कनॉट प्लेस की सेंट्रल न्यूज एजेंसी (सीएनए) के एक सेल्समैन बता रहे थे कि भले ही अब बहुत से शब्दों के शैदाई किताबें ऑनलाइन मंगवा रहे हों, फिर भी उनके पास लगातार अमेरिकी लेखक लुईस फिशर की कलम से लिखी गांधी जी की जीवनी ‘दि लाइफ ऑफ महात्मा गांधी’ को खरीदने वाले आते रहते हैं. इसकी मांग लगातार बनी हुई है. गांधी जी को और अधिक करीब से समझने के लिए इसे पढ़ लेना बेशक अनिवार्य है. लुईस फिशर 25 जून, 1946 को दिल्ली आते हैं. वे सफदरजंग एयरपोर्ट पर विमान से उतरने के बाद सीधे टैक्सी से जनपथ (तब क्वींस एवेन्यू) पर स्थित इंपीरियल होटल पहुंचे. तब तक पालम एयरपोर्ट नहीं बना था. वे जल्दी में हैं.
फिशर कहां गए थे बापू से मिलने
फिशर लॉबी में ही अपना समान रखकर होटल से पंचकुईया रोड पर निकल जाते हैं. उन्हें वाल्मीकि मंदिर में महात्मा गांधी से मिलना है. वे बापू की जीवनी लिख रहे हैं. बापू तब वाल्मीकि मंदिर परिसर के भीतर बने एक छोटे से कमरे में ही रहते थे. फिशर शाम 5 बजे बजे वाल्मीकि मंदिर पहुंचे. उन्हें जनपथ से पंचकुईया रोड पर पहुंचने में 15 मिनट से अधिक नहीं लगा होगा. वे कनॉट प्लेस और गोल मार्किट से होते हुए वाल्मीकि मंदिर में पहुंच गए होंगे. तब दिल्ली की सड़कों पर आज की तरह ट्रैफिक कहां होता था. हालांकि तब तक मंदिर मार्ग पूरी तरह से आबाद था. बिड़ला मंदिर, नई दिल्ली काली बाड़ी, हाईकोर्ट, बटलर स्कूल, सेंट थामस स्कूल वगैरह थे.
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वहां थे नेहरू और मृदुला साराभाई भी
फिशर जब वाल्मीकि मंदिर पहुंचे तब उधर पंडित जवाहरलाल नेहरू और मृदुला साराभाई वगैरह समेत बहुत से लोग मौजूद थे. कुछ ही पलों के बाद बापू अपने मंदिर के कमरे से प्रकट होते हैं. बापू उन्हें तुरंत पहचान लेते हैं. वे फिशर से पहले अहमदाबाद में मिल चुके थे. दोनों में मित्रता थी. वे फिशर का हाल-चाल पूछते हैं. दोनों में प्रेम से कुछ देर तक बातचीत होती रहती है. लुईस फिशर इन सब बातों का गांधी जी पर लिखी जीवनी ‘दि लाइफ ऑफ महात्मा’ में उल्लेख करते हैं. लुईस फिशर की कलम से लिखी ‘दि लाइफ आफ महात्मा गांधी’.
अमेरिका के यहूदी लेखक लुईस फिशर ने यदि बापू की जीवनी न लिखी होती तो संभव है कि दुनिया की बापू के बारे में अधिक से अधिक जानने की प्रबल इच्छा ही नहीं होती. दरअसल रिचर्ड एटनबर्ग ने इस तथ्य को बार-बार माना कि उन्होंने ‘दि लाइफ आफ महात्मा गांधी’ को पढ़ने के बाद ही गांधी पर फिल्म बनाने के संबंध में सोचना चालू किया था. निश्चित रूप से ‘गांधी’ फिल्म को देखकर सारे संसार के करोड़ों लोग गांधी को और करीब से जानने लगे हैं. इस साल गांधी फिल्म को रिलीज़ हुए भी 40 साल हो रहे हैं. यह 1982 में रीलिज हुई थी.
उपन्यास शैली में चलाई कलम
लुईस फिशर ने जीवनी बिल्कुल उपन्यास शैली में लिखी है. इसे पढ़ते ही आप इससे जुड़ जाते हैं. इसका आप पर चुंबकीय तरीके से असर होता है. कहना न होगा कि गंभीर साहित्य अध्येताओं से लेकर विद्यार्थियों के लिए यह एक उपयोगी जीवनी है. लुईस फिशर की लिखी जीवनी का पहला अध्याय बापू की हत्या से लेकर उनकी शवयात्रा पर आधारित है. यानी उन्होंने अंत को सबसे पहले ले लिया है. इस तरह का साहस फिशर ही कर सकते हैं. ये जीवनी गांधी जी के जीवन में गहरे से झांकती है. इसे पढ़ते हुए कहीं भी पाठक बोर नहीं होता. पाठक को ये नहीं लगता कि ये तथ्य तो उसे पहले से ही मालूम था. गांधी जी की हत्या से लेकर उनकी शवयात्रा का वे जिन तथ्यों के साथ विवरण देते हैं, वे उनकी जीवनी को बाकी से अलहदा बना देते हैं.
वे लिखते हैं, ‘महात्मा गांधी 1918 में दिल्ली में आए तो सेंट स्टीफंस कॉलेज में ही रुके. यहां पर उनसे कॉलेज के छात्र ब्रज कृष्ण चांदीवाला ने मुलाकात की. वे पहली ही मुलाकात के बाद बापू के जीवन भर के लिए शिष्य बन गए. वे कॉलेज में रहते हुए ही स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ गए. उन्होंने खादी के वस्त्र पहनने चालू कर दिए. ब्रज कृष्ण चांदीवाला दिल्ली के एक धनी परिवार से थे. वह ही बापू के लिए बकरी के दूध की व्यवस्था करते थे. गांधी जी का भी उनके प्रति बहुत स्नेह का भाव रहता था. गांधी जी की मृत्यु के बाद ब्रज कृष्ण चांदीवाला ने ही उन्हें स्नान करवाया था.’ उनके विवरण अतुलनीय हैं.
‘दि लाइफ आफ महात्मा गांधी ’ में लुईस फिशर लिखते हैं, ‘बापू को गोली लगने के कुछ देर में ही घटनास्थल पर डॉ. डी.पी भार्गव और डा. जीवाजी मेहता पहुंच गए थे. डॉ. मेहता ने बापू को मृत घोषित किया था.’
नक्रुमा- किंग ने उस जीवनी को पढ़ा
निस्संदेह फिशर की कलम से निकली जीवनी महात्मा गांधी को ब्राजील, रूस, मैक्सिको, फ्रांस, घाना, अमेरिका, मिस्र, अरब देशों में लेकर जाती है. माना जाता है कि घाना के पूर्व राष्ट्रपति और अफ्रीकी स्वतंत्रता संघर्ष के अप्रतिम सेनानी और कवि नक्रुमा ने अपने स्वतंत्रता संघर्ष पर अपनी कविता में कहा, ‘घने जंगल में थका हारा सिपाही, हताश सो गया. उसके सपने को कृतार्थ किया एक महात्मा ने. एक ने मुस्कराते हुए अग्निपथ पर चलने की प्रेरणा दी.’ उन्होंने भी ‘दि लाइफ आफ महात्मा’ को अश्वेतों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले मार्टिन लूथर किंग की तरह पढ़ा था. दरअसल लुईस फिशर चमत्कृत थे महात्मा गांधी से. वे कहते हैं ‘गांधीजी से हाथ मिलाते ही मेरे भीतर अहंकार की ग्रंथि पिघलने लगी. उन्होंने मुझे बात करने के लिए एक घंटे का समय दिया और अपराह्न साढे़ तीन बजे से शुरू वार्तालाप जैसे ही साढ़े चार बजे पहुंचा, उन्होंने बीच में टोकते हुए कहा बस समय हो गया, अब बात बंद.’
किस-किस से मिलते फिशर
लुईस फिशर दिल्ली में रोज गांधीजी से एक घंटे के लिए मिलने लगे. वे मौलाना आजाद के किंग जॉर्ज रोड (अब मौलाना आजाद रोड) स्थित आवास में भी जाते. (जिधर अब विज्ञान भवन है, वहीं होता था मौलाना आजाद का सरकारी बंगला). वे मौलाना आजाद से बापू की शख्सियत को समझने की कोशिश करते. लेनिन और हिटलर की जीवनियां लिखकर सारी दुनिया में एक महान लेखक के रूप में साख बना चुके लुईस फिशर दिल्ली में आचार्य कृपलानी, डॉ.राजेन्द्र प्रसाद, बापू की निजी डाक्टर डॉ. सुशीला नैयर वगैरह से भी मिल रहे थे.
जिन्ना से क्यों नहीं की बात
लुईस फिशर यहां आम-खास लोगों से मिलने के लिए टैक्सी पर ही सफर कर रहे थे. उन दिनों काली-पीली रंग की टैक्सियां चलती थीं. उन्हें एक दिन मोहम्मद अली जिन्ना से भी उनके 10, औरंगजेब रोड (अब एपेजी कलाम रोड) वाले आवास में मिलना था. जिन्ना ने उन्हें सुबह साढ़े दस बजे मिलने का समय दिया. फिशर अपने होटल से जिन्ना से मिलने टैक्सी पर निकले. पर अभी टैक्सी कुछ ही देर चली थी कि उसमें गड़बड़ चालू हो गई. टैक्सी के सिख ड्राइवर के लाख चाहने के बाद भी बात नहीं बनी. इस बीच जिन्ना से मिलने का वक्त भी हो रहा था. वे किसी तरह तांगे पर बैठकर ही जिन्ना के घर 35 मिनट देर से पहुंचे. तब नई दिल्ली की सड़कों पर तांगे भी दौड़ा करते थे.
जाहिर है, फिशर उनसे भी गांधीजी और मुस्लिम लीग की भारत को बांटने की मांग वगैरह पर गुफ्तुगू करने ही गए होंगे. पर जिन्ना उनके देर से पहुंचने से कुछ उखड़ गए थे. बातचीत की शुरुआत होने के चंद मिनट के बाद ही जिन्ना ने फिशर को कह दिया, ‘मुझे कहीं निकलना है.’ तो क्या जिन्ना अपने राजनीतिक शत्रु गांधी जी के संबंध में उनके जीवनी लेखक से बात करने के मूड में नहीं थे?
लुईस फिशर 18 जुलाई, 1946 को गांधी जी से अंतिम बार मिलने के बाद अमेरिका लौट गए. वे लगभग डेढ़ महीने भारत में रहे. इस दौरान उनका अधिकतर समय दिल्ली में गुजरा. यहां पर रहते हुए उन्होंने गांधी जी पर पर्याप्त सामग्री जुटा ली.
इस बीच, कहना होगा कि गांधी को दिवंगत हुए सात दशक से अधिक हो रहे हैं, पर उनके व्यक्तित्व के किसी पक्ष या उनके विचारों पर कलम चलाने की लेखकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों वगैरह की प्यास बुझी नहीं है. उन पर जीवनियां बाजार में आ रही हैं. उन्हें पढ़ा जा रहा है, उन पर चर्चा हो रही है, लिखा जा रहा है.
(विवेक शुक्ला वरिष्ठ पत्रकार और Gandhi’s Delhi के लेखक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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