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Monday, 4 November, 2024
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कोरोना संकट के दौरान नीतीश कुमार की बेफिक्री का राज क्या है

विधानसभा चुनाव सिर पर होने के बावजूद बिहार के लाखों प्रवासी मजदूरों को लेकर प्रदेश के सत्ताधारी गठबंधन में उस तरह की चिंता नहीं दिख रही है, जो सामान्यत: होनी चाहिए. क्या हो सकती है इसकी वजह?

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बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इस समय एक चिंतित व्यक्ति होना चाहिए. बिहार के लाखों या संभवत: करोड़ों मजदूर और छोटे व्यवसायी देश के विभिन्न इलाकों में फंसे हुए हैं और बिहार लौटना चाहते हैं. ये लोग बिहार की अर्थव्यवस्था में भी बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. राज्य में प्रवासी मजदूरों द्वारा भेजी जाने वाली रकम अब कम हो सकती है या बंद हो सकती है.

अन्य राज्यों में वे तकलीफ में हैं और रास्ते में भी तमाम तरह की तकलीफों से गुजर रहे हैं. उनमें से लौटने वाले कई लोग संक्रमण लेकर लौट रहे हैं और उनसे बिहार में संक्रमित लोगों की संख्या बढ़ने की आशंका है. नीतीश कुमार को चिंता होनी चाहिए कि स्वास्थ्य सेवाओं के लिहाज से बिहार देश के सबसे बदहाल राज्यों में है और ऐसे में अगर बिहार में कोरोना संक्रमण के मामले बढ़ते हैं तो ये राज्य के लिए बुरी खबर होगी. अभी जो स्थिति है, उसे संभाल पाने में बिहार का तंत्र खासकर चिकित्सा संरचना असफल साबित हो रही है.


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लेकिन एक राजनेता के तौर पर उनकी सबसे बड़ी चिंता ये होनी चाहिए कि ये सब तब हो रहा है जबकि बिहार में विधानसभा चुनाव बिल्कुल सिर पर है. तय कार्यक्रमों में अगर कोविड-19 या किसी और घटनाक्रम ने व्यवधान नहीं डाला तो इस साल नवंबर महीना खत्म होने से पहले बिहार में नई विधानसभा का गठन हो चुका होगा यानी सितंबर या अक्टूबर महीने में चुनाव घोषित हो जाएंगे.

लेकिन बिहार में सत्ताधारी जेडीयू के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार किसी तरह की परेशानी या हड़बड़ी में नहीं नजर आ रहे हैं. ऐसी कोई चिंता या तनाव जेडीयू या बिहार में उनके पार्टनर बीजेपी और एलजेपी में भी नजर नहीं आ रही है. मानो कोरोनावायरस का बिहार चुनाव पर कोई असर नहीं होने वाला हो.

कोरोना काल की राजनीति

कोरोना से निपटने में जैसी तत्परता केरल ने दिखाई, उसका अंश मात्र भी बिहार के संदर्भ में नजर नहीं आया. प्रति दस लाख लोगों की आबाद पर टेस्टिंग के मामले में बिहार देश के सबसे फिसड्डी राज्यों में है. बिहार में क्वारंटाइन सेंटर्स की बदहाली के बारे में मीडिया में कई खबरें आ चुकी हैं. बिहार लौटने के इच्छुक प्रवासियों को बिहार वापस लाने को लेकर भी बिहार सरकार ने तत्परता नहीं दिखाई.

दरअसल शुरुआती दौर में तो बिहार ने इन मजदूरों को वापस लाने का विरोध यह कह कर किया था कि ऐसा करना सोशल डिस्टेंसिंग और लॉकडाउन के सिद्धांतों के खिलाफ होगा. ये भी गौर करने की बात है कि सबसे ज्यादा प्रवासी मजदूरों वाला राज्य बिहार है, लेकिन पहली श्रमिक स्पेशल ट्रेन झारखंड आती है क्योंकि वहां के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन इसे लेकर प्रो-एक्टिव होते हैं.

हालांकि, इस संकट का आकार इतना बड़ा है कि सिविल सोसायटी संगठनों और एनजीओ या खासकर विपक्षी राजनीतिक दलों की राहत पहुंचाने की क्षमता बहुत सीमित है, इसके बावजूद तेजस्वी यादव के नेतृत्व में आरजेडी के नेता और कार्यकर्ता लोगों को मदद पहुंचाने में शुरुआत से ही सक्रिय नजर आए. इसके लिए उन्होंने सोशल मीडिया का भी प्रयोग किया.

सवाल उठता है कि इतनी बड़ी मानवीय त्रासदी के समय बिहार के सत्ताधारी दल इतने बेफिक्र कैसे हैं और वो भी तब जब चुनाव होने ही वाले हैं. इसकी चार संभावित व्याख्याएं हो सकती हैं.

1. चुनाव जीतने का तरीका बदल चुका है: नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने चुनाव लड़ने और जीतने के नए तरीके का इजाद किया है, जो सत्ताधारी दल के पक्ष में है. जनधन खाता धारकों और डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के लिए योग्य लोगों के विशाल डाटा बेस के मौजूद होने के कारण सरकारों के लिए ये संभव हो गया है कि चुनाव से पहले हर खाताधारक को कुछ नकदी ट्रांसफर कर दी जाए.


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नरेंद्र मोदी सरकार ने 2019 लोकसभा चुनाव से ठीक पहले पीएम-किसान योजना के तहत लगभग 1 करोड़ खाता धारकों में से हर एक को 2000 रुपए की दो किश्त दी थी. ये कहना मुश्किल है कि चुनाव नतीजों पर इस कदम का कितना असर पड़ा, लेकिन इसमें एक राजनीतिक संभावना तो है ही. बिहार में कृषि मंत्रालय के पास 1.37 खाताधारकों का ब्यौरा है, जिन्हें सीधी रकम दी जा सकती है. कुछ और कटेगरी को भी ऐसा लाभ पहुंचाया जा सकता है. क्या बिहार में चुनाव से पहले ऐसा होने वाला है और ऐसा होने पर क्या लोग कोरोना काल की तकलीफों को भूल जाएंगे?

2. राजनीतिक गठबंधन और सामाजिक समीकरण पर भरोसा: एनडीए ने बिहार में एक मजबूत गठबंधन बनाया है, जिसमें जेडीयू, बीजेपी और एलजेपी हैं. जेडीयू-बीजेपी का गठबंधन बिहार में लगातार चुनावी जीत हासिल कर रहा है और इसकी काट विपक्ष अभी तक निकाल नहीं पाया है. 2019 के लोकसभा चुनाव में तो प्रमुख विपक्षी दल आरजेडी बिहार में एक भी सीट नहीं जीत पाया.

एनडीए सोच सकता है कि 2019 में उसे जिताने वाले लोग सिर्फ कोरोना संकट के कारण अपना राजनीतिक रुझान और वफादारी नहीं बदल लेंगे. एनडीए ने सामाजिक तौर पर सवर्ण जातियों, कुछ गैर-यादव पिछड़ी जातियों और दलितों के एक हिस्से (मुख्य रूप से पासवान) का सामाजिक समीकरण बनाया है. इसके अलावा उसके पास नरेंद्र मोदी का चेहरा तो है ही, जिसकी चमक अभी फीकी नहीं पड़ी है.

3. कोरोना संकट में नाराजगी का रुख किधर: एनडीए के नेता शायद ये सोच रहे हैं, और वे सही भी हो सकते हैं, कि बिहारी मजदूरों की ज्यादा नाराजगी उन राज्यों और उन रोजगारदाताओं से होगी, जिन्होंने इस संकट के दौरान उन्हें मंझधार में छोड़ दिया. इसके अलावा एनडीए, खासकर बीजेपी लगातार तबलीगी जमात (इसे आप मुस्लिम पढ़ सकते है) का मामला उछालकर ये संदेश दे रही है कि अगर जमात वाले न होते, तो भारत में इतने केस नहीं होते न उन्हें इतनी तकलीफ होती. ये बात बीजेपी की हिंदू-मुस्लिम द्वेत याना बायनरी की राजनीति में बिल्कुल फिट हो जाती है. देखना होगा कि बीजेपी चुनाव तक इस मुद्दे को जिंदा रख पाती है या नहीं, या फिर वह इसी मिजाज का कोई और मुद्दा लेकर आती है.

4. बिहार में लालू-विरोध अब भी मुद्दा हैं: लोग हमेशा किसी दल, नेता या राजनीति के पक्ष में वोट नहीं डालते. कई बार वे किसी दल या नेता को सत्ता में आने से रोकने के लिए भी वोट डालते हैं. नीतीश कुमार का सत्ता में आना और बने रहना सिर्फ इसलिए नहीं है कि वे सुशासन और विकास के तमाम नारों का इस्तेमाल करते हैं.


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बिहार नीतीश कुमार के 15 साल के निरंतर राज के बावजूद देश का सबसे पिछड़ा और लाचार राज्य है. नीतीश कुमार की मुख्य राजनीतिक ताकत ये है कि वे लालू यादव और उनके परिवार तथा यादव-मुसलमान गठबंधन को सत्ता में आने से रोकने में सफल रहे हैं.

नीतीश कुमार बिहार में सामाजिक परिवर्तन (जिसे राजनीति विज्ञानी क्रिस्टोफ जेफ्रोले ने साइलेंट रिवोल्यूशन कहा था) की लहर को रोकने वाली शक्ति के प्रतीक हैं. उनकी ये ताकत जब तक बनी हुई है तब तक लालू विरोधी वोटर को इस बात की परवाह नहीं होगी कि नीतीश सरकार ने कोरोना संक्रमण के दौरान क्या किया और क्या नहीं किया. ये तबका तेजस्वी यादव की पार्टी या उनके गठबंधन को इसलिए वोट नहीं डाल देगा कि तेजस्वी यादव ने जनता की मदद करने की कोशिश की.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)

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