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Tuesday, 5 November, 2024
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क्या न्यायालय का फैसला सुलझा सकेगा राम जन्मभूमि मामला या फिर कोई नया विवाद होगा खड़ा

हिंदू पक्षों ने जहां विवादित स्थल पर नया निर्माण होने से पहले भव्य मंदिर होने का दावा किया वहीं मुस्लिम पक्षकारों ने खुदाई में मिली संरचना की तुलना ईदगाह से की.

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अयोध्या का राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद वैसे तो 1885 से चल रहा है लेकिन पिछले करीब 70 साल से यह सांप्रदायिकता की राजनीति का केन्द्र बना हुआ है. तमाम उतार चढ़ाव देखने के बाद अब यह ऐसे मुकाम पर पहुंच गया है जहां उम्मीद की जा सकती है कि इसका कोई न कोई सुविचारित समाधान निकल आयेगा. इसकी मुख्य वजह राजनीतिक दृष्टि से बेहद संवेदनशील इस प्रकरण की उच्चतम न्यायालय में शांतिपूर्ण तरीके से सुनवाई संपन्न होना है. अब सबकी निगाहें संविधान पीठ के निर्णय की ओर लगी हैं जो 15 नवंबर तक आ सकता है.

क्या होगा फैसला

हालांकि, संविधान पीठ के निर्णय के बारे में किसी प्रकार की भी अटकल लगाना उचित नहीं है, लेकिन इसके बावजूद मन में सवाल उठ रहा है कि यदि उच्चतम न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय रद्द करते हुये नयी व्यवस्था दी तो परिस्थितियां कैसी हो सकती हैं? इसी तरह, यदि संविधान पीठ ने 2.77 एकड़ विवादित भूमि तीनों पक्षों में बराबर- बराबर बांटने का उच्च न्यायालय का सितंबर, 2010 का निर्णय बरकरार रखा तो क्या स्थिति होगी? क्या संविधान पीठ के फैसले के बाद सभी पक्ष उसकी व्यवस्था को स्वीकार करेंगे या इस विवाद को जिंदा रखने के लिये फिर कोई नया तरीका अपनायेंगे?


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न्यायालय ने कई बार इस विवाद को सौहार्दपूर्ण तरीके से सुलझाने के सुझाव दिये और इस साल आठ मार्च को उसने शीर्ष अदालत के पूर्व न्यायाधीश एफएमआई कलीफुल्ला की अध्यक्षता में मध्यस्थता समिति भी गठित की लेकिन यह भी किसी नतीजे पर पहुंचने में विफल हो गयी थी.

इस असफलता के बाद ही प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने छह अगस्त से 40 दिन तक लगातार सुनवाई करके सभी पक्षों के तर्को को ध्यान पूर्वक सुना है. इस दौरान, हिन्दू और मुस्लिम पक्षकारों ने राम जन्मस्थल और विवादित स्थल पर अपने-अपने दावों के पक्ष में वेद पुराणों, बाबरनामा, जहांगीरनामा और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट सहित अनेक महत्वपूर्ण दस्तावेजों का सहारा लिया. यही नहीं, पुरातत्व सर्वेक्षण को खुदाई के दौरान मिले अवशेषों में शामिल देवी देवताओं के उकेरे हुये स्तम्भों, दीवारों की संरचना और दूसरी सामग्री के बारे में दोनों पक्षों ने अपनी अपनी दलीलें दीं.

भव्य राम मंदिर बनाम ईदगाह

हिंदू पक्षों ने जहां विवादित स्थल पर नया निर्माण होने से पहले भव्य मंदिर होने का दावा किया वहीं मुस्लिम पक्षकारों ने खुदाई में मिली संरचना की तुलना ईदगाह से की. प्रधान न्यायाधीश द्वारा सुनवाई के लिये निर्धारित कार्यक्रम पर सख्ती से अमल का ही नतीजा था कि छोटी मोटी नोंक झोंक के अलावा कुल मिलाकर राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद की सुनवाई शांति पूर्वक सम्पन्न हुयी.

वैसे इन अपीलों को राजनीतिक रंग देने के प्रयासों से दूर रखने में शीर्ष अदालत को मिली सफलता का श्रेय दो फरवरी, 2018 के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ के उस आदेश को भी दिया जाना चाहिए जिसने इसे ‘मालिकाना हक के विवाद’ तक सीमित करते हुये इनमें हस्तक्षेप करने की इच्छा रखने वाले अनेक लोगों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया था. न्यायालय ने दो टूक शब्दों में कह दिया था कि इस प्रकरण को दीवानी अपील के अलावा कोई अन्य शक्ल देने की इजाजत नहीं दी जायेगी और यहां भी वही प्रक्रिया अपनाई जायेगी जो उच्च न्यायालय ने अपनाई थी.

उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ दायर अपीलों पर फरवरी 2018 में ही सुनवाई शुरू होने की उम्मीद थी लेकिन उस समय मुस्लिम पक्षकारों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने एक कानूनी मुद्दा कर इसमें विलंब डालने का प्रयास किया था.

मुस्लिम पक्षकार चाहते थे कि न्यायालय ने इस्माइल फारूकी बनाम भारत संघ प्रकरण में शीर्ष अदालत की एक टिप्पणी को नये सिरे से विचार के लिये वृहद पीठ को सौंपा जाये. इस मुद्दे पर तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने विचार किया. राजीव धवन ने पांच सदस्यीय संविधान पीठ के 24 साल पुराने फैसले में की गयी टिप्पणी का मुद्दा उठाया था और इस सवाल पर सुविचारित व्यवस्था देने का अनुरोध किया था कि ‘क्या मस्जिद में नमाज़ पढ़ना इस्लाम का हिस्सा है?’


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लेकिन, 27 सितंबर, 2018 को तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नज़ीर की पीठ ने बहुमत के फैसले में उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ के 24 साल पुराने फैसले की टिप्पणी नये सिरे से विचार के लिये इसे वृहद पीठ को सौंपने से इंकार कर दिया था. इस तरह न्यायालय ने श्रीराम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की सुनवाई में रोड़ा बने इस मुद्दे पर विराम लगा दिया था.

पीठ ने स्पष्ट किया था, ‘इस्माइल फारूकी मामले में 1994 के फैसले में की गयी सवालिया टिप्पणियां भूमि अधिग्रहण के संदर्भ में की गयी थीं. ये टिप्पणियां न तो वाद और न ही इन अपीलों का फैसला करने के लिये प्रासंगिक हैं.’ वैसे भी राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को लेकर लंबित दीवानी वाद में साक्ष्यों के आधार पर निर्णय होगा.

दूसरी ओर, अल्पमत का फैसला सुनाने वाले न्यायमूर्ति एस अब्दुल नज़ीर ने इससे अहसमति व्यक्त करते कहा था कि ‘धार्मिक आस्था’ को ध्यान में रखते हुये इसका निर्णय करना होगा कि क्या मस्जिद इस्लाम का अंग है या नहीं और इस पर विस्तार से विचार की आवश्यकता है. न्यायमूर्ति नज़ीर ने इस तर्क के समर्थन में मुस्लिम समाज के दाउदी बोहरा संप्रदाय में बच्चियों के खतने को लेकर उठे सवालों को संविधान पीठ को सौंपने का भी हवाला अपने फैसले में दिया था.

बहरहाल, सितंबर, 2018 के इस फैसले के बाद इस विवाद की सुनवाई के दौरान किसी भी प्रकार की दिक्कत का रास्ता साफ हो गया था. उम्मीद थी कि इसके बाद सब कुछ सुचारू ढंग से होगा लेकिन ऐसा हो नहीं सका क्योंकि इस प्रकरण में उच्च न्यायालय में विचार किये गये कई भाषाओं के दस्तावेज़ों के प्रमाणित अनुवाद का मुद्दा भी उठा जिसे शीर्ष अदालत ने सुलझाने में सफलता पायी.

उच्च न्यायालय के फैसले से पता चलता है कि इस विवाद में पहला वाद जनवरी, 1885 में अयोध्या में महंत जनम स्थान रघुबर दास ने दायर किया था. वाद के साथ इस स्थल का एक नक्शा भी संलग्न किया गया था. इस मामले में बाबरी मस्जिद के मुतवल्ली होने का दावा करने वाले मोहम्मद असगर ने इसमें पक्षकार बनने के लिये अर्जी दायर की जिसे अदालत ने स्वीकार कर लिया था.

अयोध्या में चबूतरा जनम स्थान पर मंदिर निर्माण की अनुमति और बचाव पक्ष को वादी की इस कवायद मे किसी तरह के हस्तक्षेप से रोकने के लिये यह वाद दायर किया गया था. इसमें कहा गया था कि फैज़ाबाद शहर के अयोध्या में स्थित जनम स्थान बहुत ही प्राचीन और पवित्र धार्मिक स्थल है. इस चबूतरे पर चरण पादुका रखी थीं तथा यहां एक छोटा सा मंदिर था जहां पूजा होती थी.


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यह चबूतरा वादी के कब्जे में था और गर्मी, सर्दी तथा बारिश के मौसम में चूंकि बहुत परेशानी होती थी, इसलिए इस पर मंदिर निर्माण की अनुमति का अनुरोध किया गया था ताकि किसी को चोट नहीं लगे.

इस मामले में पहला फैसला फैज़ाबाद की अदालत ने 24 दिसंबर, 1885 को सुनाया. इसमे उप न्यायाधीश ने अमीन की रिपोर्ट पर मोहम्मद असगर की कुछ आपत्तियों का ज़िक्र करते हुये यह पाया कि चबूतरे पर चरण उकेरे हुये थे और ठाकुरजी की मूर्ति विराजमान थी जिनकी पूजा होती थी. अमीन के नक्शे से एक बात और साफ थी कि मस्जिद और चबूतरे के बीच एक पक्की दीवार थी जिसमे ग्रिल लगी थी.

ज़िला न्यायाधीश ने 1886 में किया था मामले का निबटारा

इस फैसले और डिक्री के खिलाफ अपील का फैजाबाद के जिला न्यायाधीश ने 18 मार्च 1886 को निबटारा कर दिया. इस फैसले के अनुसार न्यायाधीश ने सभी पक्षों की मौजूदगी में 17 मार्च 1886 को विवादित स्थल का दौरा किया और पाया कि अयोध्या शहर की सीमा पर बाबर द्वारा निर्मित मस्जिद मौजूद थी. न्यायाधीश ने लिखा, ‘यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिन्दुओं द्वारा विशेषरूप से पवित्र मानी जाने वाली इस भूमि पर मस्जिद का निर्माण किया गया परंतु यह घटना 356 साल पहले हुयी है, इसलिए इसे लेकर शिकायत के समाधान के लिये बहुत अधिक देर हो चुकी है. इसमें सिर्फ यही हो सकता है कि संबंधित पक्ष यथास्थिति बनाये रखें.’

ज़िला न्यायाधीश ने आगे लिखा, ‘हिन्दुओं के कब्जे वाले चबूतरे के बायीं ओर इस घेरे के प्रवेश द्वार पर ‘अल्लाह’ लिखा हुआ है. यहीं पर तंबू की शक्ल में लकड़ी के छोटे-छोटे 20 खोखे हैं. इस चबूतरे के बारे में कहा जाता है कि यह राम चन्द्र के जन्म स्थल का सूचक है. इनके बीच एक दीवार है जो मस्जिद के प्लेटफार्म और चबूतरे को विभाजित करती है.’

इसके बाद अवध के न्यायिक आयुक्त के यहां दूसरी दीवानी अपील भी खारिज हो गयी थी लेकिन इस फैसले में कहा गया कि परिसर के भीतर हिन्दुओं को सीता रसोई और राम जन्म स्थान तक आने का अधिकार है. इसमें भी विवादित स्थल पर यथास्थिति बनाये रखने के आदेश को सही ठहराया गया था.

खैर, 22 दिसंबर,1949 तक यही स्थिति बनी रही परंतु 23 दिसंबर, 1949 को परिस्थितियां बदल गयीं. उस दिन अयोध्या थाने के प्रभारी सब इंसपेक्टर पंडित श्रीरामदेव दुबे ने प्राथमिकी दर्ज करायी जिसमे 50-60 व्यक्तियों द्वारा बाबरी मस्जिद परिसर में लगाया ताला तोडने, सीढियों से चढ़कर मस्जिद में गैरकानूनी तरीके से हस्तक्षेप करने, श्री भगवान की मूर्ति रखने और भीतर तथा बाहर की दीवार पर श्रीराम आदि लिखने का आरोप लगाया गया था.


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इस घटना को लेकर तनाव बढ़ने के कारण 29 दिसंबर, 1949 को इस परिसर को अदालती आदेश से जब्त कर लिया गया और एक रिसीवर बिठा दिया गया. दो आदेशों के तहत यहां दो या तीन पुजारियों को वहां पूजा अर्चना करने की अनुमति प्रदान की गयी थी जबकि राम जन्म स्थान के दर्शन के लिये आने वालों को ग्रिल से आगे जाने की अनुमति नहीं थी.

इस घटनाक्रम के बाद मालिकाना हक के नाम से चर्चित इस प्रकरण में 16 जनवरी, 1950, 17 दिसंबर, 1959, 18 दिसंबर, 1961 और एक जुलाई, 1989 को फैज़ाबाद के दीवानी न्यायाधीश में मुकदमे दायर किये गये. उच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार इस समय वहां निर्मित हिस्सा, चारदीवारी और राम चबूतरा नहीं है क्योंकि इन्हे छह दिसंबर, 1992 को ढहा दिया गया था. इसे ध्वस्त करने के बाद उस स्थान पर अस्थाई मंदिर का निर्माण करके उसमें मूर्तियां रख दीं गयीं थीं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

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