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Thursday, 21 November, 2024
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बसपा में आनंद कुमार का विकल्प कौन हो सकता था?

बसपा के पास क्षमतावान नेताओं की एक पूरी कतार थी. उनमें से कई लोग अब पार्टी में नहीं हैं. इसके बावजूद कुछ क्षमतावान लोग अब भी हैं, जो बीएसपी को आगे ले जा सकते हैं.

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मायावती द्वारा अपने भाई आनंद कुमार को बसपा राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और भतीजे आकाश आनंद को राष्ट्रीय संयोजक बनाए जाने के बाद पार्टी के लखनऊ के प्रदेश मुख्यालय और दिल्ली के केंद्रीय मुख्यालय पर प्रदर्शन हुए हैं. इससे इतर मायावती के इस क़दम ने भारत में राजनीतिक पार्टियों के परिवारवाद में फंसने पर एक बार फिर से बहस तेज़ कर दी है.

वैसे तो भारत में राजनीतिक पार्टियों के परिवारवाद की चपेट में आने का यह कोई नया मामला नहीं है. कांग्रेस, सपा, आरजेडी, डीएमके, आरएलडी, शिवसेना, अकाली दल, आईएनएलडी जैसी तमाम पार्टियां पहले ही परिवारवाद की चपेट में आ चुकी हैं. फिर भी बसपा में आया परिवारवाद कुछ कारणों से ज्यादा ध्यान आकर्षित करता है, जिसको समझना ज़रूरी है.

दरअसल, भारत की राजनीति के परिवारवाद पर ‘डेमोक्रैटिक डायनास्टीज’ नामक किताब सम्पादित करने वाली राजनीति विज्ञानी प्रो. कंचन चंद्रा के अनुसार यहां जैसे-जैसे राजनीतिक पार्टियां पुरानी होती जाती हैं, वैसे-वैसे परिवारवाद की चपेट में आती जाती हैं. बसपा के बारे में कंचन चंद्रा के कथन को देखा जाए तो यह अपेक्षाकृत नयी पार्टी है, क्योंकि इसका गठन अस्सी के दशक में हुआ, जबकि अन्य पार्टियां या तो कांग्रेस या फिर समाजवादी पार्टियों से टूट कर बनी हैं, जिसकी वजह से वो नयी होकर भी अपनी बनावट में पुरानी हैं. अकाली दल और डीएमके का गठन तो आज़ादी के पहले हुआ था.

इसलिए ये तर्क कमजोर है कि बाकी पार्टियां परिवारवादी हैं, तो फिर बसपा के परिवारवाद पर अलग से बातचीत क्यों?

दूसरी बात ये कि उन पार्टियों ने कभी भी परिवारवाद के ख़िलाफ़ कुछ नहीं बोला जबकि बसपा के संस्थापक कांशीराम ने दलितों-पिछड़ों-आदिवासियों के सामने क़समें खायी थीं कि वे और उनकी पार्टी परिवारवाद से हमेशा दूर रहेगी. ऐसा करने के लिए वो घर छोड़ने, शादी न करने की एक्स्ट्रीम हद तक चले गए. ताकि उनका कोई वारिस न हो. जब वारिस ही नहीं होगा तो परिवारवाद कैसे होगा? कांशीराम की बात मानकर उनके कई सहयोगियों ने घर-बार छोड़कर शादी न करने का फ़ैसला कर लिया था.


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आज उनमें से ज्यादातर लोग गुमनामी के अंधेरे में खो गए, लेकिन कुछ ने कांशीराम के परिनिर्वाण के बाद कोई न कोई बहाना बनाकर शादी कर ली. कांशीराम ने भले ही परिवार को छोड़ दिया रहा हो, लेकिन उनके परिवारवालों ने उनको कभी नहीं छोड़ा.  यहां तक कि उनकी मृत्यु के बाद के आयोजनों में भी वे शामिल रहे. चूंकि कांशीराम ने परिवारवाद को लेकर ऐसी ही प्रतिज्ञाएं अपनी उत्तराधिकारी मायावती से भी करायीं थी. इसलिए यह पार्टी कैसे परिवारवाद के रास्ते पर चल पड़ी, इसको समझना ज़रूरी है?  

मायावती ने अपने समर्थकों के मध्य यह संदेश फैलाया कि उनके अलावा कोई और नहीं है, जो इस पार्टी को सफलतापूर्वक चला पाए. ऐसा करने के लिए उन्होंने अपनी पार्टी के दूसरी पंक्ति के नेताओं को लगातार या तो बाहर का रास्ता दिखाया या फिर उभरने नहीं दिया. विकल्पहीनता की अफ़वाह से पार्टी समर्थकों में डर फैलता है कि उक्त नेता के न रहने पर वे बिखर जाएंगे और विरोधी उन पर आक्रमण करेंगे. भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में यही डर यानी असुरक्षा की भावना हर जाति और धर्म के व्यक्ति को अपने समाज के नेता के पीछे आंख मूंद कर लामबंद होने के लिए मजबूर करती है. ऐसा ही डर देवी-देवताओं का उपयोग करके भी किया जाता रहा है.

परिवार के सदस्यों को पार्टी सौंपने के क्रम में अब बीएसपी में मायावती के परिजनों को आगे किया गया है.  जब किसी पार्टी का नेता एक करिश्माई व्यक्ति होता है, तो उसके बाद लोग वही करिश्मा उसके परिवार के सदस्यों में देखने की कोशिश करते हैं. जिससे संगठन की पूरी कमान उस परिवार के हाथ में आ जाती है.

बसपा में यह माहौल बना दिया गया है कि इस पार्टी में मायावती से ज्यादा काबिल या मायावती जितना क़ाबिल कोई और नेता है ही नहीं. लेकिन, यदि बीएसपी के इतिहास और वर्तमान नेतृत्व पर नज़र डालें, तो कई ऐसे चेहरे नजर आते हैं, जिनकी क्षमता असंदिग्ध है.

अंबेथ राजन– कांशीराम के निजी सचिव के तौर पर अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत वाले अंबेथ राजन बामसेफ़डीएसफ़ोर से लेकर अभी हाल तक बसपा के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष रहे. वो राज्यसभा सांसद भी रहे. पूरे बहुजन आंदोलन में वरिष्ठतम राजनेता होने के बावजूद, आजकल उनके पास बीएसपी में कोई पद नहीं है. जबकि, अभी उनकी सक्रिय राजनीति की उम्र है. बसपा पार्टी संगठन को वे बेहतर तरीके से जानते हैं और तमाम पुराने नेताओं से उनका व्यक्तिगत परिचय है.

डॉ बलिराम अस्सी के दशक में बीएचयू में सहायक प्रोफ़ेसर की नौकरी छोड़कर कांशीराम के निर्देश पर बामसेफ से जुड़ेलम्बे समय तक बसपा के प्रमुख रणनीतिकार के तौर पर केंद्रीय कार्यालय का कामकाज देखने वाले डॉ बलिराम, आज़मगढ़ की लालगंज लोकसभा क्षेत्र से से कई बार सांसद भी चुने गए. बलिराम बसपा के उन चुनिंदा शीर्ष नेताओं में हैं, जो लोकसभा चुनाव लड़कर संसद जाने में यक़ीन रखते हैं. यह अलग बात है कि इस बार उनका टिकट नहीं दिया गया.

योगेश वर्मा– मेरठ की हस्तिनापुर सीट से विधायक रहे योगेश वर्मा की पहचान एक निडर दलित नेता की है. एससी-एसटी एक्ट को कमजोर किए जाने के खिलाफ अप्रैल के भारत बंद के बाद रासुका के तहत कई महीने जेल में रहकर आए. इस बार बुलंदशहर से लोकसभा चुनाव लड़कर हार गए. एक समय योगेश वर्मा दलितों की सबसे बड़ी रैली करके चर्चा में आए थे. आजकल के दलित युवाओं को जिस तरह के निडर और मुखर नेता पसंद हैं, उसमें योगेश वर्मा सटीक बैठते हैं.


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एन महेश– कांशीराम के समय से ही बसपा से जुड़े रहने वाले कर्नाटक के विधायक एन महेश दक्षिण भारत से इस पार्टी का चेहरा हो सकते थे. दक्षिण भारत के युवाओं में इनकी लोकप्रियता बढ़ी है.

सुखदेव राजभर– एक समय अतिपिछड़े वर्ग में बसपा का बहुत अच्छा जनाधार हुआ करता था, जिसके पीछे कांशीराम की वह रणनीति थी, जिसके तहत वो इन जातियों के लिए आंदोलन चलाने वाले नेताओं को अपने साथ जोड़ लेते थे. ऐसे नेताओं में सुखदेव राजभर का नाम प्रमुख है. आज उत्तर प्रदेश में राजभर समाज से जो भी नेता नजर आते हैं, वे सुखदेव राजभर की ही छत्रछाया में परिपक्व हुए. पांच बार विधायक चुने जाने के बावजूद कभी इनको सांसद बनने का अवसर नहीं मिला.

ऐसे ही यदि युवाओं की बात की जाए तो बसपा में उनकी कमी दिखती है, क्योंकि इस पार्टी की कोई छात्र शाखा नहीं हैं, जहां से युवा नेता तैयार होते हैं. युवा नेता न होने की वजह से बसपा को नेताओं के बेटे-बेटियों पर निर्भर रहना पड़ता है. देश भर में ऐसे तमाम युवा हैं, जिन्होंने बीएसपी में अपनी क़ाबिलियत साबित किया है. उनमें एक नाम हरियाणा के संजय बौद्ध का है. संजय बौद्ध ने 2011 में हरियाणा में अपने साथियों के साथ डॉक्टर आंबेडकर स्टूडेंट फ़्रंट ऑफ़ इंडिया (डास्फी) नामक छात्र संगठन बनाया. इसकी शाखाएं अब सोलह राज्यों में है. हरियाणा की खाप पंचायतों के दलित विरोधी निर्णयों पर रोक लगने के पीछे इस संगठन का भी योगदान है. अप्रैल का भारत बंद उन क्षेत्रों में ज़्यादा कामयाब हुआ था, जहां इस संगठन की गतिविधियां ज़्यादा हैं. आजकल संजय बौद्ध और उनका संगठन पंजाब के प्रवासी दलित व्यापारियों की मदद से दलित युवाओं को स्वरोजगार दिलाने पर कार्य कर रहे है.

बीएसपी के पास तमाम ऐसे नेता हैं. सवाल उठता है कि क्या मायावती उन्हें आगे बढ़ाने के लिए तैयार हैं?

(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं )

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