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Wednesday, 11 December, 2024
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क्या है ईरान-अमेरिका परमाणु समझौता, पश्चिम एशिया में अपनी साख बचाने की कोशिश में जुटा है अमेरिका

इस समझौते के शर्तों के तहत ईरान अपने अधिकांश परमाणु कार्यक्रम को नष्ट करने पर सहमत हुआ था और इसके बदले उसे आर्थिक प्रतिबंध से राहत देने का वादा किया गया था.

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अनौपचारिक तौर पर अमेरिका और ईरान के बीच परमाणु समझौते को लेकर कुछ दिनों से बातचीत चल रही थी. आख़िरकार इसकी सार्वजनिक घोषणा तब हुई जब ओमान सल्तनत के विदेश मंत्री सैयद बद्र अलबुसैदी ने मीडिया को बताया कि ईरान में अमेरिकी क़ैदी की रिहाई और परमाणु मुद्दे पर दोनों देशों के बीच गंभीरता से चर्चा चल रही है. इसकी पुष्टि ईरानी प्रवक्ता द्वारा भी की गई जिसमें बताया गया कि मस्कट में दोनों देशों के बीच अप्रत्यक्ष वार्ता हुई थी .

क्या है ईरान – अमेरिका परमाणु समझौता

इस समझौते को आधिकारिक तौर पर जॉइंट कंप्रीहेनसिव प्लान ऑफ़ एक्शन (JCPOA) के नाम से जाना जाता है. वर्ष 2015 में ईरान और संयुक्त राज्य अमेरिका सहित कई विश्व शक्तियों फ्रांस, ब्रिटेन,रूस, चीन और जर्मनी के बीच हुआ यह एक ऐतिहासिक समझौता था. सामूहिक रूप से इस समझौते को P5+1 के नाम से भी जाना जाता है. इस समझौते के शर्तों के तहत ईरान अपने अधिकांश परमाणु कार्यक्रम को नष्ट करने पर सहमत हुआ था और इसके बदले उसे आर्थिक प्रतिबंध से राहत देने का वादा किया गया था. परन्तु, 2018 में राष्ट्रपति ट्रंप ने इस समझौते से अमेरिका को यह कहते हुए अलग कर लिया कि यह ईरान के मिसाइल कार्यक्रम और क्षेत्रीय प्रभाव को नियंत्रित करने में विफल रहा.

मालूम हो कि ईरान के मिसाइल कार्यक्रम (JCPOA) का हिस्सा नहीं था. तत्कालीन राष्ट्रपति ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी का यह मानना था कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम नष्ट होने के बजाए स्थगित किया गया है. अतः इस समझौते का कोई ख़ास महत्व नहीं है. इसके बाद ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रमों पर लगे प्रतिबंधों को नजरअंदाज करना शुरू कर दिया.

समझौते की पुनः बहाली क्यों ?
2020 में ईरान ने यह कहा था कि यदि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के समक्ष उसके परमाणु कार्यक्रमों को लेकर विवाद उत्पन्न होता है तो वह परमाणु अप्रसार संधि (Nuclear Non-Proliferation Treaty -NPT) से पीछे हटने पर विचार करेगा. यह संधि 1970 से प्रभावी है और वर्तमान में 191 देश इस संधि का हिस्सा हैं. ईरान के इस समझौते से बाहर निकलने से मध्य पूर्व में शक्ति का संतुलन समाप्त होने की आशंका है. ईरान द्वारा परमाणु कार्यक्रम के प्रसार से सऊदी अरब, इज़रायल तथा ईरान के मध्य युद्ध की स्थिति बन सकती है. हालांकि, ईरान हमेशा से यह कहता रहा है कि उसके परमाणु कार्यक्रम ऊर्जा उद्देश्यों के लिए है.

इन सब के आलोक में डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन द्वारा इस (JCPOA) समझौते को बहाल करने की कोशिश के क्या मायने हैं ? इसे ओबामा प्रशासन और डेमोक्रेटिक पार्टी की ईरान नीति की निरंतरता के तौर पर देखा जा सकता है. जो बाइडेन जो अभी अमेरिका के राष्ट्रपति हैं उस समझौते का हिस्सा थे . हालांकि, अमेरिकी विदेश नीति संस्थागत होने के साथ साथ दलीय हितों से परे राष्ट्रीय हित को ध्यान में रख कर तय होती है. अतः इसी आलोक में ईरान न्यूक्लियर डील की बहाली के पीछे राजनीतिक उद्देश्यों को समझना ज्यादा उपयुक्त होगा.यह कदम पश्चिमी और अमेरिकी सोच में बदलाव और बढ़ते संकट को रेखांकित करता है. अमेरिकी अधिकारियों के अनुसार ईरान ने यूरेनियम को इस हद तक समृद्ध कर लिया है कि वह दो सप्ताह से कम समय में परमाणु हथियार के लिए पर्याप्त सामग्री का उत्पादन कर सकता है.


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पश्चिम एशिया तथा भारत

इसके अलावा पश्चिम एशिया में ईरान और सऊदी समझौते से उत्पन्न परिस्थितियों ने अमेरिका को अपनी ईरान नीति में नरमी और समीक्षा करने पर विवश किया है. हाल के दिनों में सऊदी अरब ने कई ऐसे निर्णय लिए हैं जो अमेरिकी हितों के अनुकूल नहीं है. उदाहरण के तौर पर अन्य अमेरिकी सहयोगियों के विपरीत, सऊदी अरब ने यूक्रेन युद्ध के करण रूस विरोधी प्रतिबंधों में शामिल होने से इनकार कर दिया. अमरीकी विरोध के बावजूद यूक्रेन युद्ध आरंभ होने के बाद से सऊदी अरब ने तेल उत्पादन में दो बार कटौती करने के लिए रूस के साथ हाथ मिलाया जिसका उद्देश्य कीमतों को उच्च रखना था जिससे मास्को और रियाद दोनों को फायदा हो सके.

इसके अलावा सऊदी अरब ने चीन के साथ भी अपने द्विपक्षीय संबंध का विस्तार करते हुए व्यापार और रक्षा संबंध को सुदृढ़ करने का प्रयास किया है. इजराइल के साथ संबंधों को सामान्य बनाने की दिशा में भी पहल की. परन्तु, सऊदी अरब अपने कुछ शर्तों के साथ इस वार्ता में शामिल हुआ. संक्षेप में सऊदी अरब पहले के विपरीत अमरीकी छाया से अपनी विदेश नीति को मुक्त करने की कोशिश कर रहा. इन सबके मूल में सऊदी अरब की अर्थव्यवस्था है. अपनी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ और विस्तार देने के लिए वह बहुपक्षीय विदेश नीति पर कार्य कर रहा है.

पश्चिम एशिया में इजराइल डी फैक्टो न्यूक्लियर पावर है. ईरान के परमाणु कार्यक्रम से सबसे ज्यादा समस्या इजराइल को ही है. JCPOA समझौते का विरोध भी इजराइल ने किया था. डेमोक्रेटिक पार्टी के सत्ता संभालने के बाद अमेरिका की विदेश नीति इजराइल से आगे की सोच रही है. सऊदी अरब जैसे अमेरिका के पुराने साथी भी चीन के निकट जा रहे है . पश्चिम एशिया में उभरते भू राजनीति और नए शक्ति संतुलन को ध्यान में रखते हुए अमेरिका को अपनी इजरायल नीति की समीक्षा करनी होगी. इसका यह मतलब नहीं कि वो इजराइल के साथ अपने संबंधों को समाप्त कर लेगा. अमरीका की कोशिश मध्य पूर्व में चीन की बढ़ती भूमिका को रोकना है . और इसके लिए उसे एक समग्र मध्य पूर्व नीति की ज़रूरत है जो न तो किसी ख़ास देश के ख़िलाफ़ हो और न ही किसी के पक्ष में झुकता हुआ प्रतीत हो. इसी समझदारी से ईरान के साथ अमेरिका ने वार्ता को पुनः प्रारंभ किया है.

ईरान सऊदी समझौते के बाद यमन में चल रहा ग्रह युद्ध की समाप्ति की उम्मीद की जा रही है. हाऊथी जो एक शिया संगठन है उसे ईरान का समर्थन हासिल है. अब चुकी ईरान और सऊदी अरब की दोस्ती हो चुकी है ऐसे में दोनों देश मिलकर शांति स्थापित करने की कोशिश करेंगे. अमरीका की कोशिश यह है इस क्षेत्र में शांति की स्थापना हो जिससे चीन के बढ़ते प्रभाव को रोका जा सके.

ईरान – अमरीका संबंध सामान्य होने से भारत के राष्ट्रीय हित भी सुरक्षित होंगे. अफ़ग़ानिस्तान में ईरान और भारत, पाकिस्तान, तालिबान और सुन्नी इस्लाम के कट्टरवाद के ख़िलाफ़ हैं. इसके अलावा भारत के लिए सेंट्रल एशिया का व्यापार मार्ग ईरान होकर ही जाता है. यदि अमेरिका से ईरान के संबंध सामान्य होंगे तो भारत को इसका सामरिक और आर्थिक दोनों लाभ मिल सकता है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के श्री वेंकटेश्वर कॉलेज में राजनीति विज्ञान के पूर्व सहायक प्रोफेसर हैं. इन्होंने अपनी पीएचडी भारत की अफगानिस्तान नीति में ईरान फैक्टर विषय पर अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान, जेएनयू, नई दिल्ली से की है. व्यक्त विचार निजी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @RajanJh82869787 है.)

(संपादन: आशा शाह)


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