तो अब चीन भी भारत के रास्ते पर चल पड़ा है और ‘आत्मनिर्भरता’ का आसरा ले रहा है. इसके शीर्ष नीति निर्धारकों ने आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए निर्यात बाज़ार की बजाए घरेलू बाज़ार पर अधिक ध्यान देने का फैसला किया है. वे अहम तकनीकों और उत्पादन सुविधाओं को अपने यहां लाकर व्यापार प्रतिबंधों के कारण होने वाले नुकसानों को कम करना चाहते हैं. भारत भी यही चाहता है.
दोनों देश आत्मनिर्भरता की बात तब कर रहे हैं जब कुछ वर्षों से उनके यहां जीडीपी में विदेश व्यापार का अनुपात गिर रहा है. 2019 में चीन का दोतरफा व्यापार जीडीपी के 36 प्रतिशत के बराबर था, जबकि 2006 में यह 64 प्रतिशत के बराबर था. भारत में व्यापार-जीडीपी अनुपात 2011 में ऊपर चढ़ा और 56 प्रतिशत हुआ लेकिन अब 40 प्रतिशत पर आ गया है. बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में यह सबसे बड़ी गिरावट है. अमेरिका में यह गिरावट छोटी है— 2008 में 30 प्रतिशत से घटकर 2018 में 28 प्रतिशत पर. जापान में इसका उलटा हुआ है और एक दशक में यह 34 से बढ़कर 37 प्रतिशत पर पहुंचा. यूरोपीय संघ में भी संघ से बाहर के व्यापार के मामले में यही हुआ है. वैश्विक जीडीपी में विश्व व्यापार का हिस्सा पिछले दशक में 2 प्रतिशत अंक से घटा है. इसके लिए चीन और भारत में आई भारी गिरावट ही मुख्य कारणों में शामिल है (सभी आंकड़े www.macrotrends.net.से).
चीन और भारत केवल इस भारी गिरावट के कारण ही नहीं बल्कि इसलिए भी अलग नज़र आते हैं कि दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार इन दोनों देशों की तरह दूसरे देशों में भी यह अनुपात उनके स्तर तक नहीं पहुंचा था. इसलिए संभव है कि शुद्ध आंकड़ों के लिहाज से और आर्थिक विकास के संदर्भ के बिना व्यापार की हिस्सेदारी किसी चरण में गिरनी ही थी. ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि दोनों देशों में एक तरह की प्रवृत्ति एकदम विपरीत कारणों से उभरी.
चीन के मामले में यह सफलता से उपजी समस्या है. शेष विश्व अर्थव्यवस्था साल-दर-साल अतिरिक्त चीनी निर्यातों को, खासकर उत्पादित सामान को स्वीकार करे इसकी भी सीमा है, क्योंकि उनके कारण कई देशों में घरेलू उत्पादन में गतिरोध आता है. इसके चलते उन देशों में रोजगार की कटौती भी आय में असमानता का कारण रही है. इसके राजनीतिक असर होते हैं और संरक्षणवाद को बढ़ावा मिलता है जैसा कि भारत में हुआ है.
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चीन भी एक सीमा तक बर्दाश्त कर सकता था क्योंकि 2006 तक इसका व्यापार सरप्लस आश्चर्यजनक रूप से जीडीपी के 8 प्रतिशत के बराबर पहुंच गया था और विदेशी मुद्रा भंडार 2014 में बढ़कर 4 ट्रिलियन डॉलर (उस साल जीडीपी के 40 प्रतिशत के बराबर) का हो गया था. अब यह भंडार 3.2 ट्रिलियन डॉलर का है और अभी भी दुनिया में सबसे बड़ा है.
अंत में, कुल आर्थिक वृद्धि की तेज गति के कारण चीन में आय उस स्तर पर पहुंच गई थी कि वह देश गारमेंट और फुटवियर जैसे श्रम आधारित उत्पादों के सोर्स सेंटर के रूप में कम प्रतिस्पर्द्धी हो गया था. इसलिए हाल के वर्षों में कारखाने वहां से हट कर वियतनाम और बांग्लादेश में जा रहे थे. इसलिए चीन के लिए अपने घरेलू बाज़ार पर ध्यान देने के सिवा कोई उपाय नहीं बचा था.
भारत के मामले में, जीडीपी में व्यापार की हिस्सेदारी में गिरावट सफलता से ज्यादा विफलता को दर्शाती है. जींसों का व्यापार 2011-12 से 300 अरब डॉलर के बराबर मूल्य के इर्द-गिर्द घूमता रहा है. इसी दौरान आयात भी शिखर पर पहुंच गया और इससे ऊपर सात साल के बाद ही जा पाया. सेवाओं के व्यापार की कहानी दूसरी है क्योंकि यह लगातार बढ़ता जा रहा है और जींसों के व्यापार के मुकाबले अनुपात से अलग रहा है, विश्व औसत का दोगुना.
शिक्षा, मेडीकेयर, पर्यटन जैसी सेवाएं श्रम आधारित हैं. लेकिन यह जींसों का व्यापार जिसके तार कई तरफ जुड़े होते हैं, क्योंकि मैनुफैक्चरिंग के लिए कच्चा माल, बिजली, परिवहन और कई अन्य चीजों की जरूरत पड़ती है. इसलिए इसके विस्तार के असर बड़े होते हैं. बांग्लादेश और वियतनाम इस रास्ते पर चलकर सफल हुआ है. इसके विपरीत भारत ने सेवाओं के निर्यात से सफलता हासिल की है. कई सेवाओं के कारोबार में बेहतर मार्जिन और मूल्यांकन खेल के कारण वे संपत्ति का ज्यादा केन्द्रीकरण करते हैं. इसलिए भारत में ‘यूनिकॉर्णों’ और अरबपतियों की संख्या प्रभावशाली दिखती है.
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