह भी कि कैसे ‘गलत तरीके से’ उन्हें कुर्सी से दूर किया गया—उनकी नजर में यह नाराजगी अनुचित नहीं है. लेकिन अगर पायलट ने वास्तव में राज्य में जमीनी स्तर पर इतनी मेहनत की थी, अपने लिए जमीन खड़ी की और लोगों के प्रतिनिधित्व का आधार बनाया, तो एक नई राजनीतिक पार्टी शुरू करने और उसके जरिये बदलाव लाने का जोखिम क्यों नहीं उठाया? हालांकि उनके बारे में कुछ कहना अभी जल्दबाजी होगा क्योंकि उनका अगला कदम अभी अनिश्चित बना हुआ है, लेकिन अगर उन्हें ऐसा करना होता तो अब तक इस दिशा में कदम उठ जाना चाहिए था.

क्या कांग्रेस के युवा तुर्क –जिन सभी का समान रूप से पार्टी से मोहभंग हो रहा है—इस आधार पर साथ आकर एक नया संगठन नहीं खड़ा कर सकते थे कि वह इसे हर राज्य से किस तरह जोड़ेंगे?

एक स्थापित मंच पर जगह बनाना बहुत आसान है. स्टार्टअप्स कम से कम राजनीति में तो कभी आसान नहीं होते हैं. यदि तात्कालिक शक्ति हासिल करना ही एकमात्र उद्देश्य है, तो नई पार्टी लांच करना कभी नहीं चलेगा. इसके लिए वोटबैंक बनाने की क्षमता, कड़ी मेहनत और इन सबसे ऊपर लंबे समय तक सत्ता से बाहर रहकर इंतजार करने का धैर्य बहुत जरूरी होता है.

फंड जुटाना भी एक कठिन काम है. चुनावी राजनीति में अपनी जगह बनाने के लिए कड़ी मेहनत से तैयार और पोषित एक संगठन की जरूरत होती है. इसके लिए कम से कम शुरुआती चरण में अपने अहम को दरकिनार करने और पार्टी को खुद से पहले रखने की क्षमता की आवश्यकता होती है.


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कुछ साहसिक नेता

अनुभवी राजनेता शरद पवार ने 1999 में सोनिया गांधी के नेतृत्व पर नाखुशी जताते हुए कांग्रेस छोड़ दी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया. उन्होंने महाराष्ट्र की राजनीति में बिग बॉस का मुकाम हासिल किया. पार्टी भले ही मुख्यत: एक राज्य तक ही सीमित रही है, लेकिन लोकसभा में महाराष्ट्र की सीटों की अच्छी-खासी संख्या—48—को देखते हुए पवार राष्ट्रीय स्तर पर काफी अहमियत रखते हैं, कई बार केंद्रीय मंत्री के रूप में सेवाएं दे चुके हैं.

ममता बनर्जी के बारे में किसी को ज्यादा बताना नहीं पड़ेगा. कांग्रेस के साथ रिश्तों में कड़वाहट के बाद उन्होंने 1997 में तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की. पश्चिम बंगाल में सियासी जड़ें जमाना आसान नहीं था—वहां वामपंथियों की पकड़ बेहद मजबूत थी और राज्य की राजनीति जितनी अस्पष्ट थी उतनी ही हिंसक भी थी. बनर्जी ने खुद को परिस्थितियों के अनुकूल ढाला, पर्याप्त धैर्य दिखाया और 2011 आते-आते वो कर दिखाया जो अकल्पनीय किया था. उन्होंने राज्य में न केवल 34 साल बाद वाम मोर्चे को सत्ता से बेदखल किया बल्कि उसे लगभग खात्मे की करीब पहुंचा दिया. आज, वह देश की सबसे मुखर और सशक्त विपक्षी नेताओं में से एक हैं.

आंध्र प्रदेश में वाई.एस. जगनमोहन रेड्डी की राजनीतिक दशा-दिशा भी कम दिलचस्प नहीं है. अपने पिता और पूर्व सीएम वाई.एस. राजशेखर रेड्डी के आकस्मिक निधन के बाद जगन ने खुद को दोराहे पर खड़ा पाया. अगले कुछ महीनों तक जी-तोड़ मेहनत और पूरे राज्यभर का दौरा करने के बाद 2011 में इस युवा नेता ने युवजन श्रमिका रेथू कांग्रेस पार्टी, या वाईएसआरसीपी की नींव रखी. 2019 में महज 44 साल की उम्र में जगन चुनाव में भारी जीत हासिल करके आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए.

असम के हेमंत बिस्व सरमा, एक और असंतुष्ट कांग्रेसी नेता, की कहानी थोड़ी अलग है. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कांग्रेस की हाईकमान संस्कृति की आलोचना करने के बाद पार्टी छोड़ दी, लेकिन वह अपनी पार्टी बनाने के बजाय भाजपा में शामिल हो गए. वो एक ऐसी पार्टी, जो दशकों से राज्य में वर्चस्व कायम रखे हुए थी, को छोड़कर उस पार्टी में शामिल हुए जो कभी वहां सत्ता में नहीं रही थी, यहां तक कि जिसका पारंपरिक रूप से कोई जनाधार भी नहीं था. इसलिए उन्होंने भले ही अपना खुद का संगठन खड़ा नहीं किया लेकिन एक एकदम नए खिलाड़ी का हाथ थामने का जोखिम उठाया. बहरहाल, उन्होंने राज्य स्तर पर अपने बलबूते ही, मोदी की लोकप्रियता और शाह के प्रबंधन कौशल की मदद से, न केवल असम में बल्कि पूरे पूर्वोत्तर में भाजपा के लिए ठोस जनाधार खड़ा किया.


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सिंधिया और पायलट के बारे में एक बड़ा सवाल बना हुआ है-आखिर उनका लक्ष्य क्या है? अगर आसानी से सत्ता के गलियारे में पहुंच बनानी है, तो भाजपा सही विकल्प हो सकती है. लेकिन अगर सही मायने में एक पहचान कायम करनी है और एक राजनीतिक विरासत की नींव रखनी है तो वे अपने-अपने राज्यों के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर भी भाजपा और कांग्रेस के आधिपत्य का मुकाबला करने में सक्षम मजबूत और विश्वसनीय विकल्प देने के प्रति गहरी उदासीनता दिखाकर अपने साथ-साथ भारतीय राजनीति का भी बड़ा नुकसान कर रहे हैं.

(यहां व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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