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Thursday, 25 April, 2024
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स्मृति, यात्रा और आस्था – सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या की भूमि पर रामलला, वक्फ़ बोर्ड का दावा

दशकों लंबे अयोध्या मामले में अगले महीने तक फैसला आ सकता है. मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई नवंबर मध्य तक सेवानिवृत्त होने वाले हैं.

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नई दिल्ली: चालीस दिनों की जबरदस्त बहस, सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने दशकों से चले आ रहे ‘राम जन्मभूमि विवाद’ सुनवाई को आखिरकार अंत तक पहुंचने में कामयाब रही. जो पिछले दो दशकों से एक शक्तिशाली सांप्रदायिक मुद्दा बनी हुई है.

सीजेआई रंजन गोगोई के सेवानिवृत्त होने से पहले इस मामले में फैसला आने की संभावना है. उम्मीद है कि नवंबर के मध्य में ही इसका फैसला आ जाएगा. सुप्रीम कोर्ट इस मामले में तब सामने आया, जब 2010 के इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश के मामले में दो पक्षकारों ने इसके फैसले को चुनौती दी, जिसमें दो हिंदू पक्षों – निर्मोही अखाड़ा और राम लला विराजमान और सुन्नी वक्फ़ बोर्ड के बीच जमीन को तीन हिस्सों में बांटा गया.

मामला विशेष रूप से 14 याचिकाओं से संबंधित है और सवाल यह है कि तीनों पक्षों में से कौन जमीन का मालिक है.

इस पूरे मामले की सुनवाई अगस्त की शुरुआत में शुरू हुई थी, और अब तक के मामलों को देखें तो शीर्ष अदालत द्वारा दैनिक आधार पर सुनवाई किए जाने वाला यह दूसरा सबसे बड़ा केस है. इससे पहले आधार मामले की सुनवाई लगातार 38 दिनों तक चली थी. जबकि केशवानंद भारती मामला 60 दिनों तक चलने वाला सबसे लंबा मामला है.

ऐसे मामला जहां दो समुदायों की भावनाएं एक 2.77-एकड़ भूखंड के स्वामित्व का दावा करने के लिए खाली किया गया है. इसके लिए अप्रत्याशित रूप से तर्कों की धुरी का गठन किया गया है और साथ ही इस पूरे मामले में कानून और सबूतों के दायरे में इसका परीक्षण भी किया गया है.

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बता दें कि इस भूखंड पर निर्मोही अखाड़ा खुद को ‘शेबिटशिप’ (उपासक), होने का दावा करते हुए इस स्थल के प्रबंधन और स्वामित्व पर जोर देता है, सुन्नी वक्फ बोर्ड इस भूखंड के बरामदे का दावा करता है जो इसका आंतरिक प्रांगण है, यह वही जगह है जहां 1992 में बाबरी मस्जिद के गिराए जाने से पहले खड़ी थी. राम लला विराजमान, जो कि इस मामले में एक पार्टी है उसका दावा है कि संपूर्ण अयोध्या एक दिव्य न्यायवादी इकाई है.

निर्मोही अखाड़ा

निर्मोही अखाड़ा संतों का समूह है. उनका दावा है कि वो भगवान राम के कई सदियों से उपासक रहे हैं. इसलिए वो इस विवादित जगह के असली हकदार हैं.

हिंदू कानून से उपासक का सिद्धांत निकलता है. जिसमें उपासकों को देवताओं और उनसे जुड़े संपत्ति का हकदार माना जाता है.


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कवि रामानंद द्वारा अखाड़ा की स्थापना की गई थी. मौखिक मान्यताओं के आधार पर ये अखाड़ा चल रहा है. इसको चलाने के लिए कोई लिखित नियम नहीं है.

1885 में फैजाबाद कोर्ट में अखाड़ा की तरफ से याचिका दायर की गई थी. फैजाबाद जिले का नाम बदलकर अब अयोध्या कर दिया गया है. याचिका में राम मंदिर बनाने को लेकर इजाजत मांगी गई थी. हालांकि कोर्ट ने सांप्रदायिक तनाव बढ़ने की संभावना को देखते हुए इजाजत देने से मना कर दिया था.

गोपाल दास विषारद की तरफ से राम मंदिर बनाने को लेकर 1950 में दायर याचिका की गई थी. जिसके बाद 1959 में अखाड़ा इस मामले से जुड़ा.

शीर्ष अदालत में अखाड़े ने दलील दी कि भगवान राम के उपासक होने के नाते वो इसमें पक्षकार हो सकते हैं.

वकील सुशील जैन (जो हिंदू संगठनों के पक्षकार हैं) का कहना है कि अगर अखाड़े के पक्ष में फैसला नहीं आता है तो वो इसे स्वीकार नहीं करेंगे. अगर राम लला विराजमान को भी जमीन मिलती है तो भी वो इसे स्वीकार नहीं करेंगे.

हाई कोर्ट की तरफ से जब फैसला आया था तब अखाड़े की तरफ से कहा गया था कि वो 1934 से इस भूमि के असल अधिकारी हैं और मुस्लिम यहां नमाज नहीं पढ़ते थे.

राम लला

वर्तमान टाइटल सूट मामले में राम लला विराजमान 1989 में पहली बार लीगल पार्टी बने थे. राम लला राम को शिशु के तौर पर पेश कर रही है और कह रही है कि वो कोर्ट जाने को लेकर योग्य नहीं है. इसलिए इलाहाबाद हाई कोर्ट के पूर्व जज देउकी नंदन अग्रवाल इस मामले को हाई कोर्ट ले गए. इसी मामले में जन्मभूमि को लेकर भी विवाद है.

अखाड़ा की तरफ से सभी दलीलें खत्म होने के बाद राम लला विराजमान और सभी हिंदू संगठनों (जिसे सुप्रीम कोर्ट ने एक ही ईकाई माना है) ने दावा किया कि भव्य राम मंदिर बाबरी मस्जिद की जगह पर ही बना हुआ था. जिसपर बाबर ने 16वीं सदी में मस्जिद का निर्माण करवाया था.


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उनका दावा है कि ने केवल विवादित भूमि बल्कि पूरी अयोध्या (जो कि राम की जन्मभूमि है) एक न्यायिक ईकाई है.

वरिष्ठ वकील और पूर्व अटार्नी जनरल के परासरन राम लला का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. हिंदू लोगों का भूमि पर अधिकार के बारे में दलीलें पेश करते हुए उन्होंने आजादी से पहले आए इस मामले के फैसले का जिक्र किया. मस्जिद शाहिद गंज मामले में कहा गया था कि मस्जिद स्थान केवल प्रार्थना के लिए है और इसे हिंदू प्रार्थना स्थल से तुलना नहीं कर सकते हैं जो कि एक लीगल ईकाई है.

उन्होंने कहा कि हिंदू धर्म में प्रार्थना के लिए जरूरी नहीं है कि वहां पर मूर्तियां हो.

परासरन ने स्कंद पुराण और अन्य धार्मिक ग्रंथों का जिक्र करते हुए बताया कि वहां पर काफी बड़ा मंदिर का ढांचा था और वहां पिलर भी मिले हैं.

उन्होंने 2003 में एएसआई के सर्वे का जिक्र भी किया जिसमें उस जगह पर ढ़ांचा मिलने की बात कही गई थी. उन्होंने दलील दी कि मस्जिद की जगह पर मंदिर के अवशेष मिले हैं. जो साबित करता है मुस्लिम लोग इस जगह पर प्रार्थना नहीं करते थे और ये इस्लामिक मान्यताओं के खिलाफ है.

6 दिसंबर 1992 को जब बाबरी मस्जिद को गिराया गया था उससे पहले इस जगह पर मूर्तियों की फोटो मिली थी.

1950 में फैजाबाद के कमिश्नर ने एक रिपोर्ट तैयार की थी जिसमें इस जगह पर 14 पिलर होने की बात कही थी. इन पिलर का हिंदू धर्म से संबंध था.

दावा किया गया कि एक पिलर पर गरुड़ की तस्वीर बनी हुई है जिसे हिंदू मान्यताओं में माना जाता है. राम लला ने दलील दी कि मुस्लिम मस्जिदों में इंसानों और जानवरों की तस्वीरें नहीं होती हैं.

अंग्रेस मर्चेंट विलियम फिंच, इतालियन मिशनरी जोसेफ ताइफेनथेलर और आइरिश लेखक मार्टिन के 17वीं, 18वीं और 19वीं सदी में लिखे यात्रावृत्तांत भी राम लला के दलीलों को सही ठहराते हैं.

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इन मूर्तियों के कोर्ट में प्रस्तुतिकरण पर एतराज जताया है और कहा है कि इस मामले के शुरुआती समय में ऐसे सबूत पेश नहीं किए गए थे.

रामलला ने अपनी दलीलों में कहा कि यह भूमि भगवान राम से संबंध रखती है और कोई इस पर दावा नहीं कर सकता है.

सुन्नी वक्फ बोर्ड

हिंदू संगठनों द्वारा अपनी दलीलें खत्म करने के बाद सुन्नी वक्फ बोर्ड की तरफ से वरिष्ठ वकील राजीन धवन ने दलीलें पेश की.

वक्फ बोर्ड इस मामले में 1961 में एक पार्टी बना. बोर्ड को दावा है कि मस्जिद गिराए जाने से पहले वहां प्रार्थना होती थी.


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धवन ने कहा कि मस्जिद पर अल्लाह शब्द लिखा हुआ था. इसलिए यह साबित होता है कि यह इस्लामिक ढांचा था जहां मुस्लिम लोग प्रार्थना करते थे.

धवन ने कई सारे इतिहासकारों की रिपोर्ट पेश की है जो दावा करता है कि बाबरी मस्जिद को मंदिर तोड़कर नहीं बनाया गया था.

मुस्लिम समुदाय की तरफ से विवाद यह है कि भगवान राम बाबरी मस्जिद के केंद्रीय ढांचे के नीचे ही पैदा हुए थे या राम चबूतरा पर.

वरिष्ठ वकील का कहना है कि किसी के पास कोई सबूत नहीं है कि राम भीतरी गुंबद के नीचे ही पैदा हुए थे.

उनका कहना है कि हिंदुओं को अधिकार था कि वो मस्जिद में घुस के प्रार्थना कर सकते थे. इसलिए वो साल 1949 के 22-23 नवंबर की रात मस्जिद में घुस कर देवताओं की मूर्ति रख कर चले गए.

वरिष्ठ वकील जफरयाब जिलानी मुस्लिम पक्ष के पैरोकार हैं. उनकी दलील है कि विवादित जगह पर मुस्लिम लगातार नमाज पढ़ रहे थे. इसके लिए वो दस्तावेज भी पेश कर सकते हैं कि इस मस्जिद के इमाम की नियुक्ति होती थी.

वरिष्ठ वकील मीनाक्षी अरोड़ा जो बोर्ड की पैरोकार हैं, उनका कहना है कि राम लला जिस एएसआई की रिपोर्ट की बात कर रहा है उसमें कमियां हैं.

उनका कहना है कि कोर्ट इस रिपोर्ट पर ज्यादा भरोसा नहीं कर रहा है. उन्होंने इस रिपोर्ट में कमियां होने की भी बात कही.

उनका कहना है कि रिपोर्ट के अनुसार, पिलर मस्जिद के निचले हिस्से में मिले हैं जो अलग अलग ऊंचाई के हैं. उनका कहना है कि इन पिलर से कोई ढांचा नहीं बनाया जा सकता है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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