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Monday, 7 October, 2024
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तुर्की में एर्दोआन की जीत, बदलती विश्व व्यवस्था और भारत के लिए क्या हैं मायने

भविष्य में यदि किसी देश की मध्यस्थता की आवश्यकता पड़ती है तो तुर्की सर्वाधिक उपयुक्त देशों में से एक है. ऐसा इसलिए क्योंकि अमरीकी कभी भी चीन की मध्यस्थता में यूक्रेन को अपनी सहमति नहीं देगा

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तुर्की चुनाव में एर्दोआन की जीत के बाद भारत समेत पूरी दुनिया में इसके प्रभाव पर बहस चल रही है. तुर्की एक ऐसा देश है जो यूरोप और एशिया के मध्य में स्थित है. भौगोलिक रूप से इसके एशियाई भाग को अनातोलिया और यूरोपीय अंश को थ्रेसर कहते हैं. यानी तुर्की एक यूरेशियाई देश है.

अतः भू राजनीतिक तौर पर यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण देश है. इसके साथ साथ तुर्की एकमात्र ऐसा देश है जो मुस्लिम बहुलता के बावजूद एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है. आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष राज्य की बुनियाद रखने का श्रेय मुस्तफ़ा कमाल पाशा को जाता है. मुस्तफ़ा कमाल अतातुर्क की विचारधारा पश्चिमी उन्मुख यानी वेस्टर्न ओरिएंटेड थी, जबकि वर्तमान राष्ट्रपति श्री एर्दोआन पूर्व यानी ईस्टर्न ओरिएंटेड है. चुनाव में एर्दोआन की जीत से तुर्की के वैचारिक विभाजन के साथ इसकी विदेश नीति की दिशा कैसी होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है.

बदलती विश्व व्यवस्था

अफगानिस्तान से वापसी के बाद अमरीका का पूरे सेंट्रल एशिया में सैन्य बेस नहीं है. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ऐसा पहली बार है कि सामरिक रूप से इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में अमेरिका का कोई सैन्य अड्डा नहीं है. अंतरराष्ट्रीय राजनीति के दृष्टिकोण से, अमेरिका का उस क्षेत्र से अचानक बाहर निकल जाना, जिसे जॉन मैकिण्डर द्वारा हार्टलैंड की संज्ञा दी गयी थी. इस क्षेत्र पर नियंत्रण निर्धारित करता था कि दुनिया को कौन नियंत्रित करेगा. एक ऐसा क्षेत्र जिसके लिए अमेरिका ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सोवियत संघ के साथ लड़ाई की. एक ऐसा क्षेत्र जहां अमरीका का मुख्य प्रतिद्वंदी चीन की भौगोलिक सीमाएं साझा होती हैं.

इस घटना के बाद रूस- यूक्रेन युद्ध ने अमेरिका के वैश्विक शक्ति पर बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया. रूस – चीन की निकटता से पूरे यूरेशियाई क्षेत्र में एक नए समीकरण की सम्भावना को जन्म दिया है . पश्चिमी एशिया में चीन की मध्यस्थता में ईरान- सऊदी समझौता से अमेरिका के इस क्षेत्र पर पहली जैसी पकड़ ढीली पड़ने की सम्भावना है .

ऐसे वैश्विक परिदृश्य में तुर्की की विदेश नीति का आकलन आवश्यकता हो जाता है. जैसा कि स्पष्ट है कि एर्दोआन का झुकाव पूरब यानी मध्य एशिया के तरफ़ है. रूस – यूक्रेन युद्ध में ब्लैक सी ग्रेन ईनीसीयटीव के तहत तुर्की ने मध्यस्थता कर यह अपनी सामरिक और कूटनीतिक कुशलता का उदाहरण प्रस्तुत कर चुका है.

भविष्य में यदि किसी देश की मध्यस्थता की आवश्यकता पड़ती है तो तुर्की सर्वाधिक उपयुक्त देशों में से एक है. ऐसा इसलिए क्योंकि अमरीकी कभी भी चीन की मध्यस्थता में यूक्रेन को अपनी सहमति नहीं देगा. तुर्की का नाटो का सदस्य होने के कारण अमेरिका इसकी मध्यस्थता पर आपत्ति नहीं करेगा और बदली भू – राजनीतिक परिदृश्य में रूस और चीन का विश्वास भी तुर्की को हासिल है.


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जहां तक मध्य एशिया का सवाल है तो तुर्की के लिए सीरिया सबसे महत्वपूर्ण है. गृह युद्ध के कारण सीरिया से आए शरणार्थी की समस्या से तुर्की जूझ रहा है. चुनाव से पूर्व एर्दोआन ने बशर अल असद सरकार के साथ बातचीत पर जोड़ दिया था. सीरिया को भी सीमा पर सीरियाई कुर्द से संबंधित चिंता को दूर करना होगा. सीरिया की एक और चिंता अलकायदा से संबद्ध हयात तहरीर अल-शाम के तुर्की के साथ रिश्ते हैं. सीरिया से तुर्की सैनिकों की वापसी भी दोनों देश के आपसी संबंध में एक रोड़ा है. यदि एर्दोआन इन सब मुद्दों को सुलझा कर आगे बढ़ते हैं तो निश्चित ही पश्चिम एशिया में एक नए अध्याय की शुरुआत होगी.

तीसरी दफा सत्ता संभालने के बाद एर्दोआन निश्चित तौर पर रणनीतिक स्वायत्तता सुनिश्चित करने का प्रयास करेंगे. एर्दोगन ने खुद को ओटोमन साम्राज्य का उत्तराधिकारी घोषित कर ऐसी सम्भावना को और प्रबल कर दिया है. यह कदम पश्चिम के लिए चुनौतीपूर्ण होगा. तुर्की की मुस्लिम दुनिया का नेतृत्व करने की इच्छा ने भी पश्चिम एशिया क्षेत्र में तुर्की और सऊदी अरब के बीच आपसी टकराव की सम्भावना को प्रबल कर दिया है. लेकिन, चीन की मध्यस्थता में हुआ ईरान-सऊदी समझौते ने पश्चिमी एशिया के भू- राजनीति में आमूल चूल परिवर्तन कर दिया है. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इस बदली परिस्थिति में एर्दोगन तुर्की की विदेश नीति को कैसे रीअलाइंन करते हैं.

भारत के लिए एर्दोआन के जीत के मायने

जहां तक भारत का प्रश्न है तो तुर्की भारत को पाकिस्तान के चश्मे से देखता है. कश्मीर मसले पर उसने हमेशा पाकिस्तान का साथ दिया है. मालूम रहे कि प्रधानमंत्री मोदी इस क्षेत्र में क़रीब क़रीब सभी देशों की यात्रा कर चुके हैं लेकिन अभी तक उनकी एक भी यात्रा तुर्की की नहीं हुई है.

अभी हाल ही में कश्मीर में आयोजित जी – 20 की बैठक में पाकिस्तान, सऊदी अरब और चीन के साथ साथ तुर्की ने भी हिस्सा नहीं लिया. पाकिस्तान और चीन ने कश्मीर को विवादास्पद क्षेत्र कह कर इस बैठक का बहिष्कार किया. कश्मीर से धारा 370 समाप्त होने पर भी तुर्की का पक्ष भारत के लिए स्वीकार्य नहीं था. तुर्की के विदेश नीति के केन्द्र में इस्लाम है और वह इस्लामिक दुनिया का नया ख़लीफ़ा बनने की ख्वाहिश रखता है.

और यही वजह है कि उसका दृष्टिकोण कश्मीर को लेकर शुरू से ही आक्रामक रहा है. संयुक्त राष्ट्र के मंच से भी एर्दोआन ने सार्वजनिक आलोचना की है. इसके कारण हमारे द्विपक्षीय संबंध को धक्का पहुंचा. इमरान खान के नेतृत्व में पाकिस्तान ने तुर्की और मलेशिया के साथ मिल कर एक नया इस्लामिक गुट बनाने का असफल प्रयास किया था. इस वाक़या ने भारत – तुर्की द्विपक्षीय संबंध में और कटुता पैदा कर दी.

हालांकि, तुर्की और भारत के द्विपक्षीय संबंध में कोई ऐसा कारक नहीं है जो संबंध को प्रभावित कर सके. लेकिन अंतरराष्ट्रीय संबंधों में कई दफ़ा दो देश के बीच के संबंध को तीसरा कारक प्रभावित करता है. हालांकि, फ़रवरी 2023 में तुर्की में आए भूकंप के बाद ऑपरेशन दोस्त के तहत भारत मदद पहुंचाने वाला अग्रणी देशों में से एक था. जिसके कारण दोनों देशों के बीच सद्भावना क़ायम करने में काफ़ी हद तक मदद मिला.

(लेखक ने अपनी पीएचडी भारत की अफगानिस्तान नीति में ईरान फैक्टर विषय पर अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान, जेएनयू, नई दिल्ली से की है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(संपादन: आशा शाह)


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