इंडिया टुडे ग्रुप और कार्वी इनसाइट्स द्वारा ‘मूड ऑफ द नेशन ‘ सर्वेक्षण में एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में 42 फीसदी की भारी गिरावट दर्ज की गई है वहीं दूसरी तरफ योगी आदित्यनाथ और अमित शाह की लोकप्रियता में वृद्धि हुई है.
प्रधानमंत्री के रूप में योगी को पसंद करने वालों की संख्या एक साल के भीतर 3 फीसदी से बढ़कर 11 फीसदी यानी लगभग चार गुनी हो गई है. जबकि अमित शाह को प्रधानमंत्री के रूप में देखने वालों की संख्या 4 फीसदी से बढ़कर 7 फीसदी हो गई है. ऐसे में सवाल उठता है कि नरेंद्र मोदी की गिरती लोकप्रियता और अमित शाह-योगी आदित्यनाथ की बढ़ती लोकप्रियता का क्या कारण है?
सरकार में होते हुए इस राजनीतिक ‘उलटफेर’ का क्या मतलब है?
जाहिर है कि आर्थिक बदहाली, कोरोना बदइंतजामी, बेतहाशा बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी के कारण नरेंद्र मोदी की गिरती लोकप्रियता पर किसी को आश्चर्य नहीं होगा लेकिन गृह मंत्री अमित शाह और यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ की बढ़ती लोकप्रियता जरूर चौंकाती है.
बहरहाल, नरेंद्र मोदी निश्चित तौर पर अपनी घटती लोकप्रियता से चिंतित होंगे. लेकिन उनके लिए योगी की बढ़ती लोकप्रियता ज्यादा चिंताजनक होगी.
दरअसल, मोदी के बाद भाजपा में दूसरे नंबर की हैसियत अमित शाह की है. अमित शाह ही नहीं बल्कि खुद मोदी भी उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनते देखना चाहेंगे.
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मोदी के विश्वसनीय सिपहसालार हैं अमित शाह
आजाद भारत में नेहरू-पटेल और अटल-आडवाणी के बाद मोदी-शाह की जोड़ी भारत की राजनीति में मशहूर ही नहीं बल्कि ज्यादा ताकतवर भी मानी जाती है.
अमित शाह और नरेंद्र मोदी राजनीतिक जीवन में करीब तीन दशक से एक साथ हैं. गुजरात के मुख्यमंत्री से लेकर भारत के प्रधानमंत्री बनने तक मोदी के साथ अमित शाह एक विश्वसनीय कनिष्ठ साथी और सहयोगी की तरह हमेशा खड़े रहे हैं.
माना जाता है कि मोदी की योजनाओं को अमित शाह जमीन पर उतारते हैं. पार्टी संगठन पर गहरी पकड़ रखने वाले अमित शाह नरेंद्र मोदी के सबसे मजबूत सिपहसालार हैं. माना जाता है कि अमित शाह ने कई बार नरेंद्र मोदी की राजनीतिक बाधाओं को दूर हटाने का काम किया है. बदले में नरेंद्र मोदी ने अमित शाह के लिए रास्ता ही नहीं बनाया बल्कि गुजरात और दिल्ली की राजनीति में उन्हें मजबूत भी किया है.
2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने अपनी चुनावी रणनीति बनाते हुए अमित शाह को यूपी का प्रभारी बनाया. खुद मोदी ने बनारस से चुनाव लड़ा. नतीजे में भाजपा ने यूपी की 80 सीटों में से 71 पर जीत हासिल की. इस चुनाव में भाजपा ने 282 सीटें जीतकर तीन दशक बाद पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई.
इसके बाद जुलाई 2014 में नरेंद्र मोदी ने अमित शाह को भाजपा का अध्यक्ष बनाया. अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने कई राज्यों में चुनाव जिताए. कभी उन्होंने ‘धनबल और छल’ से भी सरकारें बनाईं. इसके लिए उन्हें राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा ‘चाणक्य’ की उपाधि मिली. 9 अगस्त 2017 को वे राज्य सभा के लिए चुने गए लेकिन संगठन और चुनावी तंत्र की बागडोर उनके पास ही रही.
अमित शाह ने नरेंद्र मोदी के कारवां को आगे बढ़ाने में आक्रामक ढंग से काम किया. भाजपा को व्यवस्थित और मजबूत चुनावी तंत्र में तब्दील करने में अमित शाह की बड़ी भूमिका रही है. उन्होंने पार्टी का विस्तार किया. गांव, कस्बों और मोहल्लों में पार्टी प्रभारी से लेकर पन्ना प्रमुख तक बनाए गए.
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मोदी के ‘कोर्पोरेट मित्र’
नरेंद्र मोदी अपने कार्पोरेट मित्रों के लिए काफी चर्चित रहे हैं. 2002 का गुजरात विधानसभा चुनाव जीतने के बाद ही नरेंद्र मोदी ने आगे की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया था. उन्होंने देशी-विदेशी तमाम व्यवसायियों से संबंध मजबूत किए.
2007 के चुनाव से पहले मोदी ने तमाम कार्पोरेट सम्मेलन आयोजित किए. इनमें खासकर गुजराती अनिवासी व्यवसायियों को बुलाया गया. तमाम भारतीय उद्योगपतियों और इन व्यवसायियों द्वारा प्रदत्त आर्थिक और तकनीकी सहायता से मोदी ने अपनी ब्रांडिंग शुरू की.
दरअसल, यह दिल्ली की ओर बढ़ने का पहला कदम था. प्रधानमंत्री बनने के बाद भी नरेंद्र मोदी के उद्योगपतियों के साथ ‘निजी संबंध’ हैं. कार्पोरेट हितों के संरक्षण के बदले मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी को बड़े पैमाने पर चंदा मिलता है. इस चंदे का ज्यादातर इस्तेमाल पार्टी कार्यालय के खर्च और चुनावी प्रबंधन में होता है.
देश के सैकड़ों जिलों में बीघों में फैले वातानुकूलित पार्टी कार्यालय बने. दूसरी पार्टियों की तरह दुर्घटनाओं या लोगों की आर्थिक मदद करने के बजाय अमित शाह ने पार्टी फंड का इस्तेमाल अपने कार्यकर्ताओं पर किया.
मोटरसाइकिल, मोबाइल रिचार्ज खर्च से लेकर चुनाव में कार्यकर्ताओं पर भरपूर खर्च किया जाता है. भव्य और विशाल चुनावी रैलियां, सोशल मीडिया द्वारा प्रसारित प्रोपेगेंडा के लिए करोड़ों रुपया पानी की तरह बहाया जाता है. इसका प्रबंधन अमित शाह के जरिए ही होता है.
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‘नागरिक अधिकारों और स्वतंत्रता को कुचलने’ वाले गृह मंत्री
2019 के चुनाव में पिछली 282 सीटों के मुकाबले 303 सीटें जीतने के बाद नरेंद्र मोदी ने अमित शाह को गृह मंत्री बनाया. बतौर गृह मंत्री अमित शाह ने दक्षिणपंथी हिंदुत्व के कई बड़े मुद्दों को लागू किया.
5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 और 35ए को समाप्त करके जम्मू कश्मीर को दो संघ शासित राज्यों में विभाजित किया गया. इसके बाद असम और बंगाल जैसे चुनावों के तात्कालिक फायदे और दूरगामी विभाजन की रणनीति के तौर पर 12 दिसंबर 2019 को सीएए-एनआरसी कानून लाया गया. इसका ऐलान भी अमित शाह ने किया.
सीएए-एनआरसी के खिलाफ होने वाले शाहीन बाग जैसे मजबूत आंदोलन को खत्म करने में अप्रत्यक्ष तौर पर अमित शाह की भूमिका मानी जाती है.
दिल्ली दंगों में गृह मंत्रालय की भूमिका संदिग्ध और भेदभावपरक रही है. दंगों के बाद मुसलमानों और पिंजरा तोड़ जैसे स्त्रीवादी संगठन के कार्यकर्ताओं की एकतरफा गिरफ्तारियां की गईं. इसके पहले जेएनयू से लेकर जामिया के छात्र आंदोलनों को गृह मंत्रालय के अधीन दिल्ली पुलिस द्वारा बर्बरतापूर्वक कुचल दिया गया.
जेएनयू में कथित तौर पर एबीवीपी के ‘गुंडा ग्रुप’ ने रात में छात्रावासों में घुसकर छात्र-छात्राओं और प्रोफेसरों पर हमला किया. कैमरे में कैद और पहचाने गए इन ‘गुंडों’ पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की गई है.
इसके अतिरिक्त यूएपीए और देशद्रोह की धाराओं में आनंद तेलतुंबड़े जैसे आंबेडकरवादी और सुधा भारद्वाज, कवि वरवरा राव, दिवंगत फादर स्टेन स्वामी जैसे वामपंथी बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्टों के खिलाफ आईबी और सीबीआई की कार्रवाई भी गृह मंत्रालय के इशारे पर की गई है. और तो और किसानों के आंदोलन को भी कुचलने की पुरजोर कोशिश की गई.
गणतंत्र दिवस पर शामिल ट्रेक्टर परेड को हिंसक रंग देकर दर्जनों किसानों की गिरफ्तारियां की गईं. आंदोलन स्थल पर लाठियों से लैस पुलिसबल तैनात किया गया, तारों की बाड़ लगाई गई, लोहे की नुकीली कीलें लगाई गईं. इससे भी किसान आंदोलन नहीं टूटा, तब शाहीन बाग आंदोलन की तरह इसे भी निपटाने की कोशिश की गई. रात में कथित तौर पर भाजपा के कार्यकर्ताओं द्वारा किसानों पर हमला किया गया. फिर कोरोना की आड़ में पुलिसिया कार्रवाई की गई.
इन तमाम घटनाओं, कार्रवाईयों और हिंदुत्व की नीतियों को लागू करने के कारण अमित शाह की एक शक्तिशाली, कट्टर और तानाशाहीपूर्ण छवि बनी है. इस छवि के मद्देनजर अमित शाह को प्रधानमंत्री के रूप में पसंद करने वालों की संख्या में इजाफा होना विचारणीय है.
संवैधानिक संकल्पों, लोकतांत्रिक मूल्यों, नागरिक अधिकारों और स्वतंत्रताओं को बेरहमी के साथ कुचलने वाले गृह मंत्री को अगले प्रधानमंत्री के रूप में पसंद करने वालों की संख्या में वृद्धि होना बेहद चिंताजनक है.
(लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असिसटेंट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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