बांग्लादेश के एकदम तटवर्ती इलाके में स्थित कॉक्स बाजार में जब सूरज नीचे आकर समुद्र में समाता नजर आता है, तब इसका कोई अहसास नहीं रहता कि हाल ही में भाजपा के दो नेताओं की तरफ से पैगंबर मोहम्मद के खिलाफ की गई टिप्पणियों को लेकर यहां से कुछ ही किलोमीटर आगे टेकनफ में पिछले हफ्ते विरोध प्रदर्शन हुआ था. जब आपके पैर दुनिया के सबसे लंबे नेचुरल बीच की नरम रेत में धंसते हैं तो बस ऐसा महसूस होता है कि दूर कहीं ढाका की बैतुल मुकर्रम मस्जिद में गूंजते भारत विरोधी नारों की आवाज बंगाल की खाड़ी में उठती-गिरती लहरों में ही कहीं समाहित हो गई है.
वैसे तो भारत कभी भी बांग्लादेश से दूर नहीं रहा, लेकिन पिछले हफ्ते यह नजदीकी विशेष रूप से बढ़ी नजर आई. पिछले दिनों भाजपा के दो पूर्व नेता सभी की आंखों में चढ़े हुए थे, क्योंकि पैगंबर के खिलाफ उनकी अपमानजनक टिप्पणियों ने इस्लामी दुनिया को गुस्से से भर दिया था. कम से कम 20 देशों और संगठनों ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया जताते हुए बयान जारी किए और कुछ ने तो भारतीय राजदूतों तक को तलब कर डाला. लेकिन इस पूरे प्रकरण पर बांग्लादेश ने बिल्कुल चुप्पी साध रखी है.
बांग्लादेश के सूचना मंत्री हसन महमूद ने इस सप्ताहांत वहां पहुंचे कुछ भारतीय पत्रकारों, जिसमें मैं भी शामिल थी, के एक समूह से कहा, ‘हम पैगंबर साहब के सम्मान से कोई समझौता नहीं कर रहे. जब भी और जहां भी पैगंबर का कोई अपमान होता है, हम उसकी कड़ी निंदा करते हैं. लेकिन भारत सरकार ने कार्रवाई की है और हम इसके लिए उन्हें धन्यवाद देते हैं. हम उन्हें बधाई देते हैं. अब कानून अपना काम करेगा.’
महमूद का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस तरह प्रशंसा करना निश्चित तौर पर थोड़ा असामान्य है. मोदी जबसे सत्ता में आए हैं, ये संभवत: पहला मौका है जब प्रधानमंत्री को सत्ताधारी पार्टी के ही नेताओं की तरफ से पैगंबर पर की गई विवादास्पद टिप्पणियों के कारण अपनी विदेश नीति को लेकर बैकफुट पर आना पड़ा है. इस्लामी जगत की तरफ से गई आलोचना जाहिर तौर पर आहत करने वाली है.
बहरहाल, प्रधानमंत्री संभवत: जून के अंत तक संयुक्त अरब अमीरात की यात्रा करेंगे, जब वह जर्मनी में जी-20 शिखर सम्मेलन-जिसमें भारत को कमान संभालनी है- में हिस्सा लेकर लौट रहे होंगे, और इस दौरान वह स्पष्ट तौर पर यूएई के सामने यह पक्ष रख सकते हैं कि नूपुर शर्मा-नवीन जिंदल ने जो भी बोला, वो पार्टी लाइन के एकदम खिलाफ था.
लेकिन यूएई ही क्यों? दरअसल, पैगंबर प्रकरण में अबू धाबी ने भाजपा नेताओं की टिप्पणियों की आलोचना तो की है, लेकिन अन्य इस्लामी देशों की तरह उसने भारतीय राजदूत को तलब नहीं किया. इसके अलावा, हाल में भारत और संयुक्त अरब अमीरात के बीच एक महत्वपूर्ण मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर भी किए गए हैं. मोदी की दुबई और अबू धाबी की यात्रा निश्चित तौर पर यह संकेत देने वाली होगी कि प्रधानमंत्री किसी की भी वजह से अपनी खाड़ी नीति संबंधी उपलब्धियों पर आंच नहीं आने देंगे.
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खून का रिश्ता
संयुक्त अरब अमीरात की तरह बांग्लादेश को भी यह बात अच्छी तरह पता है कि भारत में सत्ता की ताकत कहां निहित है. कांग्रेस नेता इंदिरा गांधी ने भले ही 50 साल पहले बांग्लादेश को मुक्ति संग्राम जीतने में मदद की हो, लेकिन उनकी पार्टी आजकल अपना गुस्सा ज्यादातर ट्वीट करके और सोशल मीडिया पर भड़क कर ही जाहिर करती है. अन्य क्षेत्रीय दल अपने आप में तो ताकतवर हैं, लेकिन तथ्यात्मक तौर पर यही सही है कि आज राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प नहीं है.
इस क्षेत्र में राजनीतिक तौर पर सबसे घाघ नेताओं में शुमार बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना यह बात अच्छी तरह समझती हैं. बांग्लादेश में चीन की मौजूदगी काफी महत्वपूर्ण है, जो वहां पुलों, सड़कों और रेलवे लाइनों का निर्माण कर रहा है, लेकिन भारत का कद इतना बड़ा है कि उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.
इस सप्ताहांत ढाका में भारतीय पत्रकारों के साथ बातचीत के दौरान महमूद और उनके सहयोगियों ने यह बयान फिर दोहराया कि ‘भारत और बांग्लादेश के बीच तो खून का रिश्ता है.’ वे निश्चित तौर पर 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में लगभग 3,900 भारतीय सैनिकों के बलिदान और करीब 10,000 अन्य के घायल होने का उल्लेख कर रहे थे. यह ऐसी भावना है जो पूरे बांग्लादेश में व्यापक तौर पर समाई हुई है. पूरे देश में छात्रों से लेकर दुकानदारों और राजनेताओं तक से आप यह लाइन सुन सकते हैं, ‘भारत ने अपने घर और चूल्हे उन लोगों के साथ साझा किए जो स्वतंत्रता चाहते थे.’
यही कारण है कि सत्तारूढ़ अवामी लीग द्वारा पैगंबर विवाद या किसी अन्य वजह से नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की निंदा न करने के पीछे कहीं न कहीं यह अहसास अंतर्निहित है कि वह दक्षिण एशिया के सबसे शक्तिशाली नेताओं में से एक हैं. शायद तभी जब गृह मंत्री अमित शाह ने कुछ साल पहले राजनयिक तौर पर अनपेक्षित टिप्पणी करते हुए बांग्लादेशी घुसपैठियों को ‘दीमक’ करार दिया था, तब बांग्लादेशी या तो इस अपमान को निगल गए थे या फिर इसे नजरअंदाज कर दिया था.
एक अन्य उदाहरण भी है. सप्ताहांत में ढाका में अनौपचारिक बातचीत के दौरान महमूद से पूछा गया था कि प्रधानमंत्री शेख हसीना अगले कुछ महीनों में जब नई दिल्ली का दौरा करेंगी तो क्या तीस्ता नदी के जल बंटवारे का मुद्दा एजेंडे में होगा.
इस पर महमूद ने काफी सतर्कता के साथ जवाब दिया. उन्होंने कहा, ‘तीस्ता पर, मसला प्रांतीय सरकार (पश्चिम बंगाल) के साथ उलझा है, केंद्र सरकार के साथ नहीं. इसलिए तीस्ता पर कोई सहमति न होने के बावजूद पीएम हसीना भारत दौरा कर सकती हैं. हालांकि, हमें उम्मीद है कि इस मुद्दे को जल्द से जल्द सुलझा लिया जाएगा.’
कई सालों से बांग्लादेश के लिए ऐसे भावनात्मक मुद्दे पर महमूद का मोदी सरकार पर कोई आरोप न लगाना और इसके बजाये पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को जिम्मेदार ठहराना यह दर्शाता है कि हसीना सरकार का इरादा क्या है.
बांग्लादेश मॉडल
बहरहाल, भले ही बांग्लादेशियों के पास उचित कारण हों, पैगंबर मुद्दे को लेकर जुमे की नमाज के बाद देशभर की कई मस्जिदों के बाहर हुए भारत विरोधी प्रदर्शन भारत को दो स्पष्ट संदेश भेज रहे हैं.
पहला यह कि, ‘देखें, हम किसके खिलाफ हैं.’ और दूसरा, ‘अवामी लीग के अलावा कोई विकल्प क्यों नहीं है’ और ऐसा लगता है कि दिल्ली को दोनों संदेश ठीक-ठीक मिल भी गए हैं. कुल मिलाकर, तथ्य यह है कि अवामी लीग मस्जिदों में भारत विरोधी नारों को नियंत्रित कर सकती है और स्थिति हाथ से बाहर नहीं निकलने देती. और फिर भारत को बधाई वाली टिप्पणी के साथ आगे आती है, जो शेख हसीना और बांग्लादेश को विदेशों में मोदी के दोस्तों और भागीदारी की अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर देता है.
इसके अलावा एक और पहलू भी है. इधर, जहां भाजपा खुद अपने बड़बोले प्रवक्ताओं पर लगाम कसने में सक्षम नहीं हो पाई, जो इस्लाम विरोधी बयानबाजी में इतने ज्यादा उत्तेजित हो गए कि सारी मर्यादाओं को भूल गए. वहीं, हसीना को भी हिंदू विरोधी प्रदर्शनों से सख्ती से निपटना पड़ा है. पिछले साल कोमिला में एक दुर्गा पूजा पंडाल में तोड़फोड़ और इसी तरह की अन्य घटनाओं पर बांग्लादेश की प्रधानमंत्री के सख्त आदेश के बाद ही काबू पाया जा सका था.
महमूद ने पुष्टि की कि इन घटनाओं के पीड़ितों को उनके नुकसान से दो-तीन गुना तक मुआवजा दिया गया है.
गहराते धुंधलके के बीच जब कॉक्स बाजार में दूर-दूर तक सिर्फ समंदर ही नजर आ रहा है, दिमाग के एक बात कौंधती है कि आज से करीब 50 साल पहले एक इस्लामिक राष्ट्र के गर्भ से जन्मे बांग्लादेश का मुस्लिम बहुल गणराज्य वाला सेक्युलर मॉडल दक्षिण एशिया के बाकी देशों के लिए क्या एक मॉडल बन सकता है या नहीं?
(लेखिका भारतीय पत्रकारों के उस समूह का हिस्सा थीं, जो पिछले सप्ताह बांग्लादेश की सरकार की तरफ से प्रायोजित यात्रा पर वहां पहुंचा था. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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