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Thursday, 31 October, 2024
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नरेंद्र मोदी से ज्यादा अमित शाह के लिए अहम है अगला लोकसभा चुनाव

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अगला लोकसभा चुनाव अमित शाह के लिए अब तक की सबसे बड़ी चुनौती है. वे वाकई चाणक्य हैं या नहीं, यह 2019 के चुनाव के बाद पता चलेगा.

इन दिनों स्पष्ट राजनीति और वैचारिक विभाजन के बीच एक गजब का जनमत दिखाई देता है कि भाजपा को 2019 के लोकसभा चुनाव में 200 के आसपास सीटें मिलेंगी. अगर एनडीए के सहयोगी दलों को भी मिला दें तो भाजपा आरास से सत्ता पर काबिज हो जाएगी. हालिया ओपियन पोल भी यही दिखाते हैं कि स्थिति कुछ ऐसी ही बनेगी.

कुछ लोगों का कहना है कि बिना बहुमत के नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं बन सकेंगे. गठबंधन नेतृत्व में बदलाव की मांग करेगा. नरेंद्र मोदी ऐसे निर्दयी पहलवान हैं जिनको छोटी पार्टियां पसंद नहीं करतीं. उनकी पार्टी के अंदर के लोग भी ऐसा महसूस करते हैं कि सारी शक्ति का प्रधानमंत्री कार्यालय में केंद्रीकरण करके उनको हाशिए पर डाल दिया गया है. मोदी के ऐसे आलोचक मोदी को व्यावहारिक योग्यता को कमतर आंकते हैं. जब उन्हें जरूरत होगी वे व्यावहारिक हो जाएंगे और जब उन्हें जरूरत होगी तो वे लोगों को अपने साथ आने के लिए राजी कर लेंगे. सबसे बेहतर उदाहरण है कि कैसे मोदी ने विपक्ष की सबसे बड़ी उम्मीद नीतीश कुमार को पिछले साल एनडीए में शामिल कर लिया.


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पिछली गठबंधन सरकारों के उदाहरण बताते हैं कि यदि भाजपा 2014 के मुका​बले 110 सीटें भी कम हो जाती हैं और 172 सीटें ​तक मिलती हैं तो भी मोदी को कोई खतरा नहीं है. क्षेत्रीय पार्टियों की आवाजाही किसी भी चीज से ज्यादा आसान होती है. मंत्रालयों के बदले वे मोदी के साथ काम करने को राजी होंगे और वे पहले से भी ज्यादा प्रतिबद्ध होंगे.

अगर भाजपा 282 सीटों का एक तिहाई भी गवां देती है तो इसका श्रेय ब्रांड मोदी को ही जाएगा क्योंकि मोदी पार्टी और सरकार के शीर्ष पर हैं और भाजपा देश भर के अधिकांश हिस्से में दोहरी एंटी इनकम्बैंसी का सामना कर रही है. मोदी सरकार की एक भी ठोस उपलब्धि न होने के बावजूद यदि लोग मोदी को दोबारा सत्ता सौंपने के लिए वोट देते हैं तो यह सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता का करिश्मा होगा.

चाणक्य या सौभाग्यपूर्ण परिस्थिति

हालांकि, अगर पार्टी 2014 का एक तिहाई बहुमत खो देती है तो बहुत से लोगों को यह सवाल करने का मौका मिल जाएगा कि क्या अमित शाह वाकई में चाणक्य हैं, जैसा कि उनको पेश किया गया है? पार्टी की चुनावी में ब्रांड मोदी के साथ साथ अमित शाह की कुशल रणनीति और उनके समर्थकों ने भी अहम भूमिका निभाई है. हमने इस तरह की तमाम कहानियां सुनी हैं कि कैसे अमित शाह बूथ का मैनेजमेंट करते हैं, कैसे चालाकी भरे प्रचार से विरोधियों को मात देते हैं, कैसे वे कोई गलती नहीं करते, कैसे वे अपने पार्टी सहयोगियों से भी दिन रात मेहनत करवाते हैं, कैसा वे अपने पार्टी की अपराजेय छवि पेश कर देते हैं, कैसे वे जमीनी स्तर पर जातीय समीकरण सेट करते हैं और साथ साथ पार्टी के पुराने सांप्रदायिक एजेंडे को भी हवा देते हैं.


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लेकिन अमित शाह की इस कुशलता पर संदेह भी हैं. यह भी संभव है कि अमित शाह ऐसे समय में पार्टी के मैनेजर और मुखिया हैं जब सौभाग्य से परिस्थितियां उनके अनुकूल हैं. यह परिस्थितियां हैं ब्रांड मोदी, आरएसएस का भारी भरकम कैडर और विपक्ष में दिशाहीन कांग्रेस. यदि ये तीनों परिस्थितियां एक साथ हैं तो क्या आपको चाणक्य होने की जरूरत है?

और भी, मोदी शाह की जोड़ी में अमित शाह फिसड्डी सिपाही साबित हुए हैं. ​अमित शाह के नाराज पार्टी सहयोगी और असंतुष्ट पार्टी नेता जाने माने चेहरे हैं. वे आरएसएस के अपने आदमी नहीं हैं. आम तौर पर आरएसएस पार्टी अध्यक्ष के रूप में किसी अपने आदमी को देखना पसंद करता है जो कि 2014 के चुनाव के बाद उसने कोशिश भी की लेकिन मोदी के दबाव में आरएसएस को असफलता हाथ लगी.

साख की परीक्षा

इन वजहों से 2019 का लोकसभा चुनाव नरेंद्र मोदी से ज्यादा अमित शाह के लिए अहम है. 2014 में अमित शाह ने केवल उत्तर प्रदेश की जटिल स्थिति को संभाला था. लेकिन अब वे पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और व्यापक तौर पर सफल भी हैं. 2019 का लोकसभा चुनाव उनके सामने अब तक की सबसे बड़ी चुनौती है. क्योंकि ‘कोई दूसरा विकल्प नहीं है’ इसलिए नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता अब भी बहुत ऊपर है. यह समय वाकई यह दिखाने का है कि अमित शाह वास्तव में चाणक्य हैं.

तुलनात्मक रूप से हर चुनाव को एक होने वाली क्रांति और चुनौती के रूप में पेश करना आसान है. लेकिन 2014 के मोदी के प्रचार से उपजी हिमालय जैसी ऊंची आशाओं के बाद व्याप्त असंतोष से निपटना कठिन है. राज्य दर राज्य भाजपा की जीत ने सत्ता विरोधी लहर की चुनौती को दोगुना कर दिया है. इससे भाजपा के वोट शेयर में गिरावट अपेक्षित है. भाजपा जिस तरह 2014 में गुजरात और राजस्थान की सभी सीटें जीत ली थीं, वैसा अब नहीं जीत सकती. भाजपा इस बार निश्चित तौर पर उत्तर प्रदेश की 80 में से 70 से ज्यादा सीटें नहीं जीतने जा रही है.


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अगर भाजपा अपने दम पर बहुमत प्राप्त करके सत्ता में वापसी करती है तो यह सीटें कहां से आएंगी? क्या पूर्वी भारत (पश्चिम बंगाल, ओडिशा और असम) में मामूली बढ़ोत्तरी बाकी प्रदेशों में हुए नुकसान की भरपाई कर पाएगी?

अमित के शाह के सामने यही चुनौती है. हो सकता है कि मोदी कुछ क्षेत्रीय क्षत्रपों को मैनेज करके 7, लोक कल्याण मार्ग में वापसी कर लें, लेकिन अमित शाह और उनकी अपराजेयता पर सवाल उठेंगे. पार्टी अध्यक्ष के रूप में उनकी स्थिति अस्थिर हो सकती है लेकिन वे पहले से ही राज्यसभा सदस्य हैं और मोदी सरकार में उन्हें कोई ताकतवर मंत्रालय मिल सकता है. खुद उनमें भी इसी तरह की आकांक्षा होगी. लेकिन अपने इर्द गिर्द बने आभामंडल को बचाए रखना उनके लिए आसान नहीं होगा.

(यह विश्लेषण मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों के मद्देनजर है. अगले छह महीने में चीजें बदल सकती हैं और हवा का रुख किसी भी दिशा में हो सकता है.)

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