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Thursday, 26 December, 2024
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मुफ्त, मुफ्त, मुफ्त…: लोक-लुभावन वायदों की राजनीति पर कब लगाम लगाएगी सुप्रीम कोर्ट

यह समझने की जरूरत है कि जो लोकलुभावन घोषणाएं जिस जनता के लिए की जाती हैं वह पैसा राजनीतिक दलों द्वारा स्वयं अर्जित नहीं बल्कि करदाताओं का पैसा होता है जिसका परोक्ष भार कर के रुप में फिर से उनके ऊपर ही आता है.

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पांच राज्यों में चुनाव चल रहे हैं और इन सभी राज्यों में राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए जी जान से पार्टी हर प्रकार के हथकंडे अपना रही हैं. इसी क्रम में विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को अपने पक्ष में करने हेतु एक के बाद एक नकद एवं मुफ्त उपहारों की घोषणा की जा रही है. इस सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दाखिल की गयी है और इस याचिका का संज्ञान लेते हुए केंद्र सरकार एवं चुनाव आयोग को नोटिस जारी कर चार हफ्तों में जवाब मांगा है. याचिका में ऐसे दलों के द्वारा सरकारी खजाने से नकद एवं मुफ्त उपहारों का वादा करने वाले दलों की मान्यता रद्द करने एवं चुनाव चिन्ह जब्त करने की मांग की गयी है.

प्रश्न उठता है कि क्या इस तरह की लोक-लुभावन घोषणाओं के माध्यम से, विशेषकर चुनावों से ठीक पहले जनता की समस्याओं का स्थायी समाधान ढूंढा जा सकता है? क्या राजनीतिक दलों द्वारा वोट प्राप्त करने हेतु एवं चुनाव जीतने मात्र के लिए, आर्थिक परिस्थितियों का मूल्यांकन किये बगैर ऐसी घोषणाएं करने पर रोक लगनी चाहिए?

माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष यह मामला सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु राज्य के मामले में 2013 में आया था और उस समय सर्वोच्च न्यायालय ने इसे भ्रष्ट व्यवहार की श्रेणी में नहीं माना था.

हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी टिप्पणी की थी कि इस प्रकार की चुनावी घोषणाओं ने बड़े पैमाने पर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों की जड़ों को कमजोर किया है और निस्संदेह मतदाताओं के मतदान व्यवहार को प्रभावित किया है. विगत वर्षों में कुछ राज्यों के चुनावी परिणामों को देखने से ज्ञात होता है कि राजनीतिक दल इस प्रकार की तात्कालिक चुनावी घोषणाओं के माध्यम से जनता को कुछ हद तक अपने पक्ष में करने में सफल भी रहे हैं. विगत दस वर्षों में परिस्थितियां और बिगड़ी हैं, शायद यही कारण है कि न्यायालय ने इस बार इसकी गम्भीरता को संज्ञान में लिया है.


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मुफ्त वाली चुनावी घोषणाएं 

भारत में चुनावों के दौरान ऐसे वादे करना एवं चुनाव जीतने पर भूल जाने की संस्कृति नयी नहीं रही है. सर्वप्रथम इसकी शुरुआत तत्कालीन आंध्रप्रदेश में एन टी रामाराव द्वारा की गयी जब उन्होंने 2 रुपये किलो चावल देने की घोषणा की तथा उसके बाद तमिलनाडु की राजनीति में इसका वृहत्तर स्वरुप देखने को मिला. वहां दोनों ही क्षेत्रीय दलों द्वारा जनता को अपने पक्ष में करने के लिए एक से बढ़कर एक लोक-लुभावन घोषणाएं की जाती रही हैं. 100 यूनिट फ्री बिजली, परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी, कामकाजी महिलाओं को स्कूटी खरीदने में सब्सिडी से लेकर प्रेशर कुकर, मिक्सर ग्राइन्डर, मंगलसूत्र तक देने की भी घोषणा की गई.

भारत जैसे देश में जहां बड़े पैमाने पर गरीबी व्याप्त है क्या वास्तव में ऐसी घोषणाएं दीर्घकाल में भी जनता की गरीबी दूर करने में सफल होगी? क्योंकि जनता की वास्तविक गरीबी दीर्घकालीन एवं सुनियोजित नीतियों के माध्यम से ही दूर हो पायेगी न कि इस तरह की चुनावी घोषणाओं एवं योजनाओं से. यदि हम राजनीतिक दलों द्वारा की जा रही मुफ्त घोषणाओं को ध्यान से देखें तो हम पाते हैं कि समय के साथ मुफ्त घोषणाओं में हमें मौलिक परिवर्तन दिखायी पड़ रहा है. प्रारम्भ में मुफ्त बिजली, पानी, शिक्षा इत्यादि की घोषणाएं होती थी किन्तु अब तमिलनाडु के पैटर्न पर उत्तर प्रदेश में भी टी० वी०, मोबाइल, स्मार्टफोन, टेबलेट, लैपटाॅप, लोन माफी की बातें हो रही हैं जिन्हें यदि पूरी तरह वास्तविक धरातल पर उतारा जाये तो पूरे प्रदेश की शायद अर्थव्यवस्था ही चौपट हो जाये.

अगर हम समग्र रूप से उत्तर प्रदेश में मानव विकास के विभिन्न आयामों की चर्चा करें तो नीति आयोग द्वारा 2020-21 में जारी बहुआयामी गरीबी सूचकांक के आधार पर प्रदेश में 37.79 प्रतिशत जनता निर्धन है तथा उत्तर प्रदेश मात्र बिहार और झारखंड से ही बेहतर स्थिति में है ठीक इसी प्रकार मातृ-मृत्यु दर में राज्य की भयावह स्थिति है. स्वास्थ्य सुविधाओं की दृष्टि से उत्तर प्रदेश, देश के 21 बड़े राज्यों में सबसे निचले पायदान पर हैं. राज्य में नवजात शिशु मृत्यु दर प्रति 1000 जीवित बच्चों पर 31 है, 0-5 आयु वर्ग में बाल मृत्यु दर 51 (प्रति 1000 जीवित बालक) है जो कि राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है.


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कर दाताओं के पैसे और राजनीतिक पार्टियों के वादे

यह समझने की आवश्यकता है कि इन लोकलुभावन घोषणाओं को जिस जनता के लिए किया जाता है वह पैसा राजनीतिक दलों द्वारा स्वयं अर्जित नहीं बल्कि करदाताओं का पैसा होता है जिसका परोक्ष भार महंगाई एवं कर के रुप में पुनः उन्हीं के ऊपर आता है. यह उन राज्यों में या उन अर्थव्यवस्थाओं में तो सही हो सकता है जिनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ है तथा आमदनी के मजबूत स्रोत हैं किन्तु भारत में आश्चर्यजनक रुप से उन राज्यों में भी चुनावों के दौरान ऐसी घोषणाएं की जा रही हैं जिनकी आर्थिक स्थिति खराब है तथा कर्ज में डूबी हुई हैं.

उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में प्रत्येक नागरिक पर 22,242 रुपये का कर्ज है तथा प्रदेश सरकार पर कुल 516 लाख करोड़ रुपये से अधिक का कर्ज है. दिल्ली की तर्ज पर आम आदमी पार्टी और समाजवादी पार्टी द्वारा उत्तर प्रदेश में धरेलू उपभोक्ताओं को 300 यूनिट बिजली फ्री दिए जाने का चुनावी वादा किया गया है जबकि प्रदेश का विद्युत विभाग 90 हजार करोड़ रुपये के घाटे में है.

कांग्रेस पार्टी भी प्रदेश की आधी आबादी को रिझाने के लिए लड़कियों को फ्री स्कूटी देने के वादे के सहारेे चुनावी वैतरणी को पार करने का प्रयास कर रही है. राजनीतिक दलों द्वारा ठीक चुनावों से पहले ऐसी घोषणाएं क्या मतदाताओं को प्रभावित करने मात्र हेतु नहीं की जाती हैं? क्या यह निष्पक्ष एवं स्वतंत्र चुनाव की प्रक्रिया को प्रभावित नहीं करेगा?  राजनीतिक दलों द्वारा अपनी मुफ्त घोषणाओं को वह कैसे पूरा करेंगे, इसकी जबावदेही सुनिश्चित करने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए? क्या इस तरह की घोषणाएं लोकतंत्र को मजबूत करने के बजाय कमजोर नहीं करती हैं? क्या राजनीतिक दलों के द्वारा चुनावों के समय इस प्रकार के आचरण ने शासन को जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के माध्यम से चलाए जाने के लोकतान्त्रिक आदर्श के विपरीत राजनीतिक दलों/सरकार व जनता के सम्बन्धों को सेवा-प्रदाता और ग्राहक के रुप में नहीं बदल दिया है?

जिस प्रकार विभिन्न सेवा-प्रदाता फर्में स्वयं को चयनित किए जाने हेतु अलग-अलग लुभावने प्रस्ताव देती हैं उसी प्रकार राजनीतिक दलों द्वारा भी मतदाताओं को वोट के बदले अनेक आकर्षक वस्तुएं दिए जाने की घोषणाएं की जा रही है. इस सन्दर्भ में योजना आयोग ने भी बहुत पहले राज्यों को मतदाताओं के तुष्टिकरण पर रोक लगाने तथा समावेशी विकास पर ध्यान देने की बात की थी क्योकि इस तरह की लोकलुभावन नीतियां दीर्घकाल में लाभकारी नहीं हो सकतीं तथा अर्थव्यवस्था पर बोझ डालती हैं एवं मुद्रास्फीति को बढ़ावा देती हैं. इसके अतिरिक्त, बड़े राजनीतिक दलों द्वारा ऐसी घोषणाएं उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में छोटे दलों को समान अवसर नहीं उपलब्ध करायेगी क्योंकि वे क्षेत्र विशेष तक सीमित होने के कारण बड़े लोकलुभावन वायदे नहीं कर पायेंगे.

राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों के समय मतदाताओं के लुभाने वाली घोषणाओं के बजाय जनता में व्याप्त गरीबी को दूर करने तथा वंचित तबकों को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए अपनी सुनियोजित एवं प्रभावी योजना प्रस्तुत करनी चाहिए और इस आधार पर जनता को अपने पक्ष में मतदान करने की अपील करके चुनावी राजनीति में एक स्वस्थ परम्परा की शुरुआत करनी चाहिए.

प्रश्न उठता है कि ऐसी लोकलुभावन घोषणाएं सत्ता पक्ष एवं विपक्ष द्वारा क्यों की जाती हैं? शायद ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमारी अर्थनीति अधिकांश व्यक्तियों को सम्मानपूर्ण जीविका नहीं उपलब्ध कराती है. अतः सर्वोच्च न्यायालय को इसका संज्ञान लेना चाहिए तथा राजनीतिक दलों को लोकतंत्र में उनकी जबाबदेही एवं जिम्मेदारी सुनिश्चित करते हुए उनके झूठे वायदों पर रोक लगाने संबंधी समुचित दिशा निर्देश जारी करना चाहिए.

(लेखक बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर (केन्द्रीय) विश्वविद्यालय, लखनऊ में राजनीति विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष है, यहां व्यक्त विचार निजी हैं)


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