चंद महीनों बाद झारखंड में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. वहां के बारे में शुरुआती आकलन ये है कि मुख्य विपक्षी पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा यानी झामुमो या संभावित महागठबंधन के पक्ष में यदि आदिवासी जनता गोलबंद नहीं होती, तो न सिर्फ भाजपा का झंडा फिर से झारखंड में लहरायेगा, बल्कि उसे पहले से भी बड़ी सफलता हासिल होगी. इसलिए यह सवाल झारखंड में अहम सवाल बन गया है कि आदिवासी वोट किस ओर रुख करेगा. यदि आदिवासी वोटर अभी भी झामुमो के साथ हैं, तो अल्पसंख्यकों के साथ जुड़ कर वह भाजपा को टक्कर दे पायेगा.
झारखंड के राजनीतिक इतिहास में आदिवासी
एक जमाने में झारखंड में तीन सामाजिक शक्तियां राजनीति में अहम भूमिका निभाती थीं. आदिवासी, सदान (गैर आदिवासी झारखंडी) और औद्योगिक मजदूर. जातीय समीकरणों से ज्यादा काम करती थी. बाहरी-भीतरी यानी झारखंडी, गैर-झारखंडी का द्वंद्व. अलग झारखंड राज्य के संघर्ष की बदौलत जयपाल सिंह मुंडा साठ के दशक तक एकीकृत बिहार की राजनीति में प्रभावी रहे और उनकी पार्टी, झारखंड पार्टी प्रमुख विपक्षी दल की भूमिका निभाती रही. लेकिन, कांग्रेस पार्टी में उनकी झारखंड पार्टी के विलय के बाद कांग्रेस तेजी से इस पूरे क्षेत्र में छा गई.
फिर उभरे झारखंड की राजनीति में तीन प्रमुख जन नायक – शिबू सोरेन, स्व. विनोद बिहारी महतो और कॉमरेड एके राय. ये क्रमश: आदिवासी, सदान और औद्योगिक मजदूरों के नेता बन कर सामने आए. उनके नेतृत्व में धनकटनी आंदोलन, सूदखोरी विरोधी आंदोलन, कोयलांचल में माफिया के खिलाफ संघर्ष और अलग झारखंड राज्य के आंदोलन को गति मिली. लेकिन ‘लाल और हरे झंडे की मैत्री’ का यह दौर सत्तर के दशक के अंत तक आते-आते टूट गया. बावजूद इसके जनसंघ या भाजपा इस क्षेत्र में इस दौर तक प्रभावी नहीं हो सकी, क्योंकि बिहार की राजनीति में लालू यादव के अभ्युदय और झामुमो के साथ उसके करीबी रिश्तों की बदौलत आदिवासी, अल्पसंख्यक और पिछड़ा वोटरों की एकजुटता बनी और भाजपा के लिए झारखंड अभेद्य किले जैसा बना रहा. दूसरी तरफ, कांग्रेस झारखंड में निष्प्रभावी होती चली गई.
झारखंड में कैसे बढ़ी भाजपा
झारखंड अलग राज्य के आंदोलन के चरम क्षणों में लालू प्रसाद का यह बयान आया कि झारखंड उनकी लाश पर बनेगा और इसके साथ ही झारखंड में पुरानी राजनीतिक किलाबंदी टूट गई. इसी मोड़ पर, भाजपा एक बाढ़ की तरह झारखंड में प्रवेश कर गई. दो-चार सीटें जीतने वाली भाजपा विधानसभा चुनावों में झामुमो को बराबरी की टक्कर देने लगी. भाजपा की यह सफलता इतनी बड़ी थी कि बिहार में उस वक्त तक कुछ ज्यादा नहीं कर पाने वाली भाजपा ने सन् 2000 में अलग झारखंड राज्य का गठन कर दिया. इस तरह, न सही बिहार, लेकिन उसके एक हिस्से में भाजपा की सरकार बन गई.
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अलग राज्य गठन के बाद के लगभग दो दशकों में भाजपा एक मजबूत पार्टी के रूप में झारखंड में स्थापित हो चुकी है. इसकी एक बड़ी वजह झामुमो का भाजपा के साथ मिल कर कुछ वर्ष सरकार चलाना है. इससे झामुमो के वोटरों में बीजेपी को लेकर झिझक टूट गई. इसका खामियाजा पिछले विधानसभा चुनाव में झामुमो को चुकाना पड़ा. जब भाजपा अपने दम पर बहुमत के बहुत करीब पहुंच गई. पिछले लोकसभा चुनाव में उसे 14 में से 12 सीटों पर सफलता मिली है. मुख्यमंत्री रघुवर दास का दावा है कि ‘गुरुजी’ यानी शिबू सोरेन हार गये. विधानसभा चुनाव में अगली बार बेटा, यानी हेमंत सोरेन भी हारेंगे. रघुवर दास का दावा है कि भाजपा 65 सीटों पर जीतेगी.
क्या बीजेपी को आदिवासियों का समर्थन मिल पाएगा?
क्या रघुवर दास का राजनीतिक वक्तव्य सच होने वाला है? ये इस सवाल के जवाब पर निर्भर करता है कि आदिवासी जनता क्या भाजपा के पीछे गोलबंद हो रही है या वह अब भी झामुमो के साथ है? पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा की विशाल सफलता के बावजूद आदिवासी जनाधार में बीजेपी सीमित सेंध ही लगा पाई थी.
इस तथ्य को 14 लोकसभा सीटों के चुनाव परिणामों में आसानी से देखा जा सकता है. जहां गैर-आदिवासी सीटों पर भाजपा की जीत लाखों वोटों के अंतर से हुई, वहीं आदिवासियों के लिए आरक्षित पांचों सीटों पर उसे नाकों चने चबाने पड़े और जीत का अंतर बहुत छोटा रहा. आदिवासी सीट पर सबसे अधिक वोटों के अंतर से हारने वाले शिबू सोरेन रहे, जहां जीत का अंतर 47590 रहा. दुमका सीट पर बीजेपी के सुनील सोरेन को 484923 वोट प्राप्त हुए और शिबू सोरेन को 437333 वोट.
आदिवासियों के लिए आरक्षित खूंटी सीट में जीत का मार्जिन 1445 था. वहां भाजपा के अर्जुन मुंडा को 382638 वोट प्राप्त हुए, जबकि महागठबंधन प्रत्याशी कांग्रेस के कालीचरण मुंडा को 381193 वोट प्राप्त हुए. निर्दलीय मीनाक्षी मुंडा को 10989 वोट मिले. जेएचकेपी प्रत्याशी अजय टोपनो को 8838 वोट मिले.
सिंहभूम सीट कांग्रेस जीत गई और एक अन्य सीट लोहरदगा में भाजपा के जीत का अंतर 10363 वोट रहा. इस सीट पर भाजपा के सुदर्शन भगत को 371595 वोट मिले, जबकि कांग्रेस के सुखदेव भगत को 361232 वोट. यहां जेएचकेपी के देवकुमार धान को 19546 वोट प्राप्त हुए.
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दूसरी ओर, अनरिजर्व सीट जमशेदपुर में भाजपा केविद्युत वरण महतो को 679632 वोट मिले, जबकि झामुमो को 377542 वोट ही मिले. गिरिडीह में एनडीए के घटक आजसू को 648277 वोट मिले, जबकि झामुमो के जगन्नाथ महतो को 399930 वोट ही आए. गोड्डा में भाजपा के निशिकांत दूबे को 637610 वोट और महागठबंधन के प्रदीप यादव को 453383 वोट मिले. पलामू में भाजपा के विष्णु दयाल राम को 755659 वोट और राजद के घूरन राम को 278053 वोट मिले. यानी, आदिवासी बहुल सीटों पर भाजपा मुश्किल से जीत पाई, जबकि सामान्य सीटों पर भाजपा बेहद आसानी से जीत गई जिसमें तमाम शहरी सीटें हैं.
गौरतलब यह भी है कि गैर-आदिवासी सीटों पर एनडीए और महागठबंधन के बीच सीधी टक्कर थी, जबकि एसटी सीटों पर निर्दलीय प्रत्याशियों की बड़ी संख्या थी. इसका अर्थ यह निकाला जा सकता है कि आदिवासी राजनीति अभी परिपक्व नहीं हुई, लेकिन वह भाजपा के साथ हो गई है ऐसा मानने का कोई आधार नहीं है.
झारखंड के चुनावी परिणाम का अनुमान लगाने के लिए वहां के आदिवासी समाज में हो रही हलचल पर नजर बनाए रखें.
(लेखक जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े रहे. समर शेष है उनका चर्चित उपन्यास है)