1982 में पहले अमेरिका दौरे पर, आपके स्तंभकार के सामने दो चीज़ें स्पष्ट थीं. पूंजीवादी विचारधारा के बावजूद, उसके समाज में एक आश्चर्यजनक समानता थी- जो युद्ध के बाद सामाजिक सुरक्षा, कर-निर्धारण, श्रम, और औद्योगिक विकास का नतीजा थी. जो इससे बाहर थे वो अनिवार्य रूप से, अफ्रीकन-अमेरिकी थे. बाक़ियों के लिए बुनियादी सुविधाएं (आवास, भोजन, कपड़ा, चिकित्सा देखभाल) अपेक्षाकृत सस्ती और किफायती थीं. मध्य-आय परिवार के लिए मकान की क़ीमत, साढ़े चार साल के वेतन के बराबर थी, जो आज 6.25 वर्ष के बराबर है. एक औसत श्रमिक और सीईओ के वेतन का अनुपात 30:1 था, आज का 300:1 नहीं. और स्वास्थ्य सेवाओं की लागत भी कम थी. जीडीपी के अंश के तौर पर, तब से उनमें दो तिहाई की वृद्धि हो चुकी है.
दूसरी चीज़ जिसे आप 1982 में मिस नहीं कर सकते थे, वो था मशहूर अमेरिकी आशावाद का ख़त्म हो जाना. अग्रणी अमेरिकी कंपनियों में नौकरियों में कटौती की ख़बरें, हर रोज़ सुर्ख़ियों में रहती थीं. मध्य अमेरिका खोखला होना शुरू हो चुका था, हालांकि जीडीपी के मुक़ाबले कंपनियों के मुनाफे बढ़ गए थे. उसके अंदर, वित्तीय क्षेत्र के मुनाफे का हिस्सा बाद में तेज़ी से बढ़ा, जब विनियमन में ढील से वित्तीय ‘नवीनता’ की एक ऐसी चिंगारी पैदा हुई, जिसने आगे चलकर 2008 के वित्तीय संकट को जन्म दिया.
इन बदलावों के साथ ही, शीर्ष पर आयकर में कटौती की गई, और बहुत कम या बिल्कुल बिना टैक्स वाली आईलैंड हुकूमतों के आने की वजह से, कॉर्पोरेट टैक्स को नीचे लाने की होड़ शुरू हो गई. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, पूंजी को खेलने के लिए ज़्यादा जगह मिल गई, चूंकि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने मुक्त पूंजी परिवर्तनीयता को बढ़ावा दिया (जो इसके मूल आदेश का हिस्सा नहीं था). व्यापक अर्थ में, ये वो दुनिया थी जिसे रीगन-थैचर ने बनाया था, और जिसे उससे बढ़ावा मिला, जिसे 1989 में वॉशिंगटन आम सहमति कहा गया: रूढ़िवादी वित्तीय नीति, सीमित सब्सीडीज़, मुक्त अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, सकारात्मक वास्तविक ब्याज दरें (मुद्रास्फीति से ऊंची) लाने के लिए बाज़ार का अनुकूलन, तथा निजीकरण आदि.
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घूम फिर कर वहीं पहुंचना
हर फैशन की तरह, बुद्धिजीवी फैशन भी गोल गोल घूमता है. करों का वांछित स्तर भी स्कर्ट की लंबाई की तरह ऊपर नीचे हो सकता है. रोलबैक की शुरूआत, 1997 के एशियाई वित्तीय संकट के बाद, धीरे धीरे हुई थी, जब आईएमएफ ने पूंजी खाते की परिवर्तनीयता को त्याग दिया था, और बाद के हर संकट के साथ, इसकी रफ्तार में इज़ाफा हुआ है. 2008 के बाद अमेरिका में, वित्तीय क्षेत्र के लापरवाह व्यवहार पर लगाम कसी गई, और अब महामारी नए जवाब मांग रही है. आर्थिक व्यवधान, बढ़ती असमानता और सरकारी संसाधनों की कमी के चलते, आर्थिक व्यवहार (अगर सिद्धांत नहीं) घूम-फिर कर वहीं पहुंच रहा है.
‘कर लगाओ और ख़र्च करो’ का अपमानजनक तकिया कलाम, एक नया मंत्र बन सकता है. ब्याज दरें मुद्रास्फीति से कम रखी जा रही हैं, क्योंकि केंद्रीय बैंकों ने टोंटी खोल दी है, और अपनी बैलेंस शीट्स को फुला लिया है (जिससे कभी बचा जाता था). सरकारों ने भी टोंटी खोल दी है, जिनमें अमेरिका सबसे आगे है, और ऐसे संकेत हैं कि नए सम्पत्ति करों पर बढ़ती बहस के बीच, एक धनी देश ऊंचे कंपनी करों पर, बदला-ख़रीद कर रहा है. इस बीच, क्षेत्र के बाद अब देश भी अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की राह में, टैरिफ तथा दूसरी दीवारें खड़ी कर रहे हैं.
भारत वापस से स्वाभाविक हो गया है, और नए नज़रियों के साथ सहमत हो गया है. मुक्त व्यापार समझौतों को लेकर हमेशा संशय में रही मोदी सरकार ने, अपनी ‘मेक-इन-इंडिया’ पहल का इस्तेमाल करते हुए, बिना किसी संकोच के पुरानी ‘चरणबद्ध मैन्युफैक्चरिंग पॉलिसी’ के, एक नए रूप को अपना लिया है. बचत करने वालों को ब्याज दरों पर, फिर से निचोड़ा जा रहा है. सरकार पीक इनकम टैक्स की दरों में लगातार बढ़ोतरी कर रही है (अब ये 42.74 प्रतिशत है, जो 1997 के चिदम्बरम के 1997 के बजट में 30 प्रतिशत थी), लेकिन अभी तक डॉलर अरबपतियों की बढ़ती दौलत पर, टैक्स लगाने की किसी भी बात को उठने नहीं दिया है. लेकिन, सरकारों की ओर से ग़रीबों को नक़द सहायता बढ़ाने से पैदा हुआ वित्तीय घाटा, इसमें बदलाव के लिए मजबूर कर सकता है. और चूंकि, पिछले साल कंपनी कर से होने वाली आय उतनी ही थी, जितनी पांच साल पहले थी, इसलिए सरकार अग्रणी देशों के, उन क़दमों का स्वागत कर सकती हैं, जिनमें कंपनी कर की दरें न्यूनतम रखी गई हैं.
कर की ऊंची दरें, केंद्रीय बैंकों का नक़दी डालना, घरेलू उद्योग का संरक्षण, ब्याज दरों को दबाकर रखना, सामाजिक कल्याण के लिए भुगतान बढ़ाना- ये सब थैचर-रीगन से पहले की याद दिलाता है. यक़ीनन, कर 70-80 प्रतिशत की उस रेंज में वापस नहीं जाएंगे, जो कभी ब्रिटेन और अमेरिका (जैसी भारत में) रहा करती थी, और जब उत्पादों और सेवाओं की बात आती है, तो सरकारें अभी भी, बाज़ार को अनुकूल बनाने में विश्वास रखती हैं. लेकिन वो फिज़िकल इनफ्रास्ट्रक्चर बनाने, और शोध को वित्त-पोषित करने की, अपनी पुरानी भूमिका में वापस आ रही हैं. वैक्सीन्स के लिए तो मूल्य नियंत्रण भी वापस आ गया है. क्या केन्यूट के रोल के लिए कोई वॉलंटियर है, जो पुराने विचारों की इस उठती हुई लहर को वापस लौटने का हुक्म दे दे?
(बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष व्यवस्था द्वारा)
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