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Saturday, 21 December, 2024
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असम-मिजोरम सीमा विवाद पर मोदी और शाह की चुप्पी का राज क्या है

दिल्ली दंगों के बाद यह सीमा विवाद अमित शाह के लिए सबसे बड़ी चुनौती है क्योंकि यह मोदी की एक मजबूत और निर्णायक नेता वाली छवि को कमजोर करता है.

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गृह मंत्री अमित शाह चुनाव के लिए तैयार हो रहे उत्तर प्रदेश में रविवार को जब परियोजनाओं की आधारशिलाओं का अनावरण कर रहे थे और भाषण दे रहे थे, तब लखनऊ से करीब 1700 किलोमीटर दूर असम और मिजोरम की सीमाओं पर दोनों राज्यों की पुलिस आमने-सामने डटी, एक-दूसरे से नज़रें मिलाते हुए युद्ध करने को आमादा दिख रही थी. इससे एक सप्ताह पहले 26 जुलाई को मिजोरम की पुलिस ने असम पुलिस के छह जवानों को मार गिराया था. इसके ठीक बाद असम की ओर से अघोषित आर्थिक नाकाबंदी लागू कर दी गई, नेशनल हाइवे-306 को बंद कर दिया गया, जिससे कोविड से प्रभावित मिजोरम को दवाओं और सब्जियों जैसी जरूरी चीजों की सप्लाइ रुक गई.

केंद्र ने दोनों राज्यों की पुलिस के बीच चार किमी लंबा बफर ज़ोन बनाने के लिए कहा लेकिन दोनों पुलिस अपनी-अपनी चौकियों की ओर नहीं लौटी. इससे एक दिन पहले मेघालय की भाजपाई सरकार के एक मंत्री सानबोर शुल्लई ने बयान दिया कि ‘असम के लोग सीमावर्ती इलाके के हमारे लोगों को परेशान कर रहे हैं’, और ‘समय आ गया है इसका जवाब दिया जाए… मौके पर कार्रवाई की जाए.’

मिजोरम ने रविवार को घोषणा की कि वह असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के खिलाफ दायर एफआइआर वापस ले रहा है, तो सरमा ने मिजोरम के एक सांसद के खिलाफ एफआइआर वापस ले लिया. लेकिन दोनों राज्यों के बीच तनाव जारी है. सरमा ने कहा कि तीन-चार दिन पहले उन्होंने मिजोरम के मुख्यमंत्री से बात की थी मगर इसके बाद उन्हें 18-20 बार फोन लगाया मगर कोई जवाब नहीं मिला.

रविवार को सरमा ने ट्वीट किया कि मिजोरम के मुख्यमंत्री ने उनसे ‘वादा किया था कि वे क्वारंटाइन से निकलने के बाद उन्हें फोन करेंगे.’ उनका संकेत था कि अमित शाह दोनों मुख्यमंत्रियों से फोन पर बात कर रहे कर रहे थे. फिर भी जोरमथंगा नाखुश थे, और शाह दोनों मुख्यमंत्रियों से फोन पर बात कर रहे थे. आश्चर्य की बात यह है कि शाह इन दोनों को वर्चुअल बैठक के लिए क्यों नहीं राजी करा पाए.

असम के मुख्यमंत्री ने रविवार की रात 1:33 और 1:34 पर साफ लहजे में ट्वीट किए कि ‘मैंने माननीय मुख्यमंत्री जोरमथंगा का मीडिया में जारी बयान देखा जिसमें सीमा विवाद को सौहार्दपूर्ण ढंग से हल करने की इच्छा जाहीर की गई है… हम भी अपनी सीमा पर शांति बहाल करने को प्रतिबद्ध हैं…’

मोदी और शाह की चुप्पी

इन सबके बीच आश्चर्य की बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या गृह मंत्री अमित शाह की ओर से एक शब्द तक नहीं बोला गया, यहां तक कि छह पुलिसवालों के मारे जाने पर शोक भी नहीं प्रकट किया गया. हालांकि शाह दोनों मुख्यमंत्रियों के संपर्क में थे लेकिन वे उत्तर-पूर्व में हो रही घटनाओं पर कोई सार्वजनिक बयान देने से परहेज करते रहे. उपद्रवग्रस्त इलाकों का दौरा करने की कोई योजना भी नहीं दिखी. प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के पिछले सप्ताह के ट्वीटर टाइमलाइन को देखने से पता चलता है कि उन्होंने किष्टवाड़ और करगिल में बादल फटने की घटनाओं से लोगों की सुरक्षा की प्रार्थना की, बाराबंकी में सड़क हादसे में मारे गए लोगों के परिवारों के प्रति संवेदना प्रकट की. लेकिन उत्तरपूर्व का सीधा जिक्र उनके ट्वीट में 28 जुलाई को किया गया, जब प्रधानमंत्री ने नागालैंड से भूत जोलोकिया चिल्ली के लंदन पहुँचने की ‘आश्चर्यजनक खबर’ का जिक्र किया.

रविवार को केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्र तेनी ने कहा कि असम और मिजोरम के बीच “पुराना” विवाद चला आ रहा है, और असम के मुख्यमंत्री सरमा के खिलाफ दायर किया गया एफआइआर “एक सामान्य बात है”. तेनी का बयान, मोदी-शाह की असामान्य चुप्पी, चुनाव के लिए तैयार प्रदेश में परियोजनाओं के उदघाटनों में गृह मंत्री की व्यस्तता आदि यही संकेत देते हैं कि सब कुछ सामान्य है. लेकिन उत्तरपूर्व की खतरनाक स्थिति को लेकर उन्हें चिंतित होना चाहिए. जब दो राज्यों की पुलिस एक-दूसरे पर गोलियां चला रही हो, और एक मंत्री अपने पड़ोसी राज्य के बारे में यह कह रहा हो कि उससे ‘अपने लोगों की रक्षा के लिए… हमें अपने सुरक्षा बालों का प्रयोग करना पड़ेगा”, तब जाहिर है कि स्थित कतई सामान्य नहीं है.


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उत्तरपूर्व में केंद्र की राजनीतिक मजबूरियां

बाहरी और आंतरिक राष्ट्रीय सुरक्षा के मसलों पर हमेशा साफ-साफ बातें करने वाले मोदी और शाह को आखिर उत्तरपूर्व की स्थिति पर बोलने से क्या चीज रोक रही है? इसकी तीन वजहें हो सकती हैं, जो आपस में गुंथी हुई हैं.

पहली वजह यह है कि राजनीतिक गठबंधन करके पूरे उत्तरपूर्व को ‘कॉंग्रेस-मुक्त’ करने के बाद केंद्र वहां के जटिल सीमा विवादों के भावनात्मक मसले में किसी का पक्ष लेते हुए नहीं दिखना चाहेगा. कोई भी गलत कदम उत्तरपूर्व में भाजपा के बहुचर्चित वर्चस्व को कमजोर कर सकता है. भगवा पार्टी सत्ताधारी मिज़ो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) को एनडीए का हिस्सा मानती है क्योंकि जोरमथंगा की पार्टी कांग्रेस विरोधी ढीले-ढाले मोर्चे नॉर्थ-ईस्टर्न डेमोक्रेटिक अलायंस (नेडा) का हिस्सा है. वैसे, मिजोरम के मुख्यमंत्री ने भाजपा से दूरी बनाए रखी है और अपने एकमात्र विधायक को भगवा पार्टी के अनुरोध के बावजूद विधानसभा में ट्रेजरी बेंच पर बैठने की अनुमति नहीं दी है. भाजपा जोरमथंगा को नाराज नहीं कर सकती, क्योंकि एमएनएफ ‘नेडा’ से तुरंत अलग हो सकता है.

पड़ोस के मेघालय में 60 सदस्यों वाली विधानसभा में दो विधायकों वाली भाजपा हिमंत सरमा की बदौलत नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) के नेतृत्व वाली सरकार का हिस्सा है. 2018 के चुनाव में जब कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी तब सरमा ने पांच दलों को इकट्ठा करके विधानसभा में बहुमत जुटाया था. भाजपा मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड संगमा को भी नाराज करने की गलती नहीं कर सकती क्योंकि वहां वह खुद उसका पल्लू पकड़कर लटकी हुई है. मणिपुर में भी भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार का वजूद संगमा की पार्टी एनपीपी पर टिका है. वहां अगले साल चुनाव होना है. मणिपुर में भी कांग्रेस 2017 के चुनाव के बाद सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी लेकिन सरमा ने ही बहुमत जुटाकर भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार बनवाई थी.

शाह की चुप्पी की दूसरी वजह यह है कि उत्तरपूर्व में वे राजनीतिक दमखम नहीं रखते. मिजोरम पुलिस की ओर से घातक गोलीबारी गृह मंत्री के शिलांग छोड़ने के 24 घंटे के भीतर ही की गई थी. गृह मंत्री वहां उत्तरपूर्व क्षेत्र के मुख्यमंत्रियों के साथ दो दिन की बैठक करने गए थे, जिसमें इन राज्यों के पुलिस महानिदेशक भी शामिल हुए थे. असम और पड़ोसी राज्यों के बीच सीमा विवादों पर भी इस बैठक में विचार-विमर्श किया गया. इसके अगले ही दिन असम और मिजोरम की पुलिस ने जिस तरह हिंसक झड़प की, उससे जाहिर है कि उत्तरपूर्व क्षेत्र के मुख्यमंत्रियों ने इस बैठक को कितनी गंभीरता से लिया.

इस विवाद में केंद्रीय गृह मंत्री के प्रभावी हस्तक्षेप न कर पाने की तीसरी वजह यह है कि इस क्षेत्र में अपने मकसदों को हासिल करने के लिए वे हमेशा सरमा पर निर्भर रहे हैं. ‘नेडा’ के संयोजक के रूप में सरमा उत्तरपूर्व में भाजपा के ऊंचे मंसूबों का आधार रहे हैं और उन्होंने इस क्षेत्र को भाजपा की झोली में डाला है. अब असम के मुख्यमंत्री के रूप में उन पर कई तरह के दबाव हैं, जिनमें एक तो यह है कि पूर्व कांग्रेसी होने के नाते वे हिन्दुत्व में अपनी निष्ठा साबित करें. असम और मिजोरम पुलिस के बीच झड़पों के चार दिन बाद सरमा ने स्पष्टीकरण दिया कि ‘नेडा को मजबूत करने के लिए मैं असम की जमीन नहीं गंवा सकता. मैं नेडा का संयोजक भले हूं लेकिन उससे पहले मैं असम का मुख्यमंत्री हूं.’

इसके अलावा, सरमा ने मवेशियों के वध, उपभोग, और ढुलाई के नियमन के लिए ‘असम मवेशी सुरक्षा विधेयक’ लाकर गोमांस खाने वाले पड़ोसियों को नाराज कर दिया है. कोनराड संगमा ने इस मामले को केंद्र के समक्ष उठाने की बात की है. उत्तरपूर्व के दूसरे राज्यों के साथ वार्ता में शाह एक मध्यस्थ के रूप में सरमा पर निर्भर नहीं रह सकते.


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उत्तरपूर्व में शाह के निजी दांव

उत्तरपूर्व में सीमा विवाद को शाह को और बेकाबू नहीं होने दे सकते. केंद्रीय गृह मंत्री के रूप में उनके कामकाज को लेकर पहले ही कई सवाल उठ रहे हैं. मई 2019 में सरकार में शामिल होने के बाद से ही देश में उन्होंने तूफान खड़ा कर दिया था. 30 जुलाई 2019 को उन्होंने तथाकथित तीन तलाक कानून पर संसद की मुहर लगवा ली, हालांकि भाजपा राज्यसभा में अल्पमत में थी. इसके तीन दिन बाद उन्होंने गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) विधेयक को राज्यसभा से मंजूरी दिला दी. इस कानून के तहत केंद्र को यह अधिकार मिल गया कि वह किसी को भी आतंकवादी घोषित कर सकता है. इसके तीन दिन बाद उन्होंने अनुच्छेद 370 को रद्द करके जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म करने की घोषणा कर दी. इस कदम को सरदार पटेल के अधूरे पड़े काम को पूरा करना कहा गया. इसके चार महीने बाद उन्होंने नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को संसद से मंजूरी दिला दी. दिसंबर 2019 में इसके विधेयक पर लोकसभा में बहस के दौरान उन्होंने गरजते हुए घोषणा की थी कि ‘मान के चलिए कि एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर) आने वाला है.’

शाह की चल पड़ी थी लेकिन तभी एक धमाका हुआ. एनआरसी के बारे में शाह के बयान के पखवाड़े भर बाद ही प्रधानमंत्री मोदी ने घोषणा कर दी कि एनआरसी के बारे में सरकार में कोई विचार-विमर्श नहीं हुआ है.

यहीं से ढलान की शुरुआत ही गई. उसके बाद शाह ने एनआरसी के बारे शायद ही कुछ कहा है. गृह मंत्रालय सीएए के नियमों को तय करने के लिए समय-पर-समय मांगता रहा है. ताजा सीमा अगले साल की जनवरी तय की गई है. नई दिल्ली में विश्वप्रसिद्ध जेएनयू में लाठी-भाले से लैस गुंडों की गुंडागर्दी के वीडियो दुनिया भर ने देखे लेकिन इसके 20 महीने बाद भी इस मामले में किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया है. गुजरात में 2002 के गोधरा दंगों के बाद मोदी ने दावा किया था कि वे दंगा मुक्त शासन देंगे लेकिन पिछले साल अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के भारत दौरे के दौरान दिल्ली में हुए दंगों ने प्रधानमंत्री मोदी को दुनिया भर में शर्मसार किया. इसके डेढ़ साल बाद भी इससे जुड़े केंद्रीय गृह मंत्रालय और दिल्ली पुलिस के मामले अदालतों में घिसट रहे हैं. इस मामले में शाह दिल्ली पुलिस के साथ लगभग हर पखवाड़े बैठक करते रहे हैं.

कोविड-19 की पहली लहर के दौरान शाह ने राष्ट्रीय आपदा कानून को ज़ोरशोर से लागू करवाया था, जबकि बड़े कष्ट झेलकर घर वापसी कर रहे प्रवासी मजदूरों के लिए कोई तैयारी नहीं की गई थी. उसके बाद गृह मंत्रालय महामारी की दूसरी लहर में लस्तपस्त पड़ा दिखा.

भाजपा अध्यक्ष के रूप में शाह ने खूब वाहवाही लूटी थी, मोदी ने उनकी तारीफ करते हुए उन्हें 2014 ‘मैन ऑफ द मैच’ घोषित किया था. लेकिन भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले शाह की छवि को पिछले 20 महीने में चोट पहुंची है और विधानसभा चुनावों के नतीजों ने भी उसे झटके दिए हैं.

जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म करने का श्रेय शाह को भले दिया जाता हो, तथ्य यह है कि मोदी ने 2019 लोकसभा चुनाव से पहले ही इसकी योजना बना ली थी. प्रधानमंत्री मोदी के ख्यात उत्तराधिकारी माने गए शाह को गृह मंत्री होने के नाते लोगों की कई अपेक्षाओं को पूरा करना है. दिल्ली दंगों के बाद उत्तरपूर्व में हिंसक सीमा विवाद उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरा है क्योंकि यह मोदी की, एक मजबूत व निर्णायक, और ‘राष्ट्र सर्वोपरि’ वाले नारे को अपने शासन का लक्ष्य मानने वाले नेता की छवि को धूमिल करता है.

जाहिर है, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के लिए यह फैसले, और सत्य से साक्षात्कार की घड़ी है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(यहां व्यक्त विचार निजी हैं)


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