scorecardresearch
Sunday, 10 November, 2024
होमसमाज-संस्कृतिहिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए महात्मा गांधी का अंतिम उपवास कैसे हुआ खत्म

हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए महात्मा गांधी का अंतिम उपवास कैसे हुआ खत्म

गांधी जी ने 13 जनवरी, 1948 को अपना आमरण अनशन शुरू कर दिया. उनके साथ बिड़ला हाउस में ‘द स्टेट्समैन’ के पूर्व संपादक आर्थर मूर और हजारों अन्य लोग अनशन पर बैठ गए, जिसमें हिंदुओं और सिखों की एक बड़ी तदाद थी और उनमें से कई तो पाकिस्तान से आये शरणार्थी थे.

Text Size:

9 सितंबर, 1947. उस दिन शाहदरा रेलवे स्टेशन पर देश के गृह मंत्री सरदार पटेल और स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर भी आ चुके थे. ये बापू को लेने के लिए आए थे. बापू कलकत्ता (अब कोलकाता ) से आ रहे थे. गांधी जी उस दिन अंतिम बार रेल से दिल्ली आए थे. गांधी जी को रेलवे स्टेशन पर ही सरदार पटेल ने बता दिया कि अब उनका मंदिर मार्ग, पंचकुईयां रोड की वाल्मिकी बस्ती के वाल्मिकी मंदिर में ठहरना सुरक्षित नहीं होगा. बापू वहां पर पहले 1 अप्रैल 1946 से 10 जून, 1947 तक रह चुके थे.

सरदार पटेल ने बापू को यह भी बताया कि अब वाल्मिकी बस्ती में पाकिस्तान से आए शरणार्थी ठहरे हैं. पंडित नेहरू भी यही चाहते थे कि बापू किसी सुरक्षित जगह पर ठहरे क्योंकि दिल्ली में दंगे-फसाद थम ही नहीं रहे थे. तब बापू बिड़ला हाउस अलबुर्कर रोड (अब तीस जनवरी) पर स्थित बिड़ला हाउस में ठहरने के लिए तैयार हुए. शाहदरा से बिड़ला हाउस तक के सफर में गांधी जी ने जलती दिल्ली को देख लिया था. वे समझ गए थे कि यहां के हालात बेहद संवेदनशील हैं.

महात्मा गांधी पूर्णाहुति चतुर्थ खंड के अनुसार, महात्मा गांधी की गाड़ी बिड़ला हाउस पहुंची ही थी कि पंडित नेहरु आ गये. वे जब गांधी जी को समाचार सुना रहे थे तब उनके मुख मंडल पर चिंता दिखाई देती थीं. शहर में चौबीस घंटे का कर्फ्यू लगा हुआ था. सेना बुला ली गई थी, परन्तु गोलियां चलना और लूटपाट पूरी तरह बंद नहीं हुई थी. सडकों पर लाशें बिछी हुईं थीं. नेहरु बहुत गुस्से में थे. ‘कमबख्तों ने सारे शहर में अव्यवस्था पैदा कर दी है. अब हम पाकिस्तान से क्या कह सकते है?’ गांधी जी: क्रोध करने से क्या लाभ ?

दंगे बंद करवाने में जुटे बापू

बापू दिल्ली आने के बाद सांप्रदायिक सौहार्द कायम करने में जुट गए. वे 14 सितंबर को ईदगाह और मोतियाखान जाते हैं. ये दोनों स्थान भी दंगों की आग में झुलसे थे. वे स्थानीय लोगों से शांति बनाए रखने की अपील करते हैं. दोनों जगहों पर दोनों संप्रदायों के लोग उन्हें अपनी आपबीती सुनाते हैं. पाकिस्तान से अपना सब कुछ खोकर आए हिंदू और सिख शरणार्थी हैरान थे कि गांधी जी कह रहे हैं कि ‘भारत में मुसलमानों को रहने का हक़ है.’ इसी दौरान स्थानीय मुसलमान उनसे मिलने आ रहे हैं. उन्होंने रोते हुए अपनी दुखगाथा गांधी को सुनाई. गांधी जी उन्हें सांन्तवना देते हैं. ‘आपको ईश्वर में विश्वास रखना चाहिये. आपको बहादुर बनना चाहिये. मैं यहां दिल्ली में करने या मरने आया हूं.’


यह भी पढ़ें: गांधी ने दिल्ली में सेंट स्टीफंस कॉलेज के परिसर से असहयोग आंदोलन का प्रथम आह्वान किया था


इसी बीच एक अखबारी वक्तव्य में उन्होंने कहा, ‘मनुष्य कुछ सोचता है, ईश्वर कुछ और करता है. यह कहावत मेरे जीवन में अनेक बार सच निकली है, शायद दूसरे अनेक लोगों का भी यही अनुभव है. जब पिछले रविवार को मैं कलकत्ता से चला तब दिल्ली की इस दुखद परिस्थितियों की मुझे जानकारी नहीं थी. परन्तु राजधानी में पहुंचने के बाद मैं सारे दिन दिल्ली की दुखगाथा सुनता रहा हूं. आज तो दिल्ली दुख की मूर्ति बन गई है.’

डॉ. अंसारी के घर पर हमला

गांधी जी को यहां पर लगातार खराब ही समाचार मिलते जा रहे थे. हद तो तब हो गई जब उनके एक पुराने साथी डॉक्टर और मेजबान डॉक्टर एम.ए.अंसारी की पुत्री और उनके पति को दरियागंज का अपना घर छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा. इसी घर में गांधी जी डॉक्टर अंसारी के मेहमान बनकर ठहरा करते थे. अब ये दोनों किसी होटल में ठहरे थे. वे डॉक्टर अंसारी के परिवारों के साथ जो हो रहा था उससे अंदर तक हिल गए थे. उन्होंने अपनी बिड़ला हाउस में आयोजित प्रार्थना सभा में कहा भी- ‘क्या यह शर्म की बात नहीं है कि कांग्रेस के एक स्तम्भ और हिन्दू–मुस्लिम एकता के पुजारी की लड़की को इस प्रकार अपना घर छोड़ना पड़े.’

तब से शुरू हुआ गांधी का उपवास गांधी जी के सघन प्रयासों के बाद भी यहां जब दंगे रूक ही नहीं रहे थे, तब उन्होंने 13 जनवरी 1948 से अनिश्चितकालीन उपवास चालू करने का निर्णय लिया. उन्होंने अपने उपवास की घोषणा 12 जनवरी को की. उस दिन महात्मा गांधी की प्रार्थना सभा में एक लिखित भाषण पढ़कर सुनाया गया, क्योंकि गांधी ने मौन धारण कर रखा था. ‘कोई भी इंसान जो पवित्र है, अपनी जान से ज्यादा कीमती चीज कुर्बान नहीं कर सकता. मैं आशा करता हूं कि मुझमें उपवास करने लायक पवित्रता हो. उपवास कल सुबह (मंगलवार) पहले खाने के बाद शुरू होगा. उपवास का अरसा अनिश्चित है. नमक या खट्टे नींबू के साथ या इन चीजों के बगैर पानी पीने की छूट मैं रखूंगा. तब मेरा उपवास छूटेगा जब मुझे यकीन हो जाएगा कि सब कौमों के दिल मिल गए हैं.’

गांधी जी ने 13 जनवरी, 1948 को अपना आमरण अनशन शुरू कर दिया. उनके साथ बिड़ला हाउस में ‘द स्टेट्समैन’ के पूर्व संपादक आर्थर मूर और हजारों अन्य लोग अनशन पर बैठ गए, जिसमें हिंदुओं और सिखों की एक बड़ी तदाद थी और उनमें से कई तो पाकिस्तान से आये शरणार्थी थे.

गांधी जी ने 13 जनवरी को प्रात: साढ़े दस बजे अपना उपवास शुरू किया. उस वक्त पंडित नेहरू, बापू के निजी सचिव प्यारे लाल नैयर, निजी सचिव डॉ. सुशीला नैयर, जो दिल्ली की 1952 में बनी सरकार में स्वास्थ्य मंत्री थीं, वगैरह वहां पर थे. बिड़ला हाउस परिसर के बाहर मीडिया भी ‘ब्रेकिंग’ खबर पाने की कोशिश कर रहा था. हालांकि तब तक खबरिया चैनलों का युग आने में लंबा वक्त बचा था.

जाने-माने लेखक अपूर्वानंद कहते हैं, ‘गांधी के उपवास की इस ख़बर ने सनसनी फैला दी. उनके क़रीबी साथी भी उनके फैसले से नावाक़िफ़ थे. गांधी के बेटे देवदास गांधी ने पिता से असहमति जताते हुए कहा कि वे ख़ुद सब को धीरज की सीख देते रहे थे लेकिन आज वे स्वयं अधैर्य के शिकार हो गए मालूम पड़ते हैं. अब तक जीवित रह कर उन्होंने लाखों मुसलमानों की जान बचाई है. अगर वे जीवित रहेंगे तो और लाखों बचेंगे. लेकिन अगर इस उपवास में वे नहीं बचे तो फिर उनके मिशन का क्या होगा! गांधी ने अपने पुत्र को अपना शुभचिंतक मित्र कहते हुए यह मानने से इंकार किया कि उपवास का उनका निर्णय हड़बड़ी का था.


यह भी पढ़ें: आईआईटी के शोधकर्ता तैयार करेंगे ‘गांधीपीडिया’, गांधी की किताबें, पत्र और भाषण होंगे ऑनलाइन


निस्संदेह गांधी जी के इस अनशन ने दिल्ली की देखते ही देखते तस्वीर बदलनी शुरू कर दी. यहां पर जारी हिंसा, कत्लेआम और लूटपाट का दौर थमने लगा. बिड़ला हाउस में रोज सैकड़ों दिल्ली वाले पहुंचने लगे. सबकी यही चाहत थी कि बापू अपना अनशन तोड़ लें. 15 जनवरी 1948 को हुए एक सार्वजनिक सभा में करोल बाग के निवासियों ने गांधीजी को विश्वास दिलाया कि वे उनके आदर्शों में आस्था रखते हैं और उन्होंने एक शांति ब्रिगेड बनाकर घर-घर जाकर अभियान चलाया. श्रमिकों की एक सभा में, जहां रेलवे, प्रेस आदि के प्रतिनिधि मौजूद थे, ये संकल्प लिया गया कि विभिन्न समुदायों के बीच अच्छे संबंध स्थापित करने के काम में वे तुरंत जुट जाएंगे. इस सभा को हुमायूं कबीर ने भी संबोधित किया था. वे जॉर्ज फर्नाडीज के आगे चलकर ससुर बने.

दिल्ली के अनेक संगठनों के दर्जनों प्रतिनिधि 18 जनवरी 1948 को सुबह 11.30 बजे गांधीजी से मिले और शांति के लिए गांधीजी ने जो शर्ते रखी थीं, उसे स्वीकार किया और ‘शांति शपथ’ प्रस्तुत किया. इसके बाद गांधीजी ने उपवास के अंत की घोषणा की.

तब बापू ने 18 जनवरी को अपना उपवास तोड़ा. उन्हें नेहरू जी और मौलाना आजाद ने ताजा फलों का रस पिलाया. इस तरह से 78 साल के बापू ने हिंसा को अपने उपवास से मात दी.

(वरिष्ठ पत्रकार और गांधी जी दिल्ली पुस्तक के लेखक हैं )

share & View comments