आजादी के बाद अब तक कुल 48 लोगों को भारत रत्न मिला. जाति के आधार पर देखें, तो इसमें 23 ब्राह्मण हैं यानी 47.5 प्रतिशत सिर्फ एक जाति ब्राह्मण समुदाय के लोग हैं. 11 अन्य हिंदू ऊंची जाति के (द्विज ) लोग हैं. छह मुस्लिम, एक क्रिश्चियन (मदर टेरेसा ), एक पारसी ( जेआरडी टाटा ) एक विदेशी नागरिक (नेल्सन मंडेला), एक नर्तकी पुत्री (एमएस शुभलक्ष्मी), एक असमी द्विज (हज़ारिका), एक दलित (बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर) और एक पिछड़ा (के. कामराज ) हैं.
कुल आंकड़ों का विश्लेषण किया जाए, तो 66 फीसदी से अधिक द्विज और 12 फीसदी मुसलमान हैं. मुसलमानों में अधिकांश उच्च जातीय मुसलमान हैं, सिर्फ एक पिछड़ी जाति का मुसलमान ए.पी.जे. अब्दुल कलाम हैं. यदि हिंदुओं की ऊंची जाति और मुसलमानों की ऊंची जाति (अशराफ) को जोड़ लिया जाए, तो हिन्दू-मुस्लिम अपर कास्ट का योग 80 फीसदी बनता है. इसका अर्थ यह नहीं है कि शेष दलित, आदिवासी या पिछड़ी जाति के हैं. मदर टेरेसा विदेशी मूल की भारतीय ईसाई हैं और नेल्सन मंडेला विदेशी हैं; सिर्फ के. कामराज और बाबा साहेब आंबेडकर दलित-बहुजन समाज के हैं, जिनका भारत की आबादी में 85 फीसदी का योगदान है.
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वर्ण-जाति आधारित श्रेणीक्रम भारतीय सामाजिक संरचना और मनोविज्ञान का सहज स्वाभाविक तत्व है. इस तथ्य को रेखांकित करने के लिए लोहिया ने लिखा था कि ‘भारतीय आदमी का दिमाग जाति और योनी के कटघरे में कैद है.’ यहां सहज तरीके से आज भी किसी खास जाति विशेष में पैदा व्यक्ति को श्रेष्ठ मान लिया जाता है और दूसरी ओर अन्य जाति विशेष में पैदा व्यक्ति को कमतर मान लिया जाता है. इस तथ्य को हम भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न के संदर्भ में भी देख सकते हैं.
कोई यह कह सकता है कि यदि अधिकांश ब्राह्मण या अन्य द्विज ही इस योग्य पैदा हुए, तो क्या किया जाए. जब ओबीसी और दलितों में डॉ. आंबेडकर और के. कामराज को छोड़कर कोई योग्य नहीं पैदा हुआ, जिसे भारत रत्न दिया जाए, तो क्या किया जाए?
पहला प्रश्न यह है कि क्या यह सच है कि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों में डॉ. आंबेडकर और के. कामराज के अलावा कोई ऐसा नहीं पैदा हुआ, जो भारत रत्न के योग्य रहा हो? दूसरा प्रश्न यह है कि द्विज जातियों के जिन ब्राह्मणों और अन्य जाति के लोगों को भारत रत्न दिया गया, क्या वे सभी इसकी योग्यता रखते हैं? इसके साथ तीसरा प्रश्न यह भी है कि कौन-सा पैमाना ब्राह्मणों और अन्य द्विजों की योग्यता का आधार बना और कौन-सा पैमाना दलित, पिछड़ों और आदिवासियों की अयोग्यता का आधार बना?
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भारत रत्न प्राप्त किए कुछ ब्राह्मणों के सामने दलित, पिछड़ों और आदिवासियों के समाज में पैदा हुए कुछ व्यक्तित्वों को सामने रखकर ही भारत रत्न की योग्यता और अयोग्यता के पैमाने को समझा जा सकता है.
मैं कुछ लोगों को आमने-सामने रखता हूं, देश बताए कि कौन भारत रत्न के लिए ज्यादा योग्य था और कौन कम ? इस बार दो ब्राह्मणों प्रणव मुखर्जी और नाना जी देशमुख को भारत रत्न दिया गया. इनके सामने दो दलित व्यक्तित्वों को रखते हैं. सबसे पहले नाना जी देशमुख और मान्यवर कांशीराम को आमने-सामने रखते हैं. इन दोनों को आमने-सामने रखने का कारण यह है कि दोनों सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवर्तन के मोर्चे पर सक्रिय थे.
भारतीय समाज में सकारात्मक और नकारात्मक सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवर्तन में किसकी भूमिका क्या है? कौन भारतीय समाज को आगे ले गया और कौन पीछे? दोनों में किसने समता, स्वंतत्रता और बंधुता आधारित भारत के लिए संघर्ष किया और किसने मध्यकालीन पिछड़े वर्ण-जातिवादी मूल्यों और सांप्रदायिक घृणा को बढ़ावा दिया.
कांशीराम ने ब्राह्मणवाद-मनुवाद को चुनौती दी. दलित-बहुजनों के भीतर आत्मसम्मान और स्वाभिमान भरा. उन्हें गर्व के साथ बराबरी के स्तर पर जीना सिखाया. उनके भीतर सामाजिक समानता की ऐसी भावना भरी, जो आज दलित-बहुजन आंदोलन का मूल स्वर बन गई है. उन्होंने गाय पट्टी में द्विज जातियों के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक वर्चस्व को चुनौती दी. भारत को तुलनात्मक तौर पर बेहतर समाज बनाया. देश को ज्यादा लोकतांत्रिक और समतामूलक बनाया. पहली बार उनके प्रयासों के चलते दलित समाज की एक महिला उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी.
नाना जी देशमुख ने क्या किया? उन्होंने आजीवन ब्राह्मणवाद-मनुवाद को मजबूत बनाया. जनसंघ और संघ जैसे सांप्रदायिक और उच्च जातियों के वर्चस्व को स्थापित करने वाले संगठनों को बढ़ावा दिया. यहां तक कि1984 में सिक्खों के खिलाफ व्यापक हिंसा का समर्थन भी किया. प्रश्न यह है कि मान्यवर कांशीराम भारत रत्न हैं या नाना जी देशमुख? सारे तथ्य बताते हैं कि अगर नाना जी देशमुख और मान्यवर कांशीराम की तुलना करें तो भारत रत्न के असल हकदार मान्यवर कांशीराम हैं, नाना जी देशमुख नहीं. नाना जी देशमुख का ब्राह्मण होना और ब्राह्मणवादी होना उनके काम आया. कांशीराम का दलित होना और ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष उनकी अयोग्यता बन गई.
अब जरा पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की तुलना पूर्व राष्ट्रपति के.आर. नारायणन से कर लें. शैक्षिक, बौद्धिक और राजनीतिक तीन स्तरों पर यदि के.आर. नारायणन की तुलना प्रणव मुखर्जी से करें, तो पाएंगे कि किसी भी मामले में वे प्रणव से उन्नीस नहीं ठहरते; बल्कि बीस ठहरते हैं. भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी के रूप में, द हिंदू और द टाइम्स ऑफ इंडिया के पत्रकार के रूप में, सांसद के रूप, केंद्रीय मंत्री के रूप, जेएनयू के वाइस चांसलर के रूप और राष्ट्रपति के रूप में उनका शानदार व्यक्तित्व और सामाजिक योगदान रहा है. उन्होंने दलितों के सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश बनने का रास्ता खोला. लेकिन वे दलित और सामाजिक न्याय का पक्षधर होने के चलते ब्राह्मण और ब्राह्मणवादी प्रणव मुखर्जी से मात खा गए.
अब पूर्व प्रधानमंत्रियों को लेते हैं. अटल बिहारी वाजपेयी बनाम वी.पी. सिंह. अटल ने आजीवन संघ की सांप्रदायिक राजनीति की और मनुस्मृति का समर्थन करते रहे. पेंशन खत्म किया. जबकि वी.पी. सिंह ने मंडल कमीशन लागू कर इस देश की जनसंख्या के 52 प्रतिशत से अधिक लोगों एक हद तक उनका हक दिलाया. द्विज होने के बावजूद भी पिछडों के पक्ष में काम करने के चलते वी.पी. सिंह मात खा गए. इन दोनों में भारत रत्न कौन?
अब खेल में देखते हैं. मेजर ध्यानचंद बनाम सचिन तेंदुलकर. हॉकी के जादूगर ध्यानचंद ने पूरे देश का नाम दुनिया में रोशन किया. हॉकी में तीन ओलंपिक पदक दिलाए. लेकिन पिछड़ी जाति का होने के चलते ब्राह्मण सचिन तेंदुलकर से मात खा गए. दोनों के योगदान की तुलना कर लीजिए. पता चल जाएगा कि भारत रत्न कौन है.
दक्षिण पूर्व एशिया के सुकरात और भारत के वाल्तेयर ई.वी. रामासामी पेरियार को भारत रत्न नहीं है, लेकिन हिंदू कोड बिल न पास होने देने वाले और राष्ट्रपति रहते ब्राह्मणों का पांव धोने बाले राजेंद्र प्रसाद भारत रत्न हैं. वहीं संविधान सभा में आदिवासियों को हितों के लिए संघर्ष करने वाले जयपाल सिंह मुंडा की उपेक्षा को भी याद कर लेना चाहिए.
ऐसी बहुत सारी तुलनाएं की जा सकती हैं और की जानी चाहिए भी. भारत रत्न पाने वाले ब्राह्मण रत्नों और अन्य द्विज भारत रत्नों की हकीकत सामने लाए जाने की जरूरत है. सच्चाई यह है कि भारत रत्न के नाम पर ब्राह्मण रत्न खोजे जाते रहे हैं, जिसका इस वर्ष प्रमाण प्रणव मुखर्जी और नाना जी देशमुख हैं.
आज़ादी के बाद दिए जाने बाले अधिकांश सम्मान और पुरस्कार द्विजों ( सवर्णों ) का वर्चस्व स्थापित करने के साधन रहे हैं. इसमें भारत रत्न भी शामिल है. इसके माध्यम से द्विजों की श्रेष्ठता की घोषणा की जाती है और जन-जन के भीतर उनकी श्रेष्ठता स्थापित की जाती है, ताकि द्विजों का वर्चस्व कायम रखा जा सके.
(लेखक फारवर्ड प्रेस हिंदी के संपादक हैं.)