scorecardresearch
Wednesday, 25 December, 2024
होममत-विमतवसीम अकरम जातिवादी गाली दे पा रहे हैं, क्योंकि पाकिस्तान में न आंबेडकर हुए, न मायावती

वसीम अकरम जातिवादी गाली दे पा रहे हैं, क्योंकि पाकिस्तान में न आंबेडकर हुए, न मायावती

पाकिस्तान का समाज, भारत, बांग्लादेश और नेपाल की तरह ही जन्म आधारित जातियों और बिरादरियों में बंटा है, जिनके बीच ऊंच और नीच की एक स्थापित व्यवस्था है.

Text Size:

पाकिस्तानी क्रिकेटर वसीम अकरम ने वर्ल्ड कप में अफगानिस्तान के हाथों पाकिस्तान की हार के बाद, टीवी चैनल पर लाइव चर्चा के दौरान अपमानजनक तरीके से एक जातिवादी शब्द कहा. पाकिस्तान में जाति को लेकर गाली-गलौज बेहद आम है और सेलिब्रिटीज से लेकर मौलाना तक खुलकर इस तरह से बात करते हैं. यह पाकिस्तान के समाज के सामंतवादी बने होने के साथ ही इस बात का भी प्रमाण है कि वहां लोकतंत्र ने सही तरह से काम नहीं किया है और आधुनिकता से उसका नाता जुड़ नहीं पा रहा है.

ऐसा नहीं है कि भारत में जातिवादी गालियां नहीं दी जातीं. सांस्कृतिक रूप से भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश का साझा अतीत रहा है तो आदतें भी मिलती-जुलती हैं. पर भारत में संविधान, कानून और जनमानस का मूड ऐसा है कि क्रिकेटर युवराज सिंह जब जातिवादी गाली देते हैं, तो उनकी गिरफ्तारी होती है और उनको जेल से बाहर रहने के लिए बेल लेनी पड़ती है. टीवी एक्ट्रेस मुनमुन दत्ता को भी ऐसी टिप्पणी के लिए मुकदमे का सामना करना पड़ रहा है. एक अन्य एक्ट्रेस युविका दत्ता को जातिवादी टिप्पणी के लिए सार्वजनिक माफी मांगनी पड़ी थी. पाकिस्तान में ऐसा कोई कानूनी फ्रेमवर्क नहीं है, इसलिए वसीम अकरम को वहां गिरफ्तार करने की कोई व्यवस्था नहीं है.

इस लेख में मैं इस समस्या को ऐतिहासिक संदर्भों में देखने की कोशिश कर रहा हूं. मेरी मान्यता है कि भारत और पाकिस्तान की नींव ही अलग ढंग से बनी है, और दोनों देशों ने आजादी के बाद अलग-अलग तरीके से अपनी यात्राएं तय की हैं. इस क्रम में पाकिस्तान ने लोकतंत्र के उन पहलुओं को नहीं बरता, जिससे एक बेहतर मुल्क बनता.


यह भी पढ़ें : देश के आधे IAS — SC, ST, OBC से, लेकिन वे टॉप पदों पर क्यों नहीं पहुंच पाते


बुनियाद का अंतर

पाकिस्तान की राजनीति के मूल में सेना और राजनीतिक सत्ता के बीच अनवरत चलने वाला संघर्ष है. निर्वाचित सत्ता भी अक्सर सेना के साथ गलबहियां करने लगती हैं. सेना वहां न सिर्फ सरकार, बल्कि नौकरशाही से लेकर बिजनेस और जीवन के तमाम और पहलुओं मे बेहद असरदार है. साथ ही पाकिस्तान एक धार्मिक यानी मजहबी राष्ट्र है, जहां बाकी तमाम विमर्श मजहब के सामने बौने हैं. इसलिए जाति या लिंगभेद या क्षेत्रीय असमानता जैसे सवाल वहां कभी बड़े सवाल के रूप में सामने नहीं आ पाते या फिर उन्हें दबा दिया जाता है. पाकिस्तान का जन्म ही दरअसल भारत के विचार के विरुद्ध हुआ है. बेशक, इस आरोप में भी दम है कि आजादी के आंदोलन में कांग्रेस समावेशी नहीं थी और उसमें मुख्य रूप से हिंदू सवर्ण हित ही प्रभावी थे, जिसने मुसलमान मानस में वाजिब शंकाएं पैदा कीं.

भारत में आजादी के बाद दो बड़े लोकतांत्रिक उभार हुए हैं, जिसने हालात बदल दिए. पहली उथल-पुथल 60 के दशक में हुई, जब कांग्रेस से नाराज मध्यवर्ती और कुछ पिछड़ी जातियों ने राजनीति में हिस्सेदारी की मांग की और इसमें उन्हें कामयाबी भी मिली. दूसरा उभार 90 के दशक में हुआ जब एक तरफ बहुजन समाज पार्टी के नेतृत्व में दलित और पिछड़ों का एक हिस्सा गोलबंद हुआ, वहां पुराने समाजवादियों के नेतृत्व में पिछड़ी जातियों की भूमिका बड़ी होने लगी. पाकिस्तान की राजनीति में ऐसा कोई सकारात्मक बदलाव नहीं हुआ. इसलिए वहां की राजनीति और साथ ही वहां का समाज ठहरा हुआ है. अब भी पाकिस्तान को जमींदार और जनरल व कर्नल ही चलाते हैं.

पाकिस्तान का समाज, भारत, बांग्लादेश और नेपाल की तरह ही जन्म आधारित जातियों और बिरादरियों में बंटा है, जिनके बीच ऊंच और नीच की एक स्थापित व्यवस्था है. यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, सैन डियागो में शिक्षक शाइस्ता अब्दुल अजीज पटेल ने इस बात को दर्ज किया है कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति आदेश (प्रेसिडेंट ऑर्डर), 1957 में कुल 40 जातियों का जिक्र है, जिनमें से 32 अनुसूचित जातियां हैं. वे ये भी बताती हैं कि पाकिस्तान में ईसाइयों की ज्यादातर आबादी दलितों की है, जिनको एक जातिगत नाम से ही जाना जाता है और ये मुख्य रूप से सफाई का काम करते हैं.

अपने आलेख में पटेल ने न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट का जिक्र किया है कि जुलाई, 2020 में पाकिस्तान की सेना ने किस तरह सफाईकर्मियों की नौकरी का विज्ञापन जारी किया और साथ में शर्त रख दी कि सिर्फ ईसाई ही अप्लाई करें. विवाद बढ़ने पर इस विज्ञापन को सेना ने वापस ले लिया. इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि 1998 की जनगणना के मुताबिक पाकिस्तान में ईसाई आबादी सिर्फ 1.6 प्रतिशत है, पर 80 प्रतिशत तक स्वीपर ईसाई हैं.

भारत की अलग यात्रा

जाति, भारत में भी अपने विभत्स रूप में मौजूद है और संविधान के आने से जाति खत्म नहीं हुई है. जाति उत्पीड़न जारी है और सीवर में दलित अब भी मारे जा रहे हैं. लेकिन पाकिस्तान की तुलना में यहां फर्क ये है कि संविधान और सरकार जाति व्यवस्था को मान्यता नहीं देती, बल्कि उसे खारिज करती है.

भारत के साथ जो सबसे अच्छी बात हुई वो ये कि इसे शुरुआती दौर में ही एक विविधतापूर्ण संविधान सभा हासिल हुई, जिसमें विभिन्न वर्गों, समूहों और समुदायों की प्रतिनिधित्व था. इस सभा में संविधान का ड्राफ्ट तैयार करने का जिम्मा अपने समय के श्रेष्ठ विद्वान, समतावादी और लोकतांत्रिक विचारों के डॉ. बी.आर. आंबेडकर को सौंपा. शायद इस वजह से भी संभव हुआ कि भारत को एक सेक्युलर संविधान मिला, जिसकी प्रस्तावना में ही समानता और बंधुत्व की बात है. अनुच्छेद 17 के जरिए छुआछूत का निषेध कर दिया गया. अनुच्छेद 15, 16, 330, 332, 340, 341, 342 आदि के जरिए सामाजिक न्याय और आरक्षण जैसी व्यवस्थाओं को संवैधानिक संरक्षण दिया गया. अनुसूचित जाति और जनजाति के और अब पिछड़े वर्गों के संरक्षण और उनकी शिकायतों की सुनवाई के लिए संवैधानिक आयोगों की व्यवस्था की गई है. पाकिस्तान को ये सब कुछ नहीं मिल पाया.

यही नहीं, आगे चलकर छुआछूत जैसे भेदभाव पर पाबंदी लगाने का अलग से कानूनी प्रावधान हुआ और सिविल राइट्स एक्ट बना. जातीय उत्पीड़न पर रोक लगाने के लिए एससी-एससी उत्पीड़न निरोधक कानून, 1989 बना, जिसे अब और सख्त कर दिया गया है.

राजनीतिक प्रक्रिया का योगदान

संविधान और कानून के परे भारत में कुछ दिलचस्प और बेहद महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रक्रियाएं भी चलीं. डॉ. आंबेडकर चूंकि कांग्रेस के साथ मतभेद के कारण पहली कैबिनेट से बाहर आ गए थे और फिर उनका स्वास्थ्य भी खराब रहने लगा. इसलिए उन्हें आजादी के बाद की राजनीति में अपनी बड़ी पारी खेलने का मौका नहीं मिला. लेकिन उनके परिनिर्वाण के कुछ साल बाद पंजाब के युवा वैज्ञानिक कांशीराम ने भारत में दलित-बहुजन आंदोलन की बागडोर संभाल ली.

उनकी योग्य राजनीतिक वारिस बहनजी नाम से प्रसिद्ध मायावती जब देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं तो इसका असर सिर्फ राजनीति नहीं समाज पर भी पड़ा, वे कालांतर में चार बार मुख्यमंत्री बनीं और राष्ट्रीय राजनीति पर भी उनकी छाप है. इससे दलितों का आत्मविश्वास काफी बढ़ा और इसका असर उनके प्रति अन्य लोगों के नजरिए पर भी हुआ. मायावती के होने का असर ये भी है देशभर में दलित युवा राजनीति में अपने स्तर पर प्रयोग कर रहे हैं, जिनमें भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर आजाद प्रमुख हैं.

मायावती का कार्यकाल अच्छी कानून और व्यवस्था के कारण भी जाना जाता है. यानी अन्य बातों के अलावा उनके दौर में दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर भी काफी हद तक अंकुश लगा. इसके साथ ही कोई समाज जब खुद को सशक्त महसूस करने लगता है तो उसमें प्रतिकार करने की क्षमता आ जाती है और उत्पीड़न और गाली-गलौज यूं भी कम हो जाती है.

पाकिस्तान का दुर्भाग्य है कि वहां न आंबेडकर हुए और न ही वहां के वंचित तबकों से मायावती जैसी किसी नेता के उभर पाने का माहौल है. इसलिए वहां वसीम अकरम जैसे लोग जातिवादी टिप्पणी करके साफ बच निकलेंगे.

(संपादन : इन्द्रजीत)

(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका एक्स हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)


यह भी पढ़ें : छर्रे के घाव, PTSD पीड़ित- मेडिकल आपूर्ति ठप होने के कारण जान बचाने के लिए गाजा सर्जनों की कठिन लड़ाई


 

share & View comments