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Thursday, 5 December, 2024
होममत-विमतगांधी ने दिल्ली में सेंट स्टीफंस कॉलेज के परिसर से असहयोग आंदोलन का प्रथम आह्वान किया था

गांधी ने दिल्ली में सेंट स्टीफंस कॉलेज के परिसर से असहयोग आंदोलन का प्रथम आह्वान किया था

जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पुलिस की कार्रवाई भारत में विश्वविद्यालय परिसरों की शुचिता की मान्य परंपरा के खिलाफ है.

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जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के भीतर घुसकर पुलिस द्वारा छात्रों पर कठोर बलप्रयोग करने को विश्वविद्यालय परिसरों की शुचिता की व्यापक पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए जिसका कि ब्रितानी शासकों तक ने सम्मान किया था.

और हमें भूलना नहीं चाहिए कि महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन का आह्वान दिल्ली में सेंट स्टीफंस कॉलेज के परिसर से किया था.

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से सेंट स्टीफंस तक

महात्मा गांधी भारत के उन गिने-चुने दूरद्रष्टाओं में से थे जिन्हें स्वतंत्रता संघर्ष से छात्रों को जोड़ने की उपयोगिता का अनुमान था.

उन्हें इस क्षमता का एहसास तब हुआ जब मदन मोहन मालवीय ने उन्हें बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में संबोधन के लिए आमंत्रित किया. दक्षिण अफ्रीका से 1915 में हमेशा के लिए वापस आने के बाद भारत में यह गांधी का पहला सार्वजनिक भाषण था. आने वाले समय का मानो पूर्वाभास देते हुए गांधी अपने मन की बात कहने से कतराए नहीं. हालांकि एनी बेसेंट को इससे घबराहट हुई होगी जिन्होंने गांधी को भाषण रोकने पर राज़ी करने की असफल कोशिश की थी. गांधी के संबोधन ने वहां खासी संख्या में मौजूद छात्रों को उद्वेलित कर दिया था.

अपनी सफलता से उत्साहित गांधी आगे भी पूरे भारत में छात्रों का आह्वान करते रहे.

भारत लौटने के शुरुआती वर्षों में, गांधी सेंट स्टीफंस कॉलेज के परिसर में तत्कालीन प्रिंसिपल सुशील कुमार रुद्र के यहां मेहमान के रूप में रुका करते थे. महात्मा ने रुद्र की मौजूदगी का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया. अंग्रेजों से असहयोग के लिए भारतीयों का उनका पहला आह्वान सेंट स्टीफंस कॉलेज परिसर से जारी किया गया था जहां उन्होंने छात्रों को संबोधित भी किया था. ब्रिटिश अधिकारियों ने गांधी की मेजबानी करने को लेकर प्रिंसिपल से असहमति जताई थी, लेकिन रुद्र दृढ़ बने रहे. यह दिलचस्प है कि अंग्रेजों ने प्रिंसिपल रुद्र और सेंट स्टीफंस कॉलेज को इस शुरुआती झिड़की से अधिक परेशान करने की कोशिश नहीं की थी.


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बहुतों को ये जानकर आश्चर्य हो कि भारतीयों के खिलाफ अनेक निर्मम अत्याचारों के लिए ज्ञात ब्रितानी शासक, शैक्षिक परिसरों में छात्र गतिविधियों को लेकर आमतौर पर सहिष्णुता दिखाते थे.

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय के तीन स्नातक संस्थानों – रामजस कॉलेज, हिंदू कॉलेज और सेंट स्टीफंस कॉलेज – के आंदोलनकारी छात्रों ने कॉलेज परिसरों में हिंसा की थी. वायसराय ने कुलपति सर मॉरिस ग्वायर को सख्त कार्रवाई करने के लिए लिखा. ग्वायर को इस बात का श्रेय देना हगा कि उन्होंने छात्रों का पक्ष लेते हुए वायसराय को जवाब दिया, और फिर वायसराय ने इस मामले को वहीं खत्म होने दिया.

हमें ये भी पता है कि उन दिनों प्रसिद्ध इलाहाबाद विश्वविद्यालय को काफी स्वायत्तता मिली हुई थी. कांग्रेस के प्रमुख नेता अक्सर बेरोकटोक वहां छात्रों को संबोधित किया करते थे.

आपातकाल के दिन

ब्रितानी काल से लेकर 1975 के आपातकाल तक, शैक्षिक परिसरों को लेकर दृष्टिकोण में बड़ा बदलाव आ चुका था.

नागरिकता संशोधन कानून को लेकर देश भर के विश्वविद्यालयों में जारी छात्र प्रदर्शन मुझे उन दिनों की याद दिलाते हैं जब मैं 1971 में हाईस्कूल का छात्र था. और उस समय भारत में इंदिरा गांधी का शासन था.

वर्ष 1971 में संभवत: स्वतंत्र भारत का पहला बड़ा छात्र आंदोलन हुआ. उस परिवर्तनकारी आंदोलन की शुरुआत गुजरात से हुई थी, और जिसने अंतत: राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित किया – वो भी मात्र तीन वर्षों के भीतर.

गुजरात का छात्र आंदोलन अहमदाबाद के एलडी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग में मेस के खाने का शुल्क बढ़ाए जाने को लेकर आरंभ हुआ था. लेकिन इसके चिमनभाई पटेल की अगुआई वाली अंसवेदनशील और भ्रष्ट सरकार के खिलाफ एक ज़बरदस्त आंदोलन में परिवर्तित होने में अधिक समय नहीं लगा. इसे प्रसिद्ध नवनिर्माण आंदोलन के रूप में जाना गया, जिसे जनता का अपार समर्थन मिला था. आंदोलन के कारण अंतत: राज्य सरकार बर्खास्त कर दी गई थी.

नवनिर्माण आंदोलन कई अन्य कारणों से भी उल्लेखनीय था. सर्वप्रथम, इसने अत्यंत सम्मानित बुजुर्ग स्वतंत्रता सेनानी और गांधीवादी नेता जयप्रकाश नारायण या जेपी को राजनीतिक निष्क्रियता से बाहर लाने का काम किया. और, उसी दौरान नरेंद्र मोदी नामक एक युवक जेपी के प्रभाव में आया और नवनिर्माण आंदोलन से जुड़ गया. अंतत: जेपी भ्रष्टाचार के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेड़ने के लिए बाध्य हुए, जिसने उनको तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आमने-सामने ला खड़ा किया.

जेपी आंदोलन के दौरान दिल्ली विश्विवद्यालय के एक युवा छात्र नेता ने भी देश का ध्यान खींचा था जिसने आगे चलकर भारतीय राजनीति में एक बड़ी भूमिका निभाई. वो युवा नेता थे अरुण जेटली जिन्होंने 1974 में छात्र आंदोलन से राजनीति सीखी थी. तब वह दिल्ली विश्विवद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष थे. मुझे वो पल अच्छी तरह याद है जब नवंबर 1974 में दिल्ली विश्विवद्यालय के कैंपस में आयोजित एक छात्र रैली में जेपी के साथ मंच साझा करते हुए जेटली ने एक जोशीला भाषण दिया था.

जेपी के छात्रों से इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ विद्रोह करने का आह्वान करने के बाद भी पुलिस ने हस्तक्षेप नहीं किया था. वही पुलिस कुछ महीनों के उपरांत – जून 1975 में आपातकाल घोषित किए जाने के तुरंत बाद – रात के अंधेरे में जेटली को उनके आवास से गिरफ्तार करने आई थी.

जामिया में पुलिस कार्रवाई से टूटी परंपरा

भारत के अनेक हिस्सों में आमतौर पर पुलिस एक लगभग अकाट्य परंपरा का पालन करती है जोकि उसे कुलपति की अनुमति के बिना कैंपस में घुसने से रोकती है. ये निषेध 1972 की उस घटना में भी साफ दिखा जब मैं कॉलेज का छात्र हुआ करता था. तब एक छात्र आंदोलन को भंग करने के कुलपति के आग्रह के बावजूद दिल्ली पुलिस दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर में घुसने से इनकार कर रही थी.


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पुलिस ने तभी कार्रवाई की जब कुलपति ने टेलिफोन करके अपना जान खतरे में होने की दुहाई दी. तब मैं, एक सुरक्षित स्थान पर रहते हुए, पुलिस लाठीचार्ज का गवाह बना था.

इसके मुकाबले इलाहाबाद विश्वविद्यालय परिसर की 1969 की एक घटना को रखा जा सकता है जब कुलपति ने शहर के पुलिस प्रमुख को फोन कर हंगामा कर रहे छात्रों को शांत करने के लिए कैंपस में दाखिल होने को कहा था. पुलिस ने ऐसा ही किया और छात्र थोड़ी ही देर में तितर-बितर हो गए. जब पुलिस के खिलाफ जनता ने हायतौबा मचानी शुरू की, तो कुलपति सीधे मुकर गए कि उन्होंने पुलिस को कोई अनुमति दी थी.

इसलिए, उस रात जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जो कुछ भी हुआ वो एक मान्य परंपरा से हटकर है, और एक ऐसे राष्ट्र के भविष्य के लिए नुकसानदेह है जहांकि शैक्षिक परिसर लोकतंत्र के स्तंभ रहे हैं.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति, प्रतिष्ठित गणितज्ञ और शिक्षाविद हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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