परिवारवाद एक ऐसा विषय है जो लम्बे समय से भारतीय राजनीति में बहस का केंद्र बना हुआ है. इसकी आलोचना में कई लेख लिखे गए, कई सामाजिक चिंतकों ने परिवारवाद की आलोचना की, पर हकीकत ये है कि भारतीय राजनीति में परिवारवाद की जड़ें और भी गहरी होती जा रही हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि जैसे-जैसे पार्टियां पुरानी होती जा रही हैं नेताओं की दूसरी, तीसरी और चौथी पीढ़ियां मैदान में आ रही हैं. नई पार्टियों में ये समस्या कम होती है. नेताओं की संतानों के नेता बनने का चलन सिर्फ भारत का नहीं, बल्कि सारी दुनिया में है.
परिवारवाद का आरोप कांग्रेस के लिए बना मुसीबत
परिवारवाद अब पार्टियों के लिए मुसीबत भी बन रहा है. बीते आम चुनाव में भाजपा नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस के परिवारवाद पर हमला करते हुए कांग्रेस को ‘नामदारों‘ की पार्टी बताया. कांग्रेस परिवारवाद के आरोपों से भीतर ही भीतर इतनी हिल गई है कि अब वह अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की तलाश गांधी-नेहरू परिवार से बाहर कर रही है.
गांधी-नेहरू परिवार के बाहर से राष्ट्रीय अध्यक्ष खोजने की कांग्रेस की मजबूरी को भाजपा की नैतिक जीत के रूप में देखा जा सकता है, जिसने गांधी-नेहरू परिवार के परिवारवाद को राजनीतिक मुद्दा बनाया.
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बीजेपी में भी पनप चुका है परिवारवाद
हालांकि, बीजेपी में भी परिवारवाद तेजी से जड़ जमा रहा है. चूंकि शीर्ष पर पार्टी नए-नए नेताओं को आगे कर पा रही है, इसलिए ये बीमारी दिख नहीं रही है. लेकिन बीजेपी के अंदर दर्जनों राजनीतिक परिवार पल रहे हैं और ये समस्या कभी भी पूरी पार्टी को घेरती हुई नजर आ सकती है. बीजेपी के अंदर कल्याण सिंह परिवार, वसुंधरा राजे परिवार, राजनाथ सिंह परिवार, मेनका गांधी परिवार, प्रमोद महाजन परिवार, देवेंद्र फडणवीस परिवार, धर्मेंद्र प्रधान परिवार, राव इंद्रजीत सिंह परिवार, पीयूष गोयल परिवार, अनुराग ठाकुर परिवार जैसे कई उदाहरण हैं. 1999 लोकसभा चुनाव के बाद जहां कांग्रेस के 39 विरासत वाले सांसद लोकसभा में चुने गए, वहीं 31 सांसदों के साथ बीजेपी भी खास पीछे नहीं है. बीजेपी में शिखर पर परिवारवाद कम इसलिए दिख रहा है क्योंकि बीजेपी के सत्ता में आए लंबा समय नहीं हुआ है और इसके नेताओं की दूसरी और तीसरी पीढ़ियां अभी आई नहीं हैं.
परिवारवाद बन रहा क्षेत्रीय दलों के खात्म़े का कारण
जब ये तर्क दिया जाता है कि परिवारवाद क्षेत्रीय दलों के खात्मे का कारण बन रहा है तो तुरंत ये सवाल किया जाता है कि – कांग्रेस में भी परिवारवाद है, फिर कांग्रेस अब तक कैसे जीवित है या चल रही है. तो इस सवाल का सीधा जवाब ये है कि कांग्रेस ने आजादी के बाद के उस दौर में सत्ता संभाली जब कांग्रेस को चुनौती देने वाला कोई राष्ट्रीय राजनीतिक दल भारत में मौजूद ही नहीं था. लगभग तीन दशक तक तो कांग्रेस ने केंद्र में एकछत्र राज किया. कई राज्यों में ये समय और लंबा चला.
जैसे ही कांग्रेस कमजोर पड़ी और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी ने कांग्रेस के परिवारवाद पर सवाल उठाया, कांग्रेस को अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष गांधी-नेहरू परिवार के बाहर खोजने को मजबूर होना पड़ा. मतलब साफ है – मजबूत विपक्ष के अभाव में कांग्रेस के भीतर परिवारवाद चलता रहा लेकिन क्षेत्रीय दलों की स्थिति ऐसी नहीं है. देश के सभी क्षेत्रीय दलों का मुकाबला राष्ट्रीय पार्टियों के अलावा कुछ ऐसी क्षेत्रीय पार्टियों से है जो परिवारवाद को लेकर सवाल खड़े करती हैं.
कुछ राजनैतिक विद्वान ये तर्क दे सकते हैं कि नवीन पटनायक और जगन मोहन रेड्डी भी राजनैतिक उत्तराधिकारी हैं, फिर ये नेता सफल क्यों हैं? तो जगन मोहन रेड्डी को उनके पिता ने सीधे मुख्यमंत्री नहीं बनाया. जगन मोहन जनता के बीच गए और जनता का उन्हें समर्थन जरूर मिला. नवीन पटनायक जरूर अपने पिता बीजू पटनायक के राजनैतिक उत्तराधिकारी हैं और सफल राजनेता भी हैं लेकिन इसे अपवाद माना जाना चाहिए. ऐसा बिल्कुल नहीं है कि किसी राजनेता की संतान अयोग्य ही होगी. बीजू पटनायक भी ऐसे भाग्यशाली नेता थे, जिन्हें योग्य उत्तराधिकारी मिला.
परिवारवाद के आधार पर सत्ता हासिल करने वाली संस्था या संगठन के ढह जाने का अधिक खतरा होता है. परिवारवाद के कारण किसी न किसी पीढ़ी में कोई न कोई अयोग्य नेता के आने का खतरा बना रहता है, जिसके कारण पूरी पार्टी खत्म हो जाती है.
क्या पुत्रमोह में भटक गए क्षेत्रीय दलों के नेता?
ऐसा माना जाता है कि उत्तर भारत में कांग्रेस के एकाधिकार को सबसे पहले मजबूत चुनौती समाजवादियों से ही मिली. ऐसे समाजवादियों में दो नाम प्रमुख थे. चौधरी चरण सिंह और कर्पूरी ठाकुर. इन दोनों नेताओं के सामने जब अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी चुनने का समय आया तो इन दोनों ही नेताओं ने अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी न तो अपनी जाति में खोजा और न ही अपने परिवार में. चौधरी चरण सिंह ने तेज-तर्रार, जुझारू और जमीनी नेता मुलायम सिंह यादव को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाया तो कर्पूरी ठाकुर की विरासत लालू प्रसाद यादव ने संभाली. एक दौर था जब लालू प्रसाद यादव जनसभाओं में दहाड़ कर बोलते थे कि – राजा हमेशा रानी के पेट से पैदा नहीं होगा. आज वही लालू यादव कहते हैं कि बाप की सम्पत्ति बेटे को नहीं मिलेगी तो किसे मिलेगी?
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मुलायम सिंह के अयोग्य वारिस
यही हाल मुलायम सिंह यादव का भी है. मुलायम सिंह यादव ने भी पुत्र मोह में अपने अयोग्य पुत्र अखिलेश यादव को अपनी पार्टी सौंप दी. अखिलेश यादव को अयोग्य मानने के मेरे पास दो कारण हैं. पहला – अखिलेश यादव में अपने समाज के लिए और न्याय के लिए लड़ने का साहस नहीं है. वग लोहिया का नाम तो लेते हैं, लाल टोपी भी पहनते हैं, पर लोहिया के सबसे बड़े राजनैतिक नारे ‘पिछड़े पावें सौ में साठ‘ को सत्ता में रहने पर भी लागू न कर पाने का साहस उनमें नहीं था. दूसरी वजह, अगर चुनाव को ही सफलता और असफलता का पैमाना माना जाए तो अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी ने तीन चुनाव (2014, 2017 और 2019) लड़े और तीनों चुनाव सपा बुरी तरह हारी. चूंकि भारतीय राजनीति में नैतिकता नाम की कोई चीज है ही नहीं है, इसलिए अखिलेश यादव के नेतृत्व पर कोई सवाल खड़ा नहीं हुआ है.
अखिलेश यादव के साथ समस्या ये है कि उन्होंने अपनी राजनीति को अपने पिता की तरह मेहनत करके कमाया नहीं है. इसलिए वह राजनीति की कीमत नहीं समझते और पार्ट टाइम पॉलिटिशियन की तरह व्यवहार करते हैं. दरअसल, उत्तराधिकार से सत्ता प्राप्ति में कभी-कभी परिवार में आपस में लड़ाई भी हो जाती है. अखिलेश यादव भी अपने परिवार से उत्तराधिकार के युद्ध में उलझकर रह गए.
हकीकत ये है कि अखिलेश यादव के पास न तो भाजपा जैसी मजबूत पार्टी से लड़ने की वैचारिक ताकत है, न ही कोई रणनीति है और न ही नीयत. 2022 का विधानसभा चुनाव अखिलेश यादव के लिए पानीपत के ऐतिहासिक युद्ध से कम नहीं है. अखिलेश यादव अगर 2022 का चुनाव हारते हैं तो जिस तरह पानीपत के प्रथम युद्ध में इब्राहिम लोदी के लोदी वंश का पतन हो गया उसी तरह 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव की हार सैफई राजवंश के पतन का कारण बनेगी.
(लेखक भारत जनमत यूट्यूब चैनल के संपादक हैं.)