‘माफी मांगने में गलत क्या है?’ मशहूर हो चुका यह सवाल प्रशांत भूषण से जस्टिस अरुण मिश्रा ने पूछा था. खबरों के मुताबिक जज साहेब ने ये भी कहा कि ‘माफी एक जादुई लफ्ज है.’ और प्रशांत भूषण को आश्वस्त किया कि माफी मांग लेने पर आप उतने ही ऊंचे उठ जायेंगे जितने कि महात्मा गांधी. प्रशांत भूषण के वकील ने ‘संतई’ के सिंहासन पर बैठने-बिठाने की इस पेशकश को मानने में अनिच्छा जतायी तो बात को सुलझाने के गरज से जस्टिस गवई आगे आये और उन्होंने याद दिलाया कि महात्मा गांधी अपने ही नहीं बल्कि दूसरे के पापों के लिए भी क्षमा मांग लेते थे.
खैर, ये तो नहीं मालूम कि प्रशांत भूषण या फिर उनके वकील डा. राजीव धवन की जस्टिस गवई की इस याद्दहानी पर क्या प्रतिक्रिया रही लेकिन खबरों में आया है कि सुनवाई के उस दोपहर डा.राजीव धवन जिरह के मामले में अपनी प्रतिभा के चरम पर थे. उन्होंने जस्टिस गवई के सुझाव को बस सुझाव के ही रुप में लिया हो, शायद कोई जवाब ना दिया हो. लेकिन, सोशल मीडिया पर लोग ‘माफी मांगने’ की सलाह को लेकर वैसा आदर-भाव ना दिखा सके जैसा कि अदालत के आंगन में अक्सर वकील दिखाते हैं. सोशल मीडिया में इस बात को लेकर कार्टून, मीम और मजाक चल निकले, चुटीली टिप्पणियों और ट्वीट की मानों बाढ़ सी आ गई. अब इन बातों में मजा चाहे भरपूर हो लेकिन इनसे उस सवाल का जवाब फिर भी नहीं निकलता जो उस रोज जज साहेब ने पूछा था कि आखिर: माफी मांगने में गलत क्या है ?
प्रशांत भूषण इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए सुकरात और गांधी के जीवन-प्रसंगों की शरण में जा सकते थे. आखिर सुकरात पर चले मुकदमे और उन्हें सुनायी गई सजा के बारे में जो संवाद सुकरात के प्रिय शिष्य प्लेटो ने लिखे हैं वह एपोलॉजी (माफीनामा) के नाम से मशहूर है. बहुतों को शायद अब याद भी ना होगा कि प्लेटो की लिखी एपोलॉजी महात्मा गांधी की प्रिय किताबों में एक है. ये किताब महात्मा को इतनी ज्यादा प्रिय थी कि उन्होंने साल 1908 में गुजराती भाषा में इसका अनुवाद कर दिया. आज एपोलॉजी शब्द का हम जो अर्थ लेते हैं वह ग्रीक भाषा के शब्द एपोलॉजिया से बहुत अलग है. एपोलॉजिया का अर्थ होता है बचाव में बोलना या किसी बात की कैफियत देना यानि बिल्कुल वही जो प्रशांत भूषण ने अपने हलफनामे में किया था.
प्रशांत भूषण जस्टिस मिश्रा को जवाब दे सकते थे कि : माफी मांगने में गलत कुछ भी नहीं. बेशक ये एक जादुई लफ्ज है. एक ऐसा लफ्ज जिसको जुबान पर लाने से टूटे रिश्तों को जोड़ने में मदद मिलती है, माफी मांगने से गहरे जख्म भर सकते हैं और माफी मांग लेना इस बात की स्वीकृति भी होता है कि अतीत में जो गलतियां हो चुकी हैं उनसे आगे के वक्तों में बचते हुए सुधार के रास्ते पर चला जा सकता है लेकिन ये सारा कुछ तभी मुमकिन है जब हम उन शर्तों को पूरा करें जिनके होने से ‘माफीनामा’ सचमुच माफीनामा कहलाने के काबिल हो पाता है.
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पश्चाताप के रूप में माफी
प्रशांत भूषण जस्टिस अरुण मिश्रा को याद दिला सकते थे कि माफीनामे के लिए पांच शर्तों का पूरा होना जरुरी है. पहली शर्ते ये है कि सचमुच कुछ गलत हुआ हो. माफी मांगने के लिए बहुत जरुरी है कि कहीं कोई भूल-चूक हुई हो, कुछ ऐसा हुआ हो जो लगे लगे कि भाई, नैतिक रुप से ये बात जायज ना कही जायेगी. ऐसा होने पर ही तो कोई अपनी भूल-चूक या नैतिक दोष के लिए माफी मांगेगा ! दूसरी शर्त है मन में स्वीकार भाव का होना, पूरी साफगोई से ये स्वीकार करना कि हां, गलती हुई है.
तीसरी शर्त है जिम्मेदारी के भाव का होना, इस तैयारी का होना कि जो गलती हुई है उसके चाहे जो नतीजों हों, जो भी नुकसान हुआ हो, उस सबका जिम्मेवार मैं ही हूं क्योंकि गलती मैंने की है. चौथी शर्त है पछतावे का भाव जो आपसे ये कहलावे कि जो गलती हुई उसको लेकर आपके दिल में दर्द है, आप गहरे अफसोस में हैं कि आह ! मुझसे ये क्या हो गया ! पांचवीं और आखिरी शर्त का रिश्ता एक संकल्प से जुड़ा है, मन में ये संकल्प होना चाहिए कि ऐसी गलती फिर कभी दोबारा नहीं होगी.
सो, माफीनामा कोई हवा-हवाई शब्द नहीं है. ये ऐसी चीज नहीं कि अपना सुभीता देखा और माफी मांग ली. माफीनामे के बारे में ये तो खैर नहीं ही मान सकते कि इसका इस्तेमाल किसी कानूनी जुगत के रुप मे करना है ताकि गलती करने पर जो जिम्मेदारी बनती है उससे कन्नी काट ली जाये. माफी सच्चे दिल से मांगनी होती है और सच्चे दिल से मांगी गई माफी आत्म-निरीक्षण, आत्म-चिन्तन, प्रायश्चित और आत्म-सुधार की गहरी नैतिक प्रेरणा से भरी होती है.
अगर माफीनामे के साथ ये बातें ना जुड़ी हों तो फिर उसे छल या पाखंड ही कहा जायेगा. प्रशांत भूषण राजनीति विज्ञानी राजीव भार्गव के हवाले से कह सकते थे कि : ‘निष्ठाहीन और फर्जी माफीनामा नैतिक रुप से फिजूल और सामाजिक रुप से नकारा होता है. टूटे रिश्तों को जोड़ने की कौन कहे, ऐसा माफीनामा टूटे रिश्तों को और ज्यादा नुकसान पहुंचाता है.’ सो,सच्ची क्षमा-याचना स्वयं से सत्यनिष्ठा पूर्वक संवाद करने के क्रम में व्यक्ति के हृदय से निकलती है, ऐसी क्षमा-याचना के लिए किसी व्यक्ति पर कोई दबाव नहीं डालना होता, कोई जोर-जबर्दस्ती या छलावा नहीं करना होता.
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पावर प्ले के रूप में माफी
लेकिन ये बात अदालत में हो ही नहीं रही थी. प्रशांत भूषण ने अदालत में बार-बार कहा कि जो कुछ मैंने ट्वीट में लिखा उसपर मैं पूरी सच्चाई से यकीन करता हूं और अपने कहे पर मेरा यकीन बराबर बना हुआ है. उन्होंने ये भी कहा कि अपने विश्वास की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करके मैंने एक नागरिक के रुप में और अदालत के अधिकारी के रुप में अपने सर्वोच्च दायित्व का निर्वाह किया है. जाहिर है, प्रशांत भूषण से माफी मंगवाने के लिए पहले तो ये ही दिखाना जरुरी था कि उनसे गलती हुई है, कि उन्होंने जो ट्वीट किये वे झूठे थे. लेकिन ऐसा नहीं लगता कि प्रशांत भूषण के ट्वीट को झूठा साबित करने में अदालत ने कोई दिलचस्पी ली.
अदालत ने ये दिखाने की कोशिश जरुर थी कि कोर्ट के ‘लॉकडाऊन मोड’ में चलने की जो बात ट्वीट में है वो सही नहीं है लेकिन अदालत ने जब फैसला सुनाया तो उसमें ऐसा कोई तर्क या तथ्य ना था जो लोकतंत्र को नष्ट करने में अदालत या फिर मुख्य न्यायधीशों की भूमिका के बाबत ट्वीट में जो कुछ लिखा गया है, उसको गलत साबित करता हो. कोर्ट कुछ यों कहता हुआ प्रतीत हुआ कि जजों के दिल को जिस बात से चोट पहुंचती हो, चाहे वो बात सच हो या झूठ, अपने आप में एक गलती है. इस तर्क की टेक पकड़कर चलें तो फिर प्रशांत भूषण कह सकते हैं कि माननीय जजों को दिन में दस बार रोजाना ही माफी मांगनी चाहिए क्योंकि उनके फैसले से बहुत से ऐसे नागरिक आहत होते हैं जिनके मुकदमे में कोर्ट के आदेश उनके मनमाफिक ना आया हो.
जस्टिस मिश्रा ये उम्मीद तो कर रहे थे कि प्रशांत भूषण माफी मांग लें लेकिन माफी मांगने का नैतिक आधार क्या हो, इस बाबत उन्होंने कुछ भी ना कहा. जब कोई शिक्षक किसी छात्र के कान उमेंठते हुए उससे कहता है कि चलो पूरे स्कूल के सामने माफी मांगो, तो निश्चित जानिए कि उसके ऐसा कहने के पीछे नैतिकता का कोई आधार नहीं होता. जब कोई पंचायत पूरे गांव को इक्ट्ठा कर लेती है और किसी प्रेमी जोड़े से कहती है कि तुमलोगों को अपने करतूत की माफी मांगनी होगी, तो चाहे प्रेमी युगल डर के मारे माफी मांग ले लेकिन ऐसी माफीनामे में उनके हृदय से अपने किये पर किसी अफसोस की आवाज नहीं उठती. लेकिन यहां नैतिकता की इतनी सारी दुहाई क्यों देना क्योंकि यहां तो साफ ही दिख रहा है कि मामला ताकत के खेल और जोर-जबर्दस्ती का है.
यहां मामला दो पक्षों के बीच किसी संवाद का है ही नहीं, यहां तो एक पक्ष अपनी ताकत के जोर से दूसरे पक्ष को सीधे-सीधे आदेश सुना रहा है कि तुम्हें ऐसा करना होगा..! ताकत के इस बने-बनाये खांचे के भीतर किसी व्यक्ति के दिल से ऐसी माफी उभर ही नहीं सकती जो सचमुच आत्म-परीक्षण और प्रायश्चित की भावना से उपजी हो ; ताकत के सजे हुए खांचे के भीतर तो आदेश दिया जा रहा है, सीधे सीधे कहा जा रहा है कि तुम्हें यही करना होगा क्योंकि तुमसे ऐसा करवाने की हमें ताकत हासिल है. माफी मांगने और माफी देने वाले दो पक्षों के बीच ताकत के बने बनाये खांचे के भीतर मेल का कोई रिश्ता नहीं बैठाया जा सकता ; यह तो लोगों के बीच में किसी व्यक्ति को खड़े-खड़े ज़लील करने का मामला है. मजबूरी की सूरत में माफी मांगने का मतलब है, किसी ऐसी ताकत के आगे आत्मसमर्पण करना जो आपके वजूद का हिस्सा ही नहीं.
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एक सत्यवीर
चलो मान लिया कि आपने माफी मांगी और किसी ताकतवर के आगे माफी मांगी लेकिन किसी और को ज्यादा ताकतवर मांग लेने में हर्ज ही क्या है ? इस सवाल के उत्तर के लिए हमें फिर से महात्मा गांधी के पास चलना होगा. प्लेटो लिखित एपोलॉजी के अपने गुजराती अनुवाद में महात्मा गांधी ने सुकरात को सत्यवीर कहा है, सच्चाई के हक में खड़ा एक ऐसा योद्धा जिसे मृत्युदंड का भय दिखाकर भी डराया नहीं जा सकता, अपने विश्वास से डिगाया नहीं जा सकता. फैसला सुनाने को बैठी जूरी की जी-हजूरी करते हुए अगर सुकरात ने माफी मांग ली होती, अपने विश्वास बदल दिये होते, हाजत से निकल जाने की जुगत लगाकर अपनी जवावदेही से कन्नी काट ली होती तो फिर सुकरात के मुंह से निकले ऐसे माफीनामे का क्या मतलब होता ? तब भी क्या हम ‘माफी’ को एक जादुई लफ्ज मानते ? ना, तब सुकरात के मुंह से निकली क्षमायाचना को उनकी संकल्पहीनता और कायरता का प्रतीक माना जाता.
गांधीजी को एक बार ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ा था. तब अहमदाबाद की अदालत ने उनपर और महादेव देसाई पर मुकदमा चला कि उनके प्रकाशन-कार्य से कोर्ट की अवमानना हुई है. गांधीजी ने लिखा है कि उन्होंने तब माफी क्यों नहीं मांगी थी:
‘मैं उन मित्रों को आश्वस्त करना चाहता हूं, जो शुद्ध मैत्रीभाव से ही सही लेकिन हमें माफी मांग लेने की सलाह दे रहे हैं, कि मुझे उनकी सलाह मंजूर नहीं और ऐसा करने के पीछे कोई हठ नहीं है बल्कि एक बड़ा सिद्धांत दांव पर लगा है.. अगर मेरी तैयारी ऐसी नहीं कि मैं ऐसी गलती आगे फिर दोबारा ना कर सकूं तो मैं माफी नहीं मांग सकता. मैं मानकर चलता हूं कि अदालत के आगे मांगी गई माफी वैसी ही ईमानदार होनी चाहिए जैसी कि निजी एकांत में मांगी गई माफी. … अगर मैंने माफी नहीं मांगी तो नहीं मांगी क्योंकि ऐसा करना मेरी अन्तरात्मा के खिलाफ होता. मेरा मानना है कि यह सिविल नाफरमानी की वैसी ही भरपूर नजीर है जैसी कि मुझे अब तक हासिल (सिविल नाफरमानी के मौके) होती रही है..’ (Young India, 24-3-1920, pp. 3-4)
दरअसल, प्रशांत भूषण अदालत को नेवता दे सकते थे कि पिछले कुछ सालों के अपने आचरण के बारे में वो खुद ही सोचकर देखे और फिर पूछ सकते थे कि : माफी मांगने में गलत क्या है, मी लार्ड ?
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(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)