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Friday, 1 November, 2024
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जेएनयू की छवि खराब करके बीजेपी को क्या मिला

बीजेपी ने जेएनयू की छवि एक ऐसे संस्थान की बना दी है, जहां राष्ट्रविरोधी-हिंदूविरोधी-नक्सली ताकतों का नियंत्रण है और देश को जेएनयू से मुक्ति सिर्फ बीजेपी दिला सकती है. लेकिन क्या जेएनयू दरअसल ऐसा ही है?

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नागरिकता संशोधन विधेयक लोकसभा में 9 दिसंबर, 2019 को पास हुआ और दो दिन बाद 11 दिसंबर को राज्यसभा ने उसे पारित कर दिया. राष्ट्रपति ने भी उसे तत्काल अनुमोदन दे दिया. संसद से पारित होने के ठीक 30 दिन बाद 10 जनवरी, 2020 को गृह मंत्रालय ने इसका नोटिफिकेशन जारी किया और ये कानून यानी सीएए देश में लागू हो गया.

11 दिसंबर को संसद से पारित होने और 10 जनवरी को लागू होने के बीच सीएए को लेकर देश में काफी कुछ हुआ. सबसे बड़ी घटना तो वह आंदोलन था, जो अब भी जारी है, जिसके केंद्र में सीएए और साथ में एनआरसी का विरोध है. ये सिर्फ संयोग हो सकता है कि जब तक ये आंदोलन मीडिया की हेडलाइन रहा तब तक सरकार ने सीएए को नोटिफाई नहीं किया.

5 जनवरी को मीडिया की हेडलाइन बदल जाती है, क्योंकि उस रात जेएनयू में हमलावरों ने उपद्रव किया. उसके बाद सारा देश इसी बारे में बात करने लगा कि इसका दोषी कौन है. इस बीच दीपिका पादुकोण की फिल्म छपाक रिलीज होती है और उससे पहले वे अपनी मौन समर्थन जेएनयू के छात्रों को दे आती हैं. ये सब मीडिया की सुर्खियां बनता है. जेएनयू विवाद शुरू होने के पांचवें दिन सरकार सीएए का नोटिफिकेशन जारी कर देती है.

बीजेपी दरअसल जेएनयू से जुड़े विवादों का इस तरह से इस्तेमाल करती रही है.

जेएनयू विवाद में कैसे दबा रोहित वेमुला प्रकरण

चार साल पहले जब 17 जनवरी, 2016 को हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के शोध छात्र रोहित वेमुला का शव हॉस्टल के कमरे में लटकता पाया गया, तो पूरे देश में, खासकर दलितों में, क्रोध की लहर दौड़ गई. यूनिवर्सिटी में आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन और आरएसएस के संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के बीच विवाद चल रहा था और इसमें दो केंद्रीय मंत्री सीधे हस्तक्षेप कर रहे थे. इस घटना के बाद देश भर में दलितों का गुस्सा फूट पड़ा, संसद में इसे लेकर हंगामा हुआ और बीजेपी के लिए मुसीबत खड़ी हो गई.


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इसी बीच 9 फरवरी, 2016 को जेएनयू में कुछ अति वामपंथी छात्रों ने एक सभा रखी, जिसका उद्देश्य संसद हमले के दोषी अफजल गुरु की फांसी का विरोध करना था. आम तौर पर ऐसी सभाओं को जेएनयू में भी कोई नोटिस नहीं लेता. ऐसे अति वामपंथी संगठनों के लिए कैंपस में समर्थन भी नहीं है. लेकिन उस दिन विद्यार्थी परिषद ने वहां हंगामा खड़ा कर दिया और वहीं से मीडिया ने जेएनयू को टुकड़े-टुकड़े गैंग कहना शुरू कर दिया.

बीजेपी के लिए ये बहुत ही सुविधाजनक स्थिति थी. सारे वामपंथियों को भारत विरोधी कहने का उसे मौका मिला और चूंकि वहां छात्रों पर हमले के बाद कांग्रेस समेत विपक्षी दलों के नेता वहां समर्थन में पहुंचे इसलिए बीजेपी ने पूरे विपक्ष की देशभक्ति पर सवाल खड़े कर दिए. इस तरह रोहित वेमुला का मामला भी दब गया.

लेकिन क्या जेएनयू सचमुच टुकड़े-टुकड़े गैंग है?

स्कॉलर्स की संख्या के मामले में जेएनयू देश के छोटे विश्वविद्यालयों में है. जहां दिल्ली यूनिवर्सिटी में हर साल 50,000 से ज्यादा रेगुलर छात्र दाखिला लेते हैं. वहीं, जेएनयू में स्कॉलर्स की कुल संख्या 8,000 के आस-पास है. इस लिहाज से चुनावी राजनीति के लिए जेएनयू का नगण्य महत्व है.

जेएनयू के स्कॉलर्स करते क्या हैं? खबरों से तो ऐसा लगता है कि मानो वे आंदोलन करने, राजनीति करने और देश तोड़ने के अलावा कुछ भी नहीं करते. लेकिन वास्तविकता ये है कि जेएनयू के ज्यादातर छात्र प्रशासनिक सेवाओं तथा यूजीसी नेट जैसी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं और अपनी एकेडेमिक क्षमताओं को बढ़ाने की कोशिश करते रहते हैं. बड़ी संख्या में वहां के छात्र केंद्र और राज्य की सिविल सर्विस में हैं, यूनिवर्सिटी और कॉलेजों के शिक्षक हैं, रिसर्चर हैं, बड़े कॉरपोरेट घरानों में पत्रकार हैं और कुछ छात्र एनजीओ में विभिन्न पदों पर हैं. केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, विदेश मंत्री एस. जयशंकर, सीपीएम के नेता सीताराम येचुरी जैसे जेएनयू के छात्र रहे कुछ लोग राजनीति में भी हैं.

जेएनयू की छवि चाहे जो भी हो, इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि यह विश्वविद्यालय भारत की सत्ता संरचना के लिए लगातार टैलेंट उपलब्ध करा रहा है. सत्ता विरोधी तेवर के साथ यात्रा शुरू करने वाले कई छात्र आईएएस और आईपीएस बनकर सत्ता का संचालन करते हैं. इस साल भी भारतीय आर्थिक सेवा परीक्षा के नतीजों में सबसे ज्यादा कैंडिडेट जेएनयू से चुने गए हैं.


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चाहे यहां की जितनी भी रेडिकल वामपंथी छवि हो, लेकिन ये उन विश्वविद्यालयों में नहीं है, जहां के छात्र नक्सली आंदोलन का नेतृत्व करते हुए मारे गए हैं. इसका एकमात्र अपवाद यहां के छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष चंद्रशेखर हैं, जो बाद में भाकपा-माले के नेता के तौर पर बिहार गए और वहां के बाहुबली आरजेडी नेता शाहबुद्दीन के गुंडों ने उन्हें मार डाला. लेकिन चंद्रशेखर भी अति वामपंथी संगठन से नहीं जुड़े थे. उनकी पार्टी संसदीय लोकतंत्र में हिस्सा लेती है.

जेएनयू को इस तरह से समझा जा सकता है कि ये सत्ता प्रतिष्ठान का वो विरोधी है, जो समग्रता में सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा भी है. दोनों एक दूसरे के अंतर्विरोधी नजर आते हैं लेकिन इस तरह के पक्ष और विपक्ष को मिलकर ही सत्ता संरचना का निर्माण होता है. इस द्वैत में जेएनयू का सत्य छिपा है.

लेकिन, बीजेपी ने सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा रहे जेएनयू की छवि में बदलाव कर दिया है. उसकी जेएनयू पॉलिसी को इन बिंदुओं से समझा जा सकता है.

1. जेएनयू में उग्र मुसलमानों और कश्मीर की आजादी चाहने वाले चरमपंथियों को पनाह मिलती है.

2. इन चरमपंथियों को जेएनयू के अति-वामपंथियों और राष्ट्रविरोधी शक्तियों का समर्थन मिलता है.

3. कांग्रेस और वाम दलों समेत विपक्ष इनका साथ देता है.

4. देश को जेएनयू की इन शक्तियों से बचाना होगा.

5. ये काम सिर्फ नरेंद्र मोदी, अमित शाह और बीजेपी कर सकती है.

इस हिसाब से जेएनयू की छवि को लगातार गढ़ा जा रहा है और इस पर ढेर सारे लोग विश्वास भी कर ले रहे हैं.

जेएनयू की इस छवि का फायदा बीजेपी उठाती रहती है. सीएए-एनआरसी विवाद के दौरान भी यही हुआ.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह लेख उनका निजी विचार है.)

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