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Monday, 1 December, 2025
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वॉशिंगटन शूटर की कहानी अमेरिकी बर्बरता की है, ‘थर्ड वर्ल्ड’ की पिछड़ेपन की नहीं

CIA-प्रशिक्षित ज़ीरो यूनिट का हिस्सा रहे रहमानुल्लाह लाकनवाल को 2021 में काबुल गिरने से पहले अमेरिका ले जाया गया था, लेकिन लंबा सफर भी उसके दिमाग से खून के धब्बे नहीं मिटा सका.

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ईद-अल-अज़हा की पहली रात, उसके बेटों को बिल्कुल नज़दीक से गोली मारकर खत्म कर दिया गया. बुज़ुर्ग अब्दुल्ला देख रहे थे कि एक अमेरिकी स्पेशल फोर्स अफसर अपने डिजिटल डिवाइस पर पीड़ितों के नाम टिक कर रहा है. फरूशगाह-ए-ज़ुरमत—वह छोटी-सी दुकान जहां अब्दुल्ला के बेटे गज़नी के बाज़ार में सिंचाई का सामान बेचते थे—12 अगस्त 2019 को ईद के लिए बंद थी. भाई ईद मनाने के लिए अपने गांव कुलाल्गो लौट आए थे, उसके कलाओं यानी मिट्टी से बने घरों के छोटे-छोटे समूह में. एक हाई स्कूल टीचर, एक कॉलेज छात्र, एक किसान—उस रात 11 जानें खत्म हो गईं, दुनिया ने शायद ही ध्यान दिया हो. फरूशगाह-ए-ज़ुरमत कभी दोबारा नहीं खुली.

इस हफ्ते, राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने वॉशिंगटन डीसी में एक पूर्व अफगान स्पेशल फोर्स ऑपरेटिव द्वारा दो नेशनल गार्ड सैनिकों को गोली मारने के बाद ऐलान किया कि वे “सभी थर्ड वर्ल्ड देशों से होने वाली माइग्रेशन को स्थायी रूप से रोक देंगे”, लेकिन उस कातिल की कहानी अमेरिकी बर्बरता की है, अफगान पिछड़ेपन की नहीं.

सालों तक, रहमानुल्लाह लाकनवाल कंधार में एक तथाकथित “ज़ीरो यूनिट” में सिपाही रहा—एक ऐसी खास फोर्स जिसे सीआईए ने ट्रेन और फंड किया था और जो सैन्य व नागरिक नियंत्रण से बाहर काम करती थी. लाकनवाल की नंबर 03 जैसी ज़ीरो यूनिट्स पर सौ-सैकड़ों हत्याओं के आरोप लगे—गलत खुफिया जानकारी, फैसले की गलती और साफ-साफ क्रूरता के कारण.

करीब एक लाख अफगानों की तरह, लाकनवाल की यूनिट के सदस्य भी 2021 में काबुल गिरने से पहले अमेरिका ले जाए गए. उसे अप्रैल में शरण मिली, लेकिन नेप्च्यून के महासागरों को पार कर आया उसका लम्बा सफर भी उसके मन से खून के निशान नहीं धो सका; न ही उस आत्मा के सड़ते घाव धो सका, जो उसकी लड़ाई ने छोड़ दिए थे.

कम खर्च में मारना

शुरुआत से ही, अमेरिका ने 9/11 के बाद की जंग लड़ने के लिए स्थानीय मिलिशिया और वारलॉर्ड्स (स्थानीय सरदारों) पर काफी निर्भर किया. यह बात सीआईए के उस समय के काउंटर-टेररिज़्म स्पेशल ऑपरेशंस चीफ हेनरी क्रम्प्टन की आंशिक-रूप से डिक्लासिफाइड रिपोर्ट से पता चलती है. नॉर्दर्न अलायंस की उज़्बेक और ताजिक जातीय मिलिशिया का इस्तेमाल अल-कायदा की टॉप लीडरशिप के लिए चौंकाने वाला था, क्योंकि वे एक भारी-भरकम और धीमी अमेरिकी सैन्य तैनाती की उम्मीद कर रहे थे. अल-कायदा यह भी मानकर चला था कि अमेरिकी फौजें हताहत होने पर पीछे हट जाएंगी, जैसा उन्होंने 1993 के मोगादीशू (सोमालिया) की लड़ाई के बाद किया था.

अमेरिका की तेज़ जीत के बावजूद कई समस्याएं अनदेखी रह गईं. पहली, पारंपरिक अमेरिकी फौजों की बहुत कम मौजूदगी और यह संख्या 2003 में इराक युद्ध शुरू होने के बाद और कम हो गई जिससे तालिबान और अल-कायदा को अफगानिस्तान में पीछे हटने और फिर से खड़े होने का मौका मिला. इससे भी खराब यह कि पाकिस्तान में जनरल परवेज़ मुशर्रफ की सरकार ने अमेरिका को इस बात के लिए मना लिया कि वह तालिबान को पनाह दे सके, और बदले में एक राजनीतिक समाधान का वादा किया.

2006 से, जब दक्षिणी और दक्षिण-पूर्वी अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के संकेत साफ दिखने लगे, तो रक्षा सचिव रॉबर्ट गेट्स और अमेरिकी सेना प्रमुख जनरल डेविड पेट्रियस जैसे बड़े अधिकारियों ने तालिबान विद्रोहियों को बातचीत के प्रस्ताव देने शुरू किए. अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपनी फौज की संख्या बढ़ानी शुरू की और एक मजबूत अफगान सेना बनाने की कोशिश भी शुरू की.

ध्यान से योजना न बनाने और संसाधनों की भारी बर्बादी के कारण, सैन्य क्षमता बनाने पर खर्च किए गए 90 अरब डॉलर कामयाब नहीं हुए—यह बात बाद में अफगान पुनर्निर्माण की निगरानी करने वाले स्पेशल इंस्पेक्टर जनरल की जांच में सामने आई. अफगान सेना और पुलिस भ्रष्टाचार से भरी हुई थी और उनके पास इतनी क्षमता नहीं थी कि वे अपने दम पर एक मजबूत ताकत बन सकें और अपने सबसे अच्छे समय में भी, अफगानिस्तान में सिर्फ 11,000 अमेरिकी सैनिक थे—जो इतने बड़े पहाड़ी देश को सुरक्षित रखने के लिए काफी नहीं थे.

2014 से, जब राजनीतिक दबाव के कारण अमेरिकी सैनिकों की संख्या कम की गई, तो सीआईए-नेतृत्व वाले बल अफगानिस्तान को संभालने में और ज़्यादा अहम हो गए. इन बलों को अमेरिकी स्पेशल फोर्सेज़ से लाए गए सैनिकों द्वारा लीड किया जाता था और यह ज़ीरो यूनिट्स पुराने वारलॉर्ड्स की सेनाओं की तरह ही थीं—फर्क बस इतना था कि ये अमेरिका के वफादार थे, न कि किसी जातीय या कबीलाई नेटवर्क के. ज़ीरो यूनिट्स में शामिल अफगान युवाओं को सीआईए सीधे हर महीने 700 डॉलर देती थी—जो एक साधारण सैनिक की तनख्वाह से तीन गुना ज्यादा था.

खामियां

इन सभी कोशिशों का सबसे बड़ा नतीजा यह हुआ कि राज्य-निर्माण पर ध्यान ही नहीं दिया गया. सैन्य कमांडरों ने सोचा कि कम खर्च में वे तालिबान को एक ऐसी लड़ाई में फंसा सकते हैं जिसमें वह धीरे-धीरे खत्म हो जाए. ज़ीरो यूनिट्स नाम की चार खास इकाइयां, जो कागज़ों पर तो अफ़गानिस्तान की खुफिया एजेंसी एनडीएस के अधीन थीं—आतंकवाद के खिलाफ इस दीवार की सबसे अहम ईंटें थीं.

ज़ीरो यूनिट 01 मध्य अफगानिस्तान में, 02 पूर्वी हिस्से में, 03 दक्षिण में और 04 उत्तर में काम करती थी. इसके अलावा, एक ‘खोस्त प्रोटेक्शन फोर्स’ (केपीएफ) भी थी, जो एक मिलिशिया थी और उस पर अफगान सरकार का कोई औपचारिक नियंत्रण नहीं था.

अपनी अक्सर क्रूर रणनीतियों की वजह से, ज़ीरो यूनिट्स शुरू से ही अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई की नाराज़गी का कारण बने. गलत या अधूरी खुफिया जानकारी के आधार पर रात में होने वाले छापों में बड़ी संख्या में आम नागरिक मारे जाते थे, जिससे करज़ई की राजनीतिक साख कमजोर हुई. एनडीएस का इन ज़ीरो यूनिट्स पर नियंत्रण सिर्फ नाम भर का था—अफगान अधिकारी भी जानते थे कि वे अमेरिकी डॉलर आते रहने पर ही टिके हैं.

शोधकर्ताओं ऐस्ट्रि सुर्खे और एंतोनियो डे लौरी के मुताबिक, इन ज़ीरो यूनिट्स की कुल संख्या 3,000 से 10,000 के बीच थी और केपीएफ में करीब 4,000 लोग थे. सीआईए द्वारा समर्थित ये बल बेहद अच्छे हथियारों से लैस थे, अंग्रेज़ी बोलते थे और उन्हें ज़रूरत पड़ने पर हवा से हमले बुलाने की अनुमति भी थी.

जवाबदेही न होने का असर साफ दिखा. एनडीएस के पूर्व प्रमुख रहमतुल्लाह नबील—जो ज़ीरो यूनिट्स के मुख्य अफगान संपर्क अधिकारी थे, कई बार ग्रामीणों की मौत पर उनके परिवारों को ‘खून-बहा’ (मुआवज़ा) देने पर मजबूर हुए, लेखिका केट क्लार्क के दस्तावेज़ बताते हैं कि लड़ाइयों में अक्सर महिलाएं और बच्चे भी फंस जाते थे. कुनर में तालिबान कमांडर के एक घर पर असफल छापे के बाद, ज़ीरो यूनिट पर हमला हुआ और उन्होंने हवाई हमला बुला लिया. इसमें 12 महिलाएं और बच्चे और एक मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति मारा गया.

खून का दाग

कश्मीर और पंजाब में मानवाधिकारों पर भारत को जो बड़े-बड़े उपदेश पश्चिमी देश देते थे, उनकी अपनी सेना अफगानिस्तान में बेहद उत्साह से मारक अभियान चलाती रही. बीबीसी की जांच में पता चला कि élite Special Air Services (SAS) के एक यूनिट ने सिर्फ छह महीने में 54 निहत्थे लोगों की हत्या कर दी.

N1766 नाम के एक गवाह ने एक आधिकारिक जांच में कहा कि उन्हें लगता है एसएएस की असली नीति थी कि “टारगेट पर मौजूद हर पुरुष को मार दो, चाहे वह खतरा हो या न हो”—इसी को सैनिक “फ्लैट-पैकिंग” कहते थे.

एक वकील ने पूछा कि क्या मारे गए लोगों में 16 साल के या उससे छोटे बच्चे भी थे? एक अन्य गवाह ने जवाब दिया, “या उससे भी कम उम्र के, 100%.” एक अधिकारी ने अपने साथियों को ईमेल में लिखा कि एसएएस और हत्या “हमेशा साथ चलते हैं,” और उनके ऑपरेशनों की आधिकारिक रिपोर्टें “बहुत अविश्वसनीय” लगती थीं.

ऑस्ट्रेलियाई स्पेशल फोर्सेज़ भी कम नहीं थीं, जांच में पाया गया कि उन्होंने कम से कम 39 लोगों को गैर-न्यायिक तरीके से मार डाला. एक सैनिक पर हत्या का आरोप लगा, लेकिन अब तक मुकदमा नहीं हुआ. कुछ वरिष्ठ कमांडरों से सम्मान वापस ले लिए गए. एक मुआवज़ा योजना भी शुरू हुई, लेकिन उसे अस्पष्ट मापदंडों और पीड़ितों से बात न करने के कारण आलोचना मिली.

अमेरिका में ऐसी कोई बड़ी आधिकारिक जांच नहीं हुई, लेकिन खोजी पत्रकारों ने 781 ऐसे मामलों की पहचान की, जिन्हें सैन्य न्याय प्रणाली ने संभावित युद्ध अपराध के रूप में जांचा था. इनमें एक 14 साल की लड़की का बलात्कार और फिर उसके परिवार सहित उसकी हत्या भी शामिल थी. इस अपराध के दोषी स्टीवन डेल ग्रीन ने 2014 में जेल में खुदकुशी कर ली, उन्हें उम्रकैद मिली थी.

इन 781 मामलों में से सैन्य कानून अधिकारियों ने 151 मामलों में (572 आरोपियों पर) मुकदमा चलाया. 127 लोग दोषी पाए गए, लेकिन लगभग सभी को छोटी-मोटी सज़ाएं मिलीं, जैसे अतिरिक्त ड्यूटी, रैंक घटाना या चेतावनी. औसतन सज़ा सिर्फ आठ महीने की थी.

इस बड़े पैमाने की हत्याओं और सुरक्षा व विकास दोनों देने में असफलता, ने अफगान राज्य को भीतर से खोखला कर दिया. 2021 में सेना गिरने से बहुत पहले ही, अफगान गणराज्य एक ऐसा ढांचा बन गया था जिस पर लोग भरोसा खो चुके थे, जबकि कभी वे उम्मीद करते थे कि यह लोकतंत्र लाएगा.

अमेरिका के लिए यह समय गुस्से का नहीं, बल्कि गहरी आत्म-चिंतन का होना चाहिए.

(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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